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अंग्रेजी के सामने कमजोर मानी जाती

लेकिन अंग्रेजी के सामने कमजोर मानी जाती है। अंग्रेजी को विश्वभाषा बताया जाता है। लेकिन जापान, रूस और चीन आदि अनेक देशों में अंग्रेजी की कोई हैसियत नहीं है। भारत की संविधानसभा (14 सितम्बर 1949) ने हिन्दी को राजभाषा बनाया, 15 वर्ष तक अंग्रेजी में राजकाज चलाने का ‘परंतुक’ जोड़ा।

नई दिल्ली। भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। हिन्दी में भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति है। लेकिन अंग्रेजी की ठसक है। महात्मा गांधी इस बात पर दुखी थे। भाषा के प्रश्न पर गांधी ने लिखा था, “पृथ्वी पर हिन्दुस्तान ही एक ऐसा देश है जहां मां बाप अपने बच्चों को अपनी भातृभाषा के बजाय अंग्रेजी पढ़ाना लिखाना पसंद करेंगे।” (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 15/249) देश की मातृभाषा राजभाषा हिन्दी है। लेकिन अंग्रेजी के सामने कमजोर मानी जाती है। अंग्रेजी को विश्वभाषा बताया जाता है। लेकिन जापान, रूस और चीन आदि अनेक देशों में अंग्रेजी की कोई हैसियत नहीं है। भारत की संविधानसभा (14 सितम्बर 1949) ने हिन्दी को राजभाषा बनाया, 15 वर्ष तक अंग्रेजी में राजकाज चलाने का ‘परंतुक’ जोड़ा।

अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने समापन भाषण में कहा “हमने संविधान में एक भाषा रखी है। अंग्रेजी के स्थान पर एक भारतीय भाषा (हिन्दी) को अपनाया है। हमारी परम्पराएं एक हैं, संस्कृति एक है।” इसके एक दिन पूर्व पं नेहरू ने कहा, “हमने अंग्रेजी इस कारण स्वीकार की, कि वह विजेता की भाषा थी, अंग्रेजी कितनी ही अच्छी हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते।” इसके भी एक दिन पूर्व (12.9.1949) एनजी आयंगर ने सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखते हुए, 15 बरस तक अंग्रेजी को जारी रखने का कारण बताया, “हम अंग्रेजी को एकदम नहीं छोड़ सकते। यद्यपि सरकारी प्रयोजनों के लिए हमने हिन्दी को अभिज्ञात किया फिर भी हमें यह मानना चाहिए कि आज वह सम्मुनत भाषा नहीं है।” पं नेहरू अंग्रेजी सहन करने को तैयार नहीं थे, राजभाषा अनुच्छेद के प्रस्तावक हिन्दी को कमतर बता रहे थे। संविधान सभा में 3 दिन तक बहस हुई। संविधान के अनु0 343 (1) में हिन्दी राजभाषा बनी, किन्तु अनु0 343 (2) में अंग्रेजी जारी रखने का प्राविधान हुआ। हिन्दी के लिए आयोग/समिति बनाने की व्यवस्था हुई। हिन्दी के विकास की जिम्मेदारी (अनु0 351) केन्द्र पर डाली गयी।

बेशक अंग्रेजी विजेता की भाषा थी, लेकिन 1947 के बाद हिन्दी भी विजेता की भाषा थी। अंग्रेज जीते, अंग्रेजी लाये, भारतवासी स्वाधीनता संग्राम जीते, हिन्दी क्यों नहीं लाये? स्वाधीनता संग्राम की भाषा मातृभाषा हिन्दी थी। लेकिन कांग्रेस अपने जन्मकाल से ही अंग्रेजी को वरीयता देती रही, गांधी जी ने कहा, “अंग्रेजी ने हिन्दुस्तानी राजनीतिज्ञों के मन में घर कर लिया। मैं इसे अपने देश और मनुष्यत्व के प्रति अपराध मानता हूं।” (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 29/312) गांधी जी ने बीबीसी (15 अगस्त 1947) पर कहा “दुनिया वालो को बता दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।” भारतीय संस्कृति, सृजन और सम्वाद की भाषा हिन्दी है। बावजूद इसके अंग्रेजी का मोह बढ़ा” अंग्रेजी स्कूल बढ़े, अंग्रेजी प्रभुवर्ग की भाषा बनी। भूमण्डलीकरण ने नया नवधनाढ्य समाज बनाया। अंग्रेजी महज ज्ञापन की भाषा थी, वही विज्ञापन की भाषा में घुसी। हिन्दी का अंग्रेजीकरण हुआ। टीवी सिनेमा ने नई ‘शंकर भाषा’ को गले लगाया। हिन्दी सौंदर्य और कला व्यक्त करने का माध्यम थी/है, अंग्रेजीकृत हिन्दी/हिंग्लिश/ मिश्रित बोली ने उदात्त भारतीय सौन्दर्य बोध को भी ‘सेक्सी’ बनाया। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शैम्पू और दादखाज की दवा बेचने का माध्यम हो सकती है लेकिन सृजन और सम्वाद की भाषा नहीं हो सकती। बाजार नई भाषा गढ़ रहा है। मातृभाषा संकट में है। स्वभाषा के बिना संस्कृति निष्प्राण होती है, स्वसंस्कृति के अभाव में राष्ट्र अपना अंतस, प्राण, चेतन और ओज तेज खो देते हैं।

अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बताने वाले भारतीय दरअसल आत्महीन ग्रंथि के रोगी हैं। अमेरिकी भाषा विज्ञानी ब्लूम फील्ड ने अंग्रेजी की बाबत (लैंगुएज, पृष्ठ 52) लिखा “यार्कशायर (इंग्लैंड) के व्यक्ति की अंग्रेजी को अमेरिकी नहीं समझ पाते।’ दूसरे भाषाविद् डॉ0 रामबिलास शर्मा ने ‘भाषा और समाज’ (पृष्ठ 401) में लिखा “अंग्रेजी के भारतीय प्रोफेसरों को हालीवुड की फिल्म दिखाइए, पूछिए, वे कितना समझे। अंग्रेजी बोलने के भिन्न भिन्न ढंग है। इसके विपरीत हिन्दी की सुबोधता को हर किसी ने माना है। हिन्दी अपनी बोलियों के क्षेत्र में तो समझी ही जाती है गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में भी उसे समझने वाले करोड़ों है। यूरोप में जर्मन और फ्रांसीसी अंग्रेजी से ज्यादा सहायक है। जर्मनी और अस्ट्रिया की भाषा जर्मन है। स्विट्जरलैण्ड के 70 फीसदी लोगों की मातृभाषा भी जर्मन है। चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, युगोस्लाविया और पोलैण्ड के लोग जर्मन समझते है। हमारी धारणा है कि संसार की आबादी में अंग्र्रेजी समझने वाले 25 करोड़ होंगे तो हिन्दी वाले कम से कम 35 करोड़ (किताब सन् 1960 की है)”। अंग्रेजी जानकार कम है तो भी वह विश्वभाषा है। हिन्दी वाले ज्यादा हैं बावजूद इसके वह वास्तविक राष्ट्रभाषा भी नहीं है।

International Mother Language Day Hindi

भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां पूंजी के साथ भाषा लाती है। भाषा के साथ संस्कृति आती है। संवाद की शैली बदलती है। जनसम्पर्क उद्योग बनता है। विश्व के बौद्धिक भाषा विज्ञानी नोमचोम्सकी ने कहा, “करोड़ों डालर से चलने वाले जनसंपर्क उद्योग के जरिए बताया जाता है कि दरअसल जिन चीजों की जरूरत उन्हें नहीं है, वे विश्वास करें कि उनकी जरूरत उन्हें ही है।” भाषा के विकास की प्रक्रिया सामाजिक विकास से जुड़कर चलती है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में संस्कृति और आर्थिक उत्पादन के कारक प्रभाव डालते हैं। भारत की नई पीढ़ी अपने मूल स्रोत मातृभाषा, संस्कृति और दर्शन से कटी हुई है।

हिन्दी के पास प्राचीन संस्कृति और परम्परा का सुदीर्घ इतिहास है। यहां अनेक भाषाएं/बोलियां उगी। भाषा के विकास के साथ वस्तुओं के रूप को नाम देने की परम्परा चली। रूप और नाम मिलकर ही परिचय बनते हैं। तुलसीदास ने यही बात हिन्दी में गाई “रूप ज्ञान नहि नाम विहीना।” हिन्दी के पास संस्कृत और संस्कृति की अकूत विरासत है। ऋग्वेद ने भाषा के न्यूनतम घटक को ‘अक्षर’ बताया। अक्षर नष्ट नहीं होता। वाणी/भाषा “सहस्त्रिणी अक्षरा” (ऋ0 1.164.41) है। वाणी में सात सुर हैं लेकिन अक्षर मूल हैं “अक्षरेण मिमते सप्तवाणी,” वे अक्षर से वाणी नापते हैं। हिन्दी ने संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाओं/बोलियों से शब्द लिये, सबको अर्थ दिये। संविधान निर्माण के बाद 1951 में नियुक्त आफीसियल लेंगुवेज कमीशन ने अंग्रेजी के ठीक जानकारों की संख्या लगभग 0.25 प्रतिशत बतायी। 1 प्रतिशत से भी कम अंग्रेजीदां लोग प्रतिष्ठित बने। वे अंग्रेजी में सोंचते हैं, देश हिन्दी में रोता है। हिन्दी में हंसता है। हिन्दी फिल्में अरबों लूटती हैं, संवाद/गीत हिन्दी में होते है लेकिन नाम परिचय अंग्रेजी में। लोकप्रिय निर्माता/निर्देशक/नायक, नायिकाएं अपने साक्षात्कार अंग्रेजी में देते हैं। इनसे प्रभावित युवा “हाय गाइज … रियली स्पीकिंग,” बोलते हैं। मातृभाषा में ही प्रीति, प्यार राग, द्वेष, काव्य सर्जन चरम पाते है। हिन्दी दिवस आया, उत्सव हुए। भारत का भविष्य हिन्दी है। हिन्दी हमारी अभिव्यक्ति है, हमारे आनंद का चरम संगीत और काव्य भी। हिन्दी पखवाड़े में यह बातें ध्यान में लाना जरूरी है।

भारत में सरस्वती के तट पर विश्व में पहली दफे ‘शब्द’ प्रकट हुआ। ऋग्वैदिक ऋषि माध्यम बने। ब्रह्म/सर्वसत्ता ने स्वयं को शब्द में अभिव्यक्त किया। ब्रह्म शब्द बना, शब्द ब्रह्म कहलाया। अभिव्यक्ति बोली बनी और भाषा का जन्म हो गया। नवजात शिशु का नाम पड़ा संस्कृत। संस्कृत यानी परिष्कृत, सुव्यवस्थित/बार-बार पुनरीक्षित। अक्षर अ-क्षर हैं। अविनाशी हैं। सो संस्कृत की अक्षर ऊर्जा से दुनिया में ढेर सारी बोलियों/भाषाओं का विकास हुआ। लोकआकांक्षाओं के अनुरूप संस्कृत ने अनेक रूप पाये। भारत में वह वैदिक से लोकसंस्कृत बनी। प्राकृत बनी। पाली बनी। अपभृंश बनी और हिन्दी भी। संस्कृत गोमुख की गंगा है हिन्दी हरिद्वार, प्रयाग, वाराणसी, कानपुर सहित गंगासागर तक की पुण्यसलिला।

