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वामपंथी हिंसा की वैचारिक पृष्ठभूमि: जेएनयू हिंसा

1969 में जेएनयू (JNU) की स्थापना कांग्रेस (Congress) और वामपंथ (leftist) के दुरभिसंधि काल में हुई थी। दोनों के बीच परस्पर अलगाव, अविश्वास, षड्यंत्र और संघर्ष का दौर समाप्त हो चुका था। कांग्रेस और वामपंथ में एक अघोषित और अलिखित परस्पर फायदे का समझौता हो चुका था। यह तय हुआ था कि केन्द्रीय सत्ता और राजनीति कांग्रेस के हाथ में होगी और कला, संस्कृति और बौद्धिक संस्थाओं से जुड़े सत्ता के केन्द्रों के सुविधाभोगी नियंता वामपंथी होंगे। सांस्कृतिक केंद्र वामपंथ की पाठशाला, कार्यशाला और प्रयोगशाला बन गए।

जब हम बीसवीं सदी के राजनीतिक इतिहास पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि वामपंथी शैली की राजनीति और हिंसा एक दूसरे के काफ़ी करीब बैठे हुए हैं| सोवियत रूस का स्तालिनवादी तंत्र हो, चीन का माओवादी शासन हो या भारत में केरल व पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति हो- इन सबका वामपंथ से गहरा सम्बन्ध है। कहने का अर्थ यह नहीं है कि सभी प्रकार की राजनीतिक हिंसा वामपंथ से ही उपजती है, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथ की राजनीति हिंसा के बिना नहीं चल सकती है।

JNU VIOLANCE

भारत में होने वाली अधिकतर राजनीतिक हिंसा की घटनाओं के पीछे एक माओवादी निमित्त होता है और उस हिंसा के तरीके की एक मार्क्सवादी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी होती है जिसे हम आजकल भारत में अधिक खुलेपन के साथ देख सकते हैं। 5 जनवरी 2020 को JNU में हुई हिंसा और हिंसा करने के बहाने और उनके तरीकों पर गौर करें तो उसकी मार्क्सवादी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ध्यान में आएगी। ज्यादा पीछे न जाते हुए, एक प्रचलित उदहारण से इस बात को समझने का प्रयास करते हैं। इजराइल के गठन के बाद इस्लामिक देशों का यहूदियों का सर्वनाश करने की कसमें- वादे खाने का फैशन चरम पर था। चूंकि इजराइल के गठन के पीछे अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी देशों का हाथ था अतः वामपंथियों के लिए यहूदी देश इजराइल का सर्वनाश पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई का एक हिस्सा हो गया। ‘हमास’ जैसे बर्बर संगठन द्वारा की जाने वाली हिंसा को न्यायसंगत ठहराने के लिए तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवियों ने एक नए नैरेटिव को जन्म दिया जिसका नाम “इन्तिफादा” रखा। बाद में यूरोप और उत्तरी अमेरिका में साफ़-सुथरे नामों से संगठन बना कर इन्तिफादा के नाम पर की गयी हिंसा को जायज़ ठहराते रहे हैं तथा हिंसा करने के लिए मौके की तलाश में भी रहते हैं। सर्वहारा बनाम पूंजीपति की अनिवार्य लड़ाई के सिद्धांत को सही साबित करने के लिए प्रत्येक हिंसा में स्वयं को सर्वहारा दिखाने की कोशिश करते हैं। वामपंथी JNU में 5 जनवरी तक चले हिंसा को “फासीवादी ताकत से JNU को बचाने का संघर्ष” नाम का सिद्धांत पेश करने का प्रयास कर रहे थे। इसके पहले 9 फरवरी 2016 को JNU में हुई भारत विरोधी गतिविधि को, जिसमें “भारत तेरे टुकड़े होंगे” जैसे नारे लगे, उसे “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के सिद्धांत का जामा आज भी पहना रहे हैं।

 

1969 में जेएनयू की स्थापना कांग्रेस और वामपंथ के दुरभिसंधि काल में हुई थी। दोनों के बीच परस्पर अलगाव, अविश्वास, षड्यंत्र और संघर्ष का दौर समाप्त हो चुका था। कांग्रेस और वामपंथ में एक अघोषित और अलिखित परस्पर फायदे का समझौता हो चुका था। यह तय हुआ था कि केन्द्रीय सत्ता और राजनीति कांग्रेस के हाथ में होगी और कला, संस्कृति और बौद्धिक संस्थाओं से जुड़े सत्ता के केन्द्रों के सुविधाभोगी नियंता वामपंथी होंगे। सांस्कृतिक केंद्र वामपंथ की पाठशाला, कार्यशाला और प्रयोगशाला बन गए। भारत में निर्मित होने वाले अधिकांश बौद्धिक सांस्कृतिक आयामों के नीति-नियंता अनिवार्यत: यह वामपंथी ही हुए। कांग्रेस और वामपंथ के सतत और सक्रिय हस्तक्षेप से जेएनयू को वामपंथियों ने अपनी प्रोपेगंडा-निर्माणशाला और प्रयोगशाला के केंद्र के रूप में विकसित किया और यह काम कांग्रेस के राजनीतिक संरक्षण में हुआ। कांग्रेस संरक्षित वामपंथ ने जेएनयू को अपनी विचारधारा का एक ऐसा अभेद्य दुर्ग बनाया जो सोवियत संघ के पतन और वैश्विक तथा राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथ के अप्रासंगिक और हाशिये पर जाने के बावजूद भी अपनी चारदीवारी में न केवल दुर्जेय प्रतीत होता है बल्कि अभी भी आन्दोलन के चिंगारी से राष्ट्र को चुनौती देने का प्रयास करता है।

