प्रकृति और मन कभी आलस्य नहीं करते

प्रकृति आलस्य नहीं करती। प्रकृति की शक्तियां निरंतर सक्रिय रहती है। सूर्य आलस्य नहीं करते। पृथ्वी प्रतिपल नृत्यमगन है और चंद्र भी। सोम और चन्द्र पर्याय भी माने जाते हैं। चन्द्रमा विराट पुरूष का मन कहा गया है। मन कभी आलस्य नहीं करता। मन सतत् सक्रिय रहता है। ऋग्वेद अथर्ववेद में सोमलता का उल्लेख है।

नई दिल्ली। प्रकृति आलस्य नहीं करती। प्रकृति की शक्तियां निरंतर सक्रिय रहती है। सूर्य आलस्य नहीं करते। पृथ्वी प्रतिपल नृत्यमगन है और चंद्र भी। सोम और चन्द्र पर्याय भी माने जाते हैं। चन्द्रमा विराट पुरूष का मन कहा गया है। मन कभी आलस्य नहीं करता। मन सतत् सक्रिय रहता है। ऋग्वेद अथर्ववेद में सोमलता का उल्लेख है। ऋषियों को इसका रस प्रिय था और देवों को भी। वे दसों उगलियों से सोम पीसते थे। इस कार्य में भी आलस्य नहीं था। ऋषि कवि ऐतरेय ने ‘चरेवैति-चरेवैति-चलते रहो-चलते रहो’ का मंत्र गाया था। जो चलते हैं, वे जीवन का मधु पाते हैं। सभी ग्रह चल रहे हैं। मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि सतत् गतिशील हैं। दिन जा रहे हैं। रात्रियां विदा हो रही हैं। सब भाग रहे हैं।

मैं गांव से पहली बार महानगर आया। पिताजी के साथ शहर देखा। सब भाग रहे थे। मोटरें, मोटर साइकिल, यात्री और पैदल चलने वाले लोग। मैं गंवई गंवार। भागम भाग का कारण समझ में नहीं आया। मैंने पिताजी से पूछा “क्या यहां कोई घटना हो गई है?” पिताजी हंसे, बोले “यहां सब ऐसे ही चलते हैं।” मैं उत्तर से संतुष्ट नहीं था। सृष्टि की प्रथम मुहूर्त से प्रकृति में ही गति है। गति से ही संवत्सर का उदय हुआ है। समय भी गति का आभास है। कर्म भी गतिशीलता का भाग है। जीवन सतत् कर्म है। सब गतिशील हैं। आलस्य चित्तवृत्ति है, यह कर्म प्रवाह में बाधा है। जान पड़ता है कि प्रमाद और आलस्य की बाधा वैदिक और उत्तर वैदिक काल में भी थी। आलसी तब भी रहे होंगे।

तैत्तिरीय उपनिषद् के 11वें अनुवाक में प्रमाद से बचने का सुंदर परामर्श हैं। यहां आचार्य ने विद्यार्थी शिष्य से कुछ महत्वपूर्ण कत्र्तव्यों में प्रमाद से बचने का आग्रह किया है। पहला सूत्र महत्वपूर्ण है। कहते हैं ‘‘सत्यं वद, धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः- सत्य बोलो, धर्म में गति करो। अध्ययन में आलस्य नहीं।’’ सत्य भाषण का अर्थ स्पष्ट है। धर्म प्रकृति और मानव जीवन की आदर्श आचार संहिता है। इसका पालन अनिवार्य है। इसके बाद का सूत्र अंश ध्यान देने योग्य है- “स्वाध्याय या अध्ययन में प्रमाद नहीं।” प्रकृति रहस्य अनंत है। मनुष्य स्वयं ही विस्मयपूर्ण रहस्यपूर्ण जटिल संरचना है। प्रकृति का ज्ञान विज्ञान से होता है लेकिन मनुष्य का ज्ञान वैज्ञानिक अध्ययन से संभव नहीं। इसके लिए अपना अध्ययन ही सरल उपाय है। स्वाध्याय का अर्थ यही है। आलस्य या प्रमाद भी मनुष्य के अंतः क्षेत्र का हिस्सा हैं। आलस्य बोध जरूरी है। अपना उदाहरण देता हूँ। अध्ययन हमारे जीवन का केन्द्रीय विलास है। मैं अध्ययन में आलस्य नहीं करता। अध्ययन प्रिय हूँ। लेकिन अन्य कत्र्तव्यों में वैसा आकर्षण नहीं है।

वैसे मैं आलसी हूँ। आलस्य भी एक कर्म है। आलस्य का कर्म फल तुरंत मिलता है। अन्य कर्मों के फल की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। गीता का उपदेश भी है कि मा फलेषु कदाचन। फल की न सोचना अलग बात है लेकिन आलस्य में तत्काल मजा आता है। निद्रा और आलस्य पड़ोसी है। मुझे निद्रा आलस्य की बहिन जान पड़ती है। भारतीय चिंतन में निद्रा देवी है। देवी उपासना में निद्रा माता है। दुर्गा सप्तशती में ‘या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता’ कहा गया है। मैं निद्रा को माता मानता हूँ। इस रिश्ते में आलस्य हमारा मामा है। माता का भाई मामा कहा जाता है। निद्रा में मां की ऊर्जा मिलती है और मामा आलस्य में निष्क्रियता का सुख है। अब सुबह उठने की अपनी बात बताऊं। छुपाने का कोई लाभ भी नही। मैं प्रतिदिन और रात्रि शपथ लेता हूँं। सुबह उठने का संकल्प लेता हूँ। संकल्प लेते तोड़ते 50 बरस हो गये। संकल्प ने अपना काम भी किया। संकल्प आलसी नहीं होता। सो उसने प्रति प्रातः मुझे जगाया। लेकिन संकल्प की भी अपनी समस्या है। विकल्प उसका छोटा भाई है। मुझे बहुत आदर देता है। वह संकल्प को टिकने नहीं देता। विकल्प खोजना हमारी लत है। मामा आलस्य भी विकल्प प्रेमी है। वे स्वयं भी हरेक कर्म श्रम का विकल्प है।