भारत स्वाभाविक ही हिन्दी में अभिव्यक्त होता है। भारत के संविधान में हिन्दी राजभाषा है पर 54 वर्ष बाद (हिन्दी दिवस 14-09-2004) भी अंग्रेजी ही राजभाषा है। भारत की संविधानसभा में राष्ट्रभाषा के सवाल पर 12, 13 व 14 सितम्बर (1949) को लगातार तीन दिन तक बहस हुई। लंबी बहस के बाद (14 सितम्बर 1949) अंग्रेजी महरानी और हिन्दी पटरानी बनी। बहस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 नेहरू ने कहा, “पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत ही थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते, हमें अपनी ही भाषा (हिन्दी) को अपनाना चाहिए।” (संविधान सभा, 13 सितम्बर 1949) लेकिन संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा घोषित करने के बावजूद अंग्रेजी को बनाए रखने का प्रस्ताव किया और इसे हटाने के लिए 15 वर्ष की समय सीमा तय हो गयी। डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा “मैं संस्कृत चुनता। वह मातृभाषा है। हम हिन्दी क्यों स्वीकार कर रहे हैं? इस (हिन्दी) भाषा के बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है, अंग्रेजी हटाने के लिए 15 वर्ष हैं। वह किस प्रकार हटाई जाय?”

असल में संविधान की मसौदा समिति राष्ट्रभाषा के सवाल पर एक राय नहीं हो सकी। सभा में 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आये। जी0एस0 आयंगर ने मसौदा रखा। हिन्दी की पैरोकारी की लेकिन कहा “आज वह काफी सम्मुनत भाषा नहीं है। अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय नहीं मिल पाते।” सेठ गोबिंददास ने हिन्दी को संस्कृति से जोड़ा “यह एक प्राचीन राष्ट्र है। हजारों वर्ष से यहाँ एक संस्कृति है। इस परम्परा को एक बनाए रखने तथा इस बात का खण्ड़न करने के लिए हमारी दो संस्कृतियाँ हैं, इस देश में एक भाषा और एक लिपि रखना है।” नजीरूद्दीन अहमद ने अंग्रजी अनिवार्य रखने का आग्रह किया। लेकिन टोंका टोकी के बीच उन्होंने संस्कृत की भी वकालत की “आप संसार की सर्वोत्तम कोटि की भाषा संस्कृत क्यों नहीं स्वीकार करते।” उन्होंने मैक्समूलर, विलियम जोन्स, डब्लू हंटर सहित दर्जनों विद्वानों के संस्कृत समर्थक विचार उद्धृत किये पर अंग्रेजी का समर्थन किया। कृष्णामूर्ति राव ने अंग्रेजी की यथास्थिति बनाए रखने और राष्ट्रभाषा का सवाल भावी संसद पर छोड़ने की वकालत की। हिफजुररहमान ने हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी-उर्दू लिपि पर जोर दिया।

स्वाधीनता संग्राम की भाषा हिन्दी थी। अक्टूबर, 1917 में गांधी ने राष्ट्रभाषा की परिभाषा की “उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम शक्य हो उसे भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।“ अंग्रेजी में इनमें से एक भी लक्षण भी नहीं है। हिन्दी में ये सारे लक्षण मौजूद हैं।“ (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय, 14/ 28-29) लेकिन संविधान सभा में जब आरवी धुलेकर ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहा तो गुरू रेड्डी ने आपत्ति की। धुलेकर ने कहा “आपको आपत्ति है, मैं भारतीय राष्ट्र, हिन्दी राष्ट्र, हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुस्तानी राष्ट्र का हूँ। इसलिए हिन्दी राष्ट्रभाषा है और संस्कृत अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। अंग्रेजी के नाम पर 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्रहित नहीं होगा। अंग्रेजी वीरों की भाषा नहीं है। वैज्ञानिकों की भी नहीं है। अंग्रेजी के अंक भी उसके नहीं हैं।” धुलेकर काफी तीखा बोले। पं नेहरू ने आपत्ति की। वे फिर बोले। नेहरू ने फिर आपत्ति की। लक्ष्मीकांत मैत्र ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह किया। अलगूराम शास्त्री ने अंग्रेजी को विदेशी भाषा कहकर हिन्दी का समर्थन किया, हिन्दी को अविकसित बताने पर वे बहुत खफा हुए। पुरूषोत्तम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनिविज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा “ विश्व में हिन्दी ही सर्वसम्पन्न वर्णमाला है। मौ अबुलकलाम आजाद, रविशंकर शुक्ल, डा रघुवीर, गोविन्द मालवीय, के एम मुन्शी, मो इस्माइल आदि ढेर सारे लोग बोले। 15 वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के ‘परन्तुक’ के साथ हिन्दी राजभाषा बनी। सर्वोच्चन्यायालय और उच्चन्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रही। केन्द्र पर हिन्दी का प्रचार प्रसार बढ़ाने की जिम्मेदारी भी डाली गयी (अनु.351) तबसे ढेर सारे 15 बरस आये पर अंग्रेजी बढ़ती रही। क्योंकि अंग्रेजी ही राजकाज की भाषा है। सारे राजनीतिक दल और मजदूर संगठन अपना अखिल भारतीय पत्राचार अंग्रेजी में करते हैं। बड़ी पूंजी की राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अंग्रेजी में काम करती हैं। राजनेता के भाषण की भाषा हिन्दी है पर निजी सरोकार की जुबान अंग्रेजी है। भारत में अंग्रेजी बोलना बड़ा आदमी होना है। सौ फीसद हिन्दी भाषी राज्यों, उप्र, बिहार, मप्र, राजस्थान, झारखण्ड, हरियाणा, उत्तरांचल, दिल्ली और छत्तीसगढ़ आदि में भी पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने और पढ़ने की आंधी है।

