समझें जन्म कुंडली में रोग और शत्रु भाव (6ठे भाव) को

ज्योतिष में रोग और शत्रु की बात करे तो ज्योतिष में 6ठे भाव से रोग का विचार किया जाता है और भावेत , भावम के सिद्धान्त से 6 से 6 मतलब 11 भाव से भी रोग का विचार किया जाता है।

नई दिल्ली। ज्योतिष में रोग और शत्रु की बात करे तो ज्योतिष में 6ठे भाव से रोग का विचार किया जाता है और भावेत , भावम के सिद्धान्त से 6 से 6 मतलब 11 भाव से भी रोग का विचार किया जाता है तो 6 और 11 भाव के स्वामी हमे रोग देते है 8 भाव आयु मृतयु आदि का है और सबसे बुरा स्थान है तो 8 भाव भी हमे रोग देता है।

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किसी भी जातक की कुंडली का विश्लेषण करके उसके रोग व उसकी मृत्यु को जान सकते हैं। रोग की परिभाषा के अनुसार तत्संबंधी भावों, उनके स्वामियों, लग्न व लग्नेश स्थिति और उस पर पापी ग्रहों की युति व उनकी दृष्टियों से उस रोग व उससे जातक की मृत्यु को जाना जा सकता है। किसी भी व्यक्ति की जन्म कुंडली को देखकर उस व्यक्ति के रोग एवं उसकी मृत्यु के बारे में जाना जा सकता है। यह भी बताया जा सकता है कि उसकी मृत्यु किस रोग से होगी।

ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं कि वैदिक ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक जन्मकुंडली में छठवाँ भाव रोग, आठवाँ भाव मृत्यु तथा बारहवाँ भाव शारीरिक व्यय व पीड़ा का माना जाता है। इन भावों के साथ ही इन भावों के स्वामी-ग्रहों की स्थितियों व उन पर पाप-ग्रहों की दृष्टियों व उनसे उनकी पुत्रियों आदि को भी देखना समीचीन होता है। यही नहीं, स्वयं लग्न और लग्नेश भी संपूर्ण शरीर तथा मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करता है। लग्न में बैठे ग्रह भी व्याधि के कारक होते हैं। लग्नेश की अनिष्ट भाव में स्थिति भी रोग को दर्शाती है। इस पर पाप-ग्रहों की दृष्टि भी इसी तथ्य को प्रकट करती है। विभिन्न ग्रह विभिन्न अंग-प्रत्यंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जैसे बुध त्वचा, मंगल रक्त, शनि स्नायु,सूर्य अस्थि, चंद्र मन आदि का। लग्न में इन ग्रहों की स्थिति उनसे संबंधित तत्व का रोग बताएगी और लग्नेश की स्थिति भी।

किसी भी व्यक्ति की जन्म कुंडली को देखकर उस व्यक्ति के रोग एवं उसकी मृत्यु के बारे में जाना जा सकता है। यह भी बताया जा सकता है कि उसकी मृत्यु किस रोग से होगी।  प्रत्येक कुंडली, लग्न, चंद्रराशि और नवमांश लग्न से देखी जाती है। इसका मिलान सूर्य की अवस्थिति को लग्न मानकर, काल पुरुष की कुंडली आदि से भी किया जाता है। छठवाँ भाव रोग का होने के कारण उसमें बैठे ग्रहों, उस पर व षष्टेश पर पाप ग्रहों की दृष्टियों व षष्टेश की स्थिति से प्रमुखतया रोग का निदान किया जाता है। इनके अतिरिक्त एकांतिक ग्रह भी विभिन्ना रोगों का द्योतक है।

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पण्डित दयानन्द शास्त्री के अनुसार जन्मकुंडली में छठवाँ, आठवाँ और बारहवाँ भाव अनिष्टकारक भाव माने जाते हैं। इनमें बैठा हुआ ग्रह एकांतिक ग्रह कहा जाता है। यह ग्रह जिन भावों का प्रतिनिधित्व करता है, उससे संबंधित अंग रोग से पीड़ित होता है। यही नहीं, वह जिस तत्व यथा बुध त्वचा, मंगल रक्त आदि जैसा कि ऊपर बताया गया उससे संबंधित रोग वह बताएगा। ज्योतिष शास्त्र में ‘भावात्‌ भावम्‌’ का सिद्धांत भी लागू होता है। इसका आशय यह है कि छठवें से छठवाँ अर्थात एकादश भाव भी रोग का ही कहलाएगा। इसी भाँति आठवें से आठवाँ अर्थात तृतीय भाव भी मृत्यु का माना जाएगा और बारहवें से बारहवाँ अर्थात पुनः एकादश भाव शारीरिक व्यय अथवा पीड़ा का होगा। इस दृष्टि से भी ऊपर निर्दिष्ट कुंडलियों का मिलान करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुदर्शन से रोग देखा जाता है। यदि कोई ग्रह दो केंद्र भावों का स्वामी होता है तो वह अपनी शुभता खो देता है और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाता है।