JNU Swami Vivekananda Statue Vandalized

भारत का वामपंथ और विशेषकर JNU का वामपंथ प्रगतिशीलता और क्रांति के मुखौटे में देशविरोधी गतिविधि और षड्यंत्रों को क्रियान्वित और संरक्षित करने का एक राजनीतिक हथियार प्रतीत होता है। 1962 के वामपंथी गद्दारी को अभी भी देश भूल नहीं पाया है। लेकिन, आज हमारे सामने JNU की वामपंथी प्रयोगशाला से निकले उमर खालिद और शरजील इमाम जैसे आतंक समर्थकों की ताज़ा जमात सामने आ चुकी है, जो देश को दंगे के आग में झोंककर राष्ट्र की सीमा को परिवर्तित करना चाहती है। इस देश की विडंबना है कि देश के एक प्रतिष्ठित और शोध की संभावनाओं से भरे विश्वविद्यालय में वामपंथी-कांग्रेसी षड्यंत्रों के कारण कैसे राष्ट्रविरोधी गतिविधि के केंद्र में उसे स्थापित कर दिया।

वामपंथियों ने JNU में फ़ीस बढ़ोतरी के खिलाफ शुरू हुई मुहिम को ‘इन्तिफादा’ के अवसर में बदला। जिस तरीके से 2 दिन तक एक महिला शिक्षक को बंधक बनाकर अपने बातों को मनवाने का प्रयास करना हो या वार्डन के घर में घुस कर हिंसा करना और उनके बेटी को प्रताड़ित कर उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर करना हो, यह सब कुछ वामपंथी राजनीतिक शैली का अपरिहार्य हिस्सा है। इतना ही नहीं, 3 महीने तक पढ़ाई रोकना, प्रशासनिक भवन पर कब्ज़ा करके कुलपति कार्यालय में तोड़फोड़ करके पूरे विश्वविद्यालय को बंधक बनाकर उसको ही “फासीवाद के खिलाफ प्रगतिशील लड़ाई” घोषित करना, यह सब वामपंथियों की करतूते हैं जो JNU में पिछले एक वर्ष में की गयी हैं। जब-जब छात्रों ने इसका विरोध किया है तब तब वामपंथी खूनी खेल को दोहराते हैं। इन्हीं वामपंथियों ने 5 जनवरी को तथाकथित “शांति मार्च” का आयोजन करके विश्वविद्यालय को हिंसा के रंग में रंग दिया और उसको “फासीवादी ताकत से JNU को बचाने का संघर्ष” का नाम दिया। माओ के “सांस्कृतिक क्रांति” के तरीके को अपना कर स्वामी विवेकानंद के प्रतिमा के साथ तोड़फोड़ करना और विवेकानन्द मार्ग को जिन्ना मार्ग घोषित करना हो यह सब इनके JNU का इन्तिफादा था, और इसी नारे को वामपंथियों ने JNU की दीवारों पर जगह- जगह लिख दिया था।

किसी भी विश्वविद्यालय में आन्दोलन होना या किसी प्रशासनिक फैसले के खिलाफ विरोध होना होना एक सामान्य घटना है, और JNU में बढ़ी हुई फ़ीस का सभी छात्र संगठनों ने मिल कर विरोध किया था। परन्तु जब इस विरोध में ‘इन्तिफादा’ के मौके की तलाश में लगे वामपंथी संगठनों को अवसर दिखा तो उन्होंने अपनी विचारधारा से सहमति न रखने वाले प्रध्यापकों से गुंडागर्दी, विरोध के नाम पर छात्रों को परीक्षा देने से रोकना, और नए सत्र में नामांकन न होने देना और बाहरी गुंडों को बुलाकर नकाबपोशी में पूरे सर्वर रूम को तोड़ना आदि काम किये। जब भी JNU में वामपंथियों का विरोध किसी ने किया है, तब-तब वामपंथ पूरे परिसर को हिंसाग्रस्त करने में उतर जाता है। स्वयं हिंसा करके और फिर शांति की दुहाई देना यह वामपंथ की राजनीति का पुराना इतिहास है।

(लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की दिल्ली इकाई के प्रदेश संगठन मंत्री हैं। इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)