भारत के असली प्रशासकों की असली भाषा भी अंग्रेजी है। आईएएस की मुख्य परीक्षा में राजभाषा के बजाय अंग्रेजी का पर्चा आज भी अनिवार्य है। देश की बाकी भाषाओं में से कोई एक वैकल्पिक हैं। संसद ने सर्वसम्मत प्रस्ताव (1967) द्वारा “हिन्दी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक“ को अनिवार्य किया। 11 जनवरी, 1991 को संसद ने यही प्रस्ताव फिर दोहराया। राष्ट्रपति ने अंग्रेजी के तुरन्त खात्मे के निर्देश (28 जनवरी, 1992) दिये। पर संसद और राष्ट्रपति के “तुरन्त“ किसी परन्तु में फंसे हुए हैं। अखिल भारतीय भाषा संरक्षण संगठन ने आन्दोलन चलाया। 350 सांसदों ने प्रधानमंत्री राजीव जी को (01-12-1988) ज्ञापन दिया। अटल जी ने सत्याग्रह स्थल पर (07-01-1989) समर्थन दिया। 26 मई, 1989 को सरकारी आश्वासन मिला। एक समिति बनी कि अंग्रेजी कैसे हटे? फिर आन्दोलन हुआ। पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (21-11-1990) धरने पर बैठे। पुष्पेन्द्र चौहान दर्शकदीर्घा से नारे लगाते (10-01-1991) लोकसभा में कूदे। पसलियां टूट गयी। लोकसभा ने पूर्व प्रस्ताव फिर (11-01-1990) दोहराया। ज्ञानी जैल सिंह, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, देवीलाल आदि धरने (12 मई, 1994) पर बैठे। एक साल बाद (12-05-1995) लालकृष्ण आडवाणी, वीरेन्द्र वर्मा ने धरना दिया। सारे नेताओं ने सत्ता से बाहर रहकर अंग्रेजी हटाओ धरना दिया, पर सत्ता में आकर चुप्पी साधी। अंग्रेजी का बाल भी बांका नहीं हुआ। हिन्दी दलित, शोषित, उत्पीड़ित रही।

सरकारें बेशक पिद्दी साबित हुई पर भारत अब अंतरराष्ट्रीय बाजार का खास हिस्सा है। सो हिन्दी की पौ बारह है। हिन्दी आम उपभोक्ता की भाषा है। डा रामविलास शर्मा जैसे मार्क्सवादी विद्वान खड़ी बोली की ताकत का श्रेय बाजार को ही देते थे। हिन्दी में विज्ञापन देना बाजार की मजबूरी है। समाचारों में हिन्दी के साथ अंग्रेजी मिलाकर बोलने की “कैटवाक शैली“ बढ़ी है पर इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिन्दी समाचारों के आगे पीछे का विज्ञापन समय मंहगा है। हिन्दी फिल्में अंग्रेजी दाँ परिवारों में छा गयी हैं। भोजपुरी, अवधी और बृज में फिल्में, सीरियल बन रहे हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मकार हिन्दी को लपक रहे हैं। यों अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन की भाषा अंग्रेजी है। लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। सरकारों की चिन्ता अब नहीं करनी चाहिए। सरकारें आखिरकार अंतराष्ट्रीय बाजार की मैनेजरी ही कर रही हैं। बुश, अब्राहम लिंकन या आइजनहावर की भूमिका में नहीं हैं। लिंकन जातीय हिंसा की चुनौती के बरक्स राष्ट्र निर्माण में थे। हावर के सामने विश्व युद्ध की चुनौती थी। क्लिंटन के सामने अपना व्यापार बढ़ाने की चुनौती है। डा मनमोहन सिंह भी पं नेहरू की भूमिका में नहीं हैं। पं नेहरू के सामने हिन्दू-मुस्लिम एकीकरण, आर्थिक उत्पादन और वितरण की नीतियों के जरिए राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य थे। डा सिंह के सामने अंतराष्ट्रीय बाजार से संतुलन बनाने की वरीयताएं हैं। जाहिर है कि भाषा का भविष्य अब बाजार ही तय कर रहा है। हिन्दी सारे देश की मजबूरी होगी। गांधी ने लखनऊ मे कहा भी था “टूटी फूटी हिन्दी में बोलता हूँ क्योंकि अंग्रेजी बोलने में मानों मुझे पाप लगता है।“

समूची सृष्टि किसी एक आदि तत्व की अभिव्यक्ति है, विकास और विस्तार है। विस्तार और विकास आदि तत्व के मूल गुण हैं। मनुष्य भी इसी विस्तार और विकास का हिस्सा है। सो मनुष्य का मन अंतरंग भी अभिव्यक्ति के लिए बेचैन रहा है। मनुष्य की अभिव्यक्ति बेचैनी से भाषा का विकास हुआ। मनुष्य द्वारा विकसित सभी उपलब्धियों में भाषा की उपलब्धि बेजोड़ है। आदिम मनुष्य ने शारीरिक जरूरतों और मन अंतरंग को प्रकट करने के लिए आंगिक व वाचिक संकेतों का विकास किया। माना जाता है कि शरीर के विभिन्न अंशों से भाव प्रकट करने का विकास पहले हुआ, वाचिक ध्वनि संकेत बाद में विकसित हु। बहुत संभव है कि आंगिक और वाचिक संकेत साथ-साथ ही विकसित हुए हों क्योंकि वाचिक ध्वनि संकेत भी वस्तुतः आंगिक ही हैं। फर्क छोटा है कि वाचिक ध्वनि संकेत का केन्द्र कंठ है, यह भीतर है। हाथ हिलाना, आंख से संकेत करना आदि संकेत बाहर है, प्रत्यक्ष हैं। विकसित भाषा में दोनों हैं। आधुनिक समय में बाडी लैंगुज नाम का शब्द प्रचलन में है। ‘बाडी लैंगुएज’ की खोज कोई नई बात नहीं है। लैंगुएज भाषा में बाडी का प्रयोग आदिमकालीन है।