आठवाँ व बारहवाँ भाव मृत्यु और शारीरिक क्षय को प्रकट करता है, जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है। लग्न व लग्नेश आयु को दर्शाता है, इसकी नेष्ट स्थिति भी आयु के लिए घातक होती है। यहाँ पर एक और बात का ध्यान रखना उपयुक्त होगा। राहु व शनि जिस भाव व राशि में बैठा होता है, उसका स्वामी भी उनका प्रभाव लिए होता है। वह जिस भाव में बैठा होगा या जिस भाव पर वह अपनी दृष्टि डालेगा, उस पर राहु व शनि प्रभाव भी अवश्य आएगा। राहु मृत्युकारक ग्रह है तो शनि पृथकताकारक। यह स्थिति भी मृत्युकारक होगी या उस अंग को पृथक करेगा। कभी-कभी यह बात ध्यान में नहीं रखने के कारण फलादेश गलत हो जाता है। गोचर ग्रहों के साथ-साथ महादशा व अंतर्दशा से भी फलादेश का मेल खाना अत्यंत आवश्यक होता है। जातक की जन्म कुंडली से उसके किसी भी रिश्तेदार के रोग व उसकी मृत्यु का पता लगाया जा सकता है।

यदि रोग एवम शत्रु आदि विचार करे तो जब अष्टमेश हमारे लग्न स्थान में आ जाये जो कि लग्न स्वास्थ्य आदि सब का कारक है तो शरीर रोगी ही रहता है । इसे शत्रु या रोग स्थान भी कहते हैं। इससे जातक के श‍त्रु, रोग, भय, तनाव, कलह, मुकदमे, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर, जननांगों के रोग आदि का विचार किया जाता है।

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जानें कैसे

— 6ठा घर रोग शत्रु का है जब यह लग्न में हो तो तो अपनी ही जाती के लोग वाधा पहुचाते है क्योंकि लग्न खुद का शरीर घर है वहाँ 6 भाव के स्वामी का बैठना , अपने ही लोग , या अपनी जाति के शत्रु पीड़ा देते है।

–जब लग्न या 6 भाव के स्वामी के साथ सूर्य हो तो ज्वर से पीड़ा होती है क्योंकि सूर्य तो खुद ही अग्नि है ज्वर भुखार में भी शरीर का तापमान बढ़ जाता है ।

–लग्न या 6 भाव के स्वामी के साथ चन्द्रमा हो तो जल से भय रहता है क्योंकि चन्द्रमा तो है ही जल और जल से उतपन रोग देता है।

–1 और 6 भाव के स्वामी के साथ मंगल हो तो चोट , घाव , फोड़ा, अंग कट जाना आदि रोग देता है क्योंकि मगल तो है।

–लग्न या 6 भाव के स्वामी के साथ जब बुध हो तो , कफ , वात पित से पीड़ा देता है क्योंकिइन चीजों का कारक बुध है।

—लग्न या 6 भाव के स्वामी के साथ गुरु हो प्रायः रोग आदि कम ही देता है क्योंकि गुरु सुख का जो कारक है।

–लगन या 6 भाव के स्वामी के साथ शुक्र हो तो , स्त्री को रोगी बनाता है , साथ मे वीर्य सम्बदी रोग भी देता है ।

–रोग की परिभाषा के अनुसार तत्संबंधी भावों, उनके स्वामियों, लग्न व लग्नेश स्थिति और उस पर पापी ग्रहों की युति व उनकी दृष्टियों से उस रोग व उससे जातक की मृत्यु को जाना जा सकता है।

–लग्न या 6 भाव के स्वामी के साथ जब शनि हो तो , नीच जाती के लोगो से कष्ट देता है और रोग की बात करे तो दीर्घ कालीन रोग देता है राहु का शनि की तरह और केतु का मंगल की तरह समझना चाहिए ।