भाषा सतत विकासशील प्रवाह है। भाषा के जन्म का समय खोजना असंभव है। सन् 1866 ई में पेरिस की भाषा विज्ञान समिति “ला सोसिएते लेगिस्टिीक” ने ‘भाषा की उत्पत्ति’ विषय को विचार के बाहर रखने की घोषणा की थी। वस्तुतः अभिव्यक्ति की इच्छा से ही भाषा का जन्म और विकास हुआ। प्लेटो ने इसे डिंग-डांग (अनुकरणन) सिद्धांत कहा। डार्विन और स्पेन्सर ने सिंगसांग सिद्धांत में भाषा की उत्पत्ति बताई। लेकिन हजारों वर्ष पहले भारत में ऋग्वेद (10.71) में भाषा को मनुष्य का आविष्कार बताया गया कि पहले रूपों, वस्तुओं के नाम रखे गये और भाषा ज्ञान का विकास हुआ। भाषा का विकास अनूठा है। भाषा के कारण ही मनुष्य एक सामान्य प्राणी से सामाजिक प्राणी हुआ। भाषा ने ही मनुष्य को सभ्य, सांस्कृतिक और राजनैतिक बनाया है। सामूहिकता के सारे उच्च प्रतिमान भाषा की देन है। भाषा प्रकृति के सभी रूपों को नाम देती है। सभी नाम/संज्ञा किसी न किसी रूप का संकेत ध्वनि है। भाषा जगत् के समस्त गोचर प्रपंचों, क्रियाओं को भी नाम देती है। संसार अनंक है, काफी कुछ ज्ञात है, शेष अज्ञात है। भाषा ज्ञत की विवरणी है, लेकिन जानने से शेष बचे हिस्से को भी भाषा यों ही नहीं छोड़ देती। भाषा में उसका भी नाम है – अज्ञात संसार ज्ञात अज्ञात का योग मात्र नहीं है। जो जाना हुआ है वह ज्ञात है, जो नहीं जाना गया उसके बारे में इतना ज्ञान तो है ही कि वह अभी अज्ञात है। भाषा में न जान सकने योग्य हिस्से की भी सूचना है जो जानने योग्य है वह ज्ञेय है और जो मानवीय मेधा के परे हैं वह अज्ञेय।

सृष्टि कहिए, ब्रह्म कहिए, पूर्ण कहिए, पूर्णता सम्पूर्णता कहिए, जितना बड़ा यह सम्पूर्ण संसार है, भाषा में भी ठीक उतना ही बड़ा एक समानांतर संसार है। कह सकते हैं कि यहां एक भौतिक संसार है, नदी, पर्वत, वनस्पति, जीव जगत, सौर मण्डल, नीहारिकाएं, उल्का, पृथ्वी, जल, अग्नि-ऊर्जा, आकाश और वायु और बहुत कुछ अज्ञात अज्ञेय। ठीक इसी के समानांतर, ठीक वैसा ही, उतना ही विराट एक संसार है – शब्द संसार, भाषा विश्व। दोनो संसार परस्पर एक हैं। भाषा इसी ब्रह्माण्ड का अंगभूत हैं। यह ब्रह्माण्ड भाषा को धारण करता है लेकिन इसका उल्टा भी है, भाषा भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती है। वह संसार के सभी रूपों को संज्ञा देती है, इतिहास, भूगोल, राजनीति, विज्ञान, दर्शन, गीत, काव्य और संस्कृति सभ्यता की भी धारक है।

ऋग्वेद में एक सूक्त (10.125) में कहते हैं “वाणी (देवी), मित्र, वरूण अग्नि और अश्विनी कुमारों को भी धारण करती है। उसका स्वरूप सभी रूपों में है। मनुष्य की प्राण ऊर्जा, दर्शन और ज्ञान वाक् और श्रवण क्षमता का केन्द्र वाणी है। ऋषि इसी से बुद्धिमान विद्वान बनते हैं। वाणी का जन्म स्थल विराट आकाश में स्थित मूल सृष्टि तत्व-अप (आदितत्व) में है। वाणी राष्ट्रीसंगमनी है।” भाषा राष्ट्र की धारक है। सबको धारण करती है। भाषा की शक्ति अपरंपार है। विद्वान मनुष्यों को भाषा का जनक मानते हैं लेकिन भारतीय प्रतीति भाषा को स्वयंभू मानती है। पशु पक्षियों की भी भाषा होती है। रामचरितमानस (उत्तरकाण्ड) में तुलसीदास की उक्ति “खग जाने, खग की ही भाषा” लोकविख्यात है।

भाषा ही सामूहिकता का मौलिक आधार है। भाषा केवल सम्वाद का माध्यम नहीं होती, भाषा की अपनी संस्कृति होती है। प्रत्येक संस्कृति की अपनी भाषा भी होती है। राष्ट्रभाव मातृभाषा में ही प्रकट होते हैं। प्राचीन भारत की लोकभाषा संस्कृत थी। पं नेहरू ने संविधान सभा को बताया कि एक हजार वर्षो के इतिहास में भारत ही नहीं समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत थी।” संस्कृत ने भारतीय संस्कृति को विश्ववारा, राष्ट्रव्यापी, वैज्ञानिक और दार्शनिक बनाया था। हिन्दी संस्कृत का नया रूप है। हिन्दी में संस्कृत के सभी सांस्कृतिक तत्वों का उत्तराधिकार है।

देश की मातृभाषा राजभाषा हिन्दी है। लेकिन अंग्रेजी के सामने कमतर है। अंग्रेजी को विश्वभाषा बताया जाता है लेकिन जापान, रूस और चीन आदि अनेक देशों में अंग्रेजी की कोई हैसियत नहीं है। भारत की संविधानसभा (14 सितम्बर 1949) ने हिन्दी को राजभाषा बनाया, 15 वर्ष तक अंग्रेजी में राजकाज चलाने का ‘परन्तुक’ जोड़ा। अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने समापन भाषण में कहा “हमने संविधान में एक भाषा रखी है। अंग्रेजी के स्थान पर एक भारतीय भाषा (हिन्दी) को अपनाया है। हमारी परम्पराएं एक हैं, संस्कृति एक है।” इसके एक दिन पूर्व पं0 नेहरू ने कहा, “हमने अंग्रेजी इस कारण स्वीकार की, कि वह विजेता की भाषा थी, अंग्रेजी कितनी ही अच्छी हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते।” इसके भी एक दिन पूर्व (12.9.1949) एनजी आयंगर ने सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखते हुए, 15 बरस तक अंग्रेजी को जारी रखने का कारण बताया, “हम अंग्रेजी को एकदम नहीं छोड़ सकते।यद्यपि सरकारी प्रयोजनों के लिए हमने हिन्दी को अभिज्ञात किया फिर भी हमें यह मानना चाहिए कि आज वह सम्मुनत भाषा नहीं है।”

पं नेहरू अंग्रेजी सहन करने को तैयार नहीं थे, राजभाषा अनुच्छेद के प्रस्तावक हिन्दी को कमतर बता रहे थे। संविधान सभा में 3 दिन तक बहस हुई। संविधान के अनु 343 (1) में हिन्दी राजभाषा बनी, किन्तु अनु 343 (2) में अंग्रेजी जारी रखने का प्राविधान हुआ। हिन्दी के लिए आयोग/समिति बनाने की व्यवस्था हुई। हिन्दी के विकास की जिम्मेदारी (अनु0 351) केन्द्र पर डाली गयी। लेकिन स्थितियां जस की तस हैं। बेशक अंग्रेजी विजेता की भाषा थी, लेकिन 1947 के बाद हिन्दी भी विजेता की भाषा थी। अंग्रेज जीते, अंग्रेजी लाये, भारतवासी स्वाधीनता संग्राम जीते, हिन्दी क्यों नहीं लाये? स्वाधीनता संग्राम की भाषा मातृभाषा हिन्दी थी। गांधी जी ने कहा, “अंग्रेजी ने हिन्दुस्तानी राजनीतिज्ञों के मन में घर कर लिया। मैं इसे अपने देश और मनुष्यत्व के प्रति अपराध मानता हूं।” (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 29/312) गांधी जी ने बीबीसी (15 अगस्त 1947) पर कहा “दुनिया वालो को बता दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।” भारतीय संस्कृति, सृजन और सम्वाद की भाषा हिन्दी है। बावजूद इसके 57 बरस के दीर्घकाल में अंग्रेजी का मोह बढ़ा” अंग्रेजी स्कूल बढ़े, अंग्रेजी प्रभुवर्ग की भाषा बनी। भूमण्डलीकरण ने नया नवधनाढ्य समाज बनाया। जो अंग्रेजी महज ज्ञापन की भाषा थी, वही विज्ञापन की भाषा में घुसी। हिन्दी का अंग्रेजीकरण हुआ। टी0वी0 सिनेमा ने नई ‘शंकर भाषा’ को गले लगाया। हिन्दी ऐन्द्रिक कामुकता को भी सौंदर्य और कला में व्यक्त करने का माध्यम थी/है, अंग्रेजीकृत हिन्दी/हिंग्लिश/ मिश्रित बोली ने उदात्त भारतीय सौन्दर्य बोध को भी ‘सेक्सी’ बनाया। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शैम्पू और दादखाज की दवा बेचने का माध्यम हो सकती है लेकिन सृजन और सम्वाद की भाषा नहीं हो सकती। बाजार नई भाषा गढ़ रहा है। सरकार वोट भाषा गढ़ रही है। मातृभाषा संकट में है। स्वभाषा के बिना संस्कृति निष्प्राण होती है, स्वसंस्कृति के अभाव में राष्ट्र अपना अंतस, प्राण, चेतन और ओज तेज खो देते हैं।

अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बताने वाले भारतीय दरअसल आत्महीन ग्रंथि के रोगी हैं। अमेरिकी भाषा विज्ञानी ब्लूम फील्ड ने अंग्रेजी की बाबत (लैंगुएज, पृष्ठ 52) लिखा “यार्कशायर (इंग्लैंड) के व्यक्ति की अंग्रेजी को अमेरिकी नहीं समझ पाते।’ दूसरे भाषाविद् डॉ0 रामबिलास शर्मा ने ‘भाषा और समाज’ (पृष्ठ 401) में लिखा “अंग्रेजी के भारतीय प्रोफेसरों को हालीवुड की फिल्म दिखाइए, पूछिए, वे कितना समझे। अंग्रेजी बोलने के भिन्न भिन्न ढंग है। इसके विपरीत हिन्दी की सुबोधता को हर किसी ने माना है। हिन्दी अपनी बोलियों के क्षेत्र में तो समझी ही जाती है गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में भी उसे समझने वाले करोड़ों है। यूरोप में जर्मन और फ्रांसीसी अंग्रेजी से ज्यादा सहायक है। जर्मनी और अस्ट्रिया की भाषा जर्मन है। स्विट्जरलैण्ड के 70 फीसदी लोगों की मातृभाषा भी जर्मन है। चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, युगोस्लाविया और पोलैण्ड के लोग जर्मन समझते है। हमारी धारणा है कि संसार की आबादी में अंग्र्रेजी समझने वाले 25 करोड़ होंगे तो हिन्दी वाले कम से कम 35 करोड़ (किताब सन् 1960 की है)”। अंग्रेजी जानकार कम है तो भी वह विश्वभाषा है। हिन्दी वाले ज्यादा हैं बावजूद इसके वह राष्ट्रभाषा भी नहीं है।
भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। भारत अमेरिका पर लट्टू है। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पूंजी के साथ भाषा लाती है। भाषा के साथ संस्कृति आती है। संवाद की शैली बदलती है। जनसम्पर्क उद्योग बनता है। विश्व के प्रख्यात् बौद्धिक भाषा विज्ञानी नोमचोम्सकी ने कहा, “करोड़ों डालर से चलने वाले जनसंपर्क उद्योग के जरिए बताया जाता है कि दरअसल जिन चीजों की जरूरत उन्हें नहीं है, वे विश्वास करें कि उनकी जरूरत उन्हें ही है।” भाषा के विकास की प्रक्रिया सामाजिक विकास से जुड़कर चलती है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में संस्कृति और आर्थिक उत्पादन के कारक प्रभाव डालते हैं। अमेरिकी समाज का विकास गरीबों के शोषण, लूट, खसोट, अंग्रेजी और पूंजीवाद से हुआ। अमेरिकी नई पीढ़ी अपना मूल स्रोत नहीं जानती। भारत की भी नई पीढ़ी अपने मूल स्रोत भाषा, संस्कृति और दर्शन से कटी हुई है। नोमचोम्सकी ने अमेरिकी समाज को हिंसक और तनावग्रस्त बताया।

हिन्दी के पास प्राचीन संस्कृति और परम्परा का सुदीर्घ इतिहास है। यहां अनेक भाषाएं/बोलियां उगी। भाषा के विकास के साथ वस्तुओं के रूप को नाम देने की परम्परा चली। रूप और नाम मिलकर ही परिचय बनते हैं। तुलसीदास ने यही बात हिन्दी में गायी “रूप ज्ञान नहि नाम विहीना।” हिन्दी के पास संस्कृत और संस्कृति की अकूत विरासत है। ऋग्वेद ने भाषा के न्यूनतम घटक को ‘अक्षर’ बताया। अक्षर नष्ट नहीं होता। वाणी/भाषा “सहस्त्रिणी अक्षरा” (ऋ0 1.164.41) है। वाणी में सात सुर हैं लेकिन अक्षर मूल हैं “अक्षरेण मिमते सप्तवाणी,” वे अक्षर से वाणी नापते हैं। हिन्दी ने संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाओं/बोलियों से शब्द लिये, सबको अर्थ दिये। संविधान निर्माण के बाद 1951 में नियुक्त आफीसियल लेंगुवेज कमीशन ने अंग्रेजी के ठीक जानकारों की संख्या लगभग 0.25 प्रतिशत बतायी। 1 प्रतिशत से भी कम अंग्रेजीदां लोग देश के नीतिनियंता बने, सरकारें अंग्रेजी में सोंचती हैं, देश हिन्दी में रोता है। हिन्दी फिल्में अरबों लूटती हैं, संवाद/गीत हिन्दी में होते है लेकिन नाम परिचय अंग्रेजी में। लोकप्रिय निर्माता/निर्देशक/नायक, नायिकाएं अपने साक्षात्कार अंग्रेजी में देते हैं। इनसे प्रभावित युवा पीढ़ी “हाय गाइज … रियली स्पीकिंग,” बोल रही हैं। राष्ट्र अपनी भाषा में ही अभिव्यक्त होते हैं। मातृभाषा में ही प्रीति, प्यार राग, द्वेष, काव्य सर्जन चरम पाते है। कल हिन्दी दिवस आया, उत्सव हुए। फर्जी बाते हुई। राष्ट्रराज्य बाजार के हवाले है, सो हिन्दी भी बाजार की कृपा अनुकम्पा पर है। बाजार और सरकार से अपेक्षाएं छोड़कर सम्पूर्ण राष्ट्र मातृभाषा में बोले, लिखे इसे समृद्ध करे। भारत का भविष्य हिन्दी है। हिन्दी हमारी अभिव्यक्ति है, हमारे आनंद का चरम संगीत और काव्य भी।

संविधान निर्माण के समय हिन्दी को लेकर उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम के मतभेद नहीं थे। संविधान सभा में सेठ गोबिन्ददास ने एक सहमति पत्र का जिक्र किया कि इसमें हिन्दी राष्ट्रभाषा के पक्ष में मुम्बई के निजिंलिगप्पा, जेठे, पाटस्कर और गुप्ते, असम के रोहिणी कुमार, मि0 चालिहा, उड़ीसा के बी0दास, युधिष्ठिर सिंह आदि व बंगाल के श्रीमैत्र, मजूमदार, सुरेन्द्र मोहन घोष आदि के हस्ताक्षर हैं। उन्होंने कोलम्बो से लिखा गया पं0 नेहरू का पत्र (16.5.31) भी पढ़ा, “हिन्दी का राष्ट्रभाषा होना पूरी तौर पर तय हो गया है, खुशी की बात है कि तमिलनाडु में हिन्दी का प्रचार हो रहा है।” पं0 नेहरू ने भाषा के महत्व पर कहा, “भाषा बहुत बड़ी चीज है, इससे हमें अपना ज्ञान होता है, हम पड़ोसी को जानते है।” गांधी नेहरू ने संविधान निर्माण के पहले ही हिन्दी को अंगीकृत कर लिया था लेकिन गांधी नेहरू की कांग्रेस और सोनिया राहुल की कांग्रेस में जमीन आसमान जैसे अंतर हैं। कांग्रेसी संरक्षण ने ही हिन्दी के मुंह पर नया तमाचा जड़ने का उत्साह बढ़ाया है।

भारत की संविधानसभा में हिन्दी को राजभाषा बनाए जाने पर जारी बहस (13.9.1949) में मुम्बई के ही एक सदस्य बी एम गुप्ते ने कहा था “कि शीघ्र ही वह दिन भी आएगा जब हिन्दी न केवल राजभाषा के पद पर बल्कि राष्ट्रभाषा के पद पर भी प्रतिष्ठित होगी जिसे इस महान देश में सर्वत्र हर कोई आसानी से बोल सकेगा।” मुम्बई के ही डॉ0 अम्बेडकर सहित अनेक वरिष्ठ नेता सभा में मौजूद थे। लेकिन गुप्ते की उम्मीद को इसी सूबे के ‘मनसे विधायकों’ ने धराशायी कर दिया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। थप्पड़ महाराष्ट्र विधानसभा के एक सदस्य के गाल पर पड़ा लेकिन चोट से समूचे राष्ट्र का सिर झन्ना गया। तमाचा संविधान पर था, राष्ट्रभाषा पर था, सदन की मर्यादा पर था और भारतीय संस्कृति की जुबान हिन्दी पर था। यह गुण्डा-राज अचानक नहीं उभरा। इसको महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकार ने ही भरपूर सबसिडी दी, पाला पोसा। इसने बहादुरी, पौरूष और पराक्रम के नये रिकार्ड बनाये। गरीब मजदूरों को लठियाया, ठेलिया वाले यू0पी0, बिहारी, बंगाली गरीबों को मारा। कानून मुस्कराता रहा, संविधान मिमिया गया लेकिन सत्ता मेहरबान तो गुण्डाराज पहलवान बना है। इस दफा उसने ऐलानिया धौंस दी कि सदन में हिन्दी में शपथ लने वालों को ठीक कर देंगे। उसके सहयोगी मान्यवरों ने फिर से पराक्रम दिखाया और सदन गुण्डागर्दी का शिकार हुआ लेकिन सभी पूत कपूत ही नहीं होते।

संविधान सभा ने हिन्दी के विकास के लिए संस्कृत से शब्द लेने के नीति निर्देश बताए थे लेकिन हिन्दी वात्सल्य रस से पूरित माँ जैसी है। हिन्दी ने मराठी गुजराती, तमिल, तेलगु, पंजाबी और राजस्थानी आदि सभी भाषाओं के शब्द अपनाएं हैं। उर्दू पहले से ही हिन्दी के आंचल में है, विदेशी अंग्रेजी भी पूरी ढिठाई के साथ हिन्दी के अंतः क्षेत्र में ‘हिंगलिश’ होकर घुस गयी है। हिन्दी सर्वसमावेशी है। जम्मू कश्मीर की राजभाषा उर्दू है लेकिन इस प्रतिष्ठित अखबार सहित इस राज्य में भी हिन्दी साहित्य की मांग बढ़ी है। पं0 बंगाल में हिन्दी की प्रतिष्ठा है। पूर्वोत्तर के राज्यों में भी मार खाते खाते गांधी के सत्याग्रही तर्ज पर हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ी है। हिन्दी ज्ञान की भाषा है, विज्ञान की भाषा है, संस्कृति और दर्शन की भाषा है और इस सबसे ज्यादा वह भारत के मन की भाषा है। वह योजक है, वह वाद-प्रतिवाद और सम्वाद की भाषा है। वह द्वन्द्व-प्रतिद्वन्द्व और द्वैत से अद्वैत के सम्वाद की परत खोलती है। राष्ट्र हिन्दी में खिलता है, पलता है, हंसता है और गुण्डाराज के थप्पड़ खाकर हिन्दी में ही रोता भी है।

हिन्दी भारत की सभी आकांक्षाओं को प्रकट करती है। गांधी जी हिन्दी के जानकार नहीं थे। लेकिन गांधी हिन्दी की योजक क्षमता से परिचित थे। वे तब दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे। वहां अंग्रेजी ही उनके कामकाज की भाषा थी। उन्होंने ‘हिन्दस्वराज’ (1909) में लिखा “हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही होनी चाहिए।” गांधी जी ने कहा कि वायसराय से भी हिन्दी में ही बोलना चाहिए। स्वाधीनता का महासंग्राम हिन्दी में ही लड़ा गया था। मुम्बई में दुनिया का नम्बर दो फिल्म उद्योग है। यह 60-65 हजार करोड़ से बड़ी हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री है। मुम्बई विधानसभा में हिन्दी पर गुण्डागर्दी है लेकिन नाना पाटेकर जैसे अनेक प्रतिभाशाली मराठी नायकों की हिन्दी फिल्मों और सम्वाद का सारे देश में सुस्वागतम् है। हिन्दी राजाश्रय से नहीं बढ़ी। भारत के नये महाराजाओं ने तो 14 सितम्बर 1949 के दिन ही अंग्रेजी को महारानी और हिन्दी को नौकरानी बना दिया था। लेकिन हिन्दी पंख फैलाकर उड़ी, वह जापान में है, जर्मनी में है और अमेरिका में उसकी बल्ले बल्ले है। हिन्दी व्यापार की भाषा है, सूचना और संचार की भाषा है, राजनैतिक प्रचार की भाषा है सिर्फ वोट राजनीति के लिए ही वह दुत्कार और तिरस्कार की भाषा है। यह राष्ट्र हिन्दी में सोंचता है, हिन्दी में बोलता है, हिन्दी में सुनता है और हिन्दी में ही गुनता है।