प्रातः काल वास्तव में सुंदर मुहूर्त है। अस्तित्व जागरण के वृहत् साम छंद गाता है। पक्षी जागते हैं, गीत गाते हुए। ऊषा लोकगीत गाते आती है। रात्रि उनकी ज्येष्ठ बहिन है। वह विदा होती हैं। आनंद मगन। प्रसन्न मन ऋषियों ने इस अवसर को ब्रह्म मुहूर्त कहा है। संकल्प मुझे प्रातः धकियाता है-उठो जागो। ब्रह्ममूर्त आ गई। आलस्य कहता है, थोड़ा और। अभी जल्दी क्या है? संकल्प हमारी शपथ याद कराता है – आपने ही प्रातः उठने का निश्चय किया था, इसलिए उठो। आलस्य दोहराता है- थोड़ा और। एक झपकी और आलस्य मामा मुझे अपनी बहन निद्रा के अंक में ढकेल देते हैं। आलसी ‘मैं’ की जीत हो जाती है। संकल्पबद्ध ‘मैं’ हार जाता हूँ। वस्तुतः मैं ही हारता हूँ और मैं ही जीतता हूँ। कुछ मित्र प्रातः उठन के लाभ याद कराते हैं। मैं लज्जित हो जाता हूँ। दूसरे मित्र मेरा पक्ष लेते हैं। बताते हैं कि “यशस्वी लोगों की दिनचर्या सुव्ययवस्थित नहीं होती। आप लगातार सक्रिय जीवन जीते हैं। आलसी नहीं कर्मठ हैं।” मुझे अपनी प्रशंसा अच्छी लगती है। प्रशंसा सुनने में मैं कोई आलस्य नहीं करता। जल्दबाजी भी नहीं करता। जो मित्र यह रहस्य जानते हैं, वे हमारी बैठकी में हमारी प्रशंसा करते रहते हैं।

प्रातःकाल टहलना अच्छी बात है। मैं इस तथ्य से सुपरिचित हूँ। लेकिन यह अच्छी बात भी हमारे आलस्य के सामने नहीं टिकी। मैं प्रातः उठ नहीं सकता। प्रातः जागने उठने और टहलने की तुलना में आलस्य का मजा बड़ा है। एक अंतरंग मित्र ने अच्छा परामर्श दिया, “सुबह टहल नहीं सकते तो कोई बात नहीं। जब उठो, तब टहलो। बड़ी उम्र में टहलना जरूरी है।” मैंने 20 मिनट टहलने का लक्ष्य तय किया। आलस्य इसमें भी घुस आया। आलस्य से लड़ते हुये मैं 10 मिनट टहला। आलस्य ने अंतर्मन से सुझाव दिया। आज काफी हो गया। लक्ष्य का आधा तो हो ही गया। फिफ्टी परसेन्ट कम नहीं होता। मैं उसके प्रभाव में आ गया। उस दिन का टहलना निलम्बित हो गया। मैंने दोबारा संकल्प लिया। इस बार टहलते हुए अखबारों के सम्पादकीय ध्यान में आए। आलस्य ने कहा, ‘‘आज का टहलना पर्याप्त। 40 प्रतिशत हो गया। चलिए सम्पादकीय आलेख पढ़िए। मैंने उसका सुझाव फिर से माना। मुझे आलस्य के पक्षधर सभी बहाने पसंद हैं। बहाने की आंड़ में आलस्य का औचित्य भी सिद्ध हो जाता है। तब चित्त में कोई अपराध बोध नहीं रहता। आलस्य का कर्मफल तत्काल मिलता है। जैसे ही हम अलसाए, वैसे ही सुख की मस्ती। इसलिए मैं आलस्य करने में कभी आलस्य नहीं करता।

आलस्य का प्रभाव सुविदित हैं ‘‘यह सबको प्रभावित करता है। यह हमारे अंतःकरण में ही रहता है। वैदिक पूर्वज इस तथ्य से सुपरिचित थे। वे आलस्य से बचने का परामर्श देते थे। सतत् कर्मशीलता के उपदेश मूल्यवान हैं। वैदिक काल में भी आलसी रहे होंगे। कुछ लोग परिश्रम से बचकर सांसारिक उपलब्धियों के लिए देवताओं पर निर्भर थे। संभवतः उन्हीं को लक्ष्य करते हुये ऋग्वेद के ऋषि कवि ने मंत्र गाया है कि देवता भी आलसी लोगों पर कृपा नहीं करते। इन्द्र भी अकर्मण्य से प्रसन्न नहीं रहते। तैत्तिरीय उपनिषद में अध्ययन के साथ, अध्ययन के विषय को लोक में बताने में भी आलस्य न करने का आग्रह किया गया है। ‘‘स्वध्याय प्रवचनाभ्यां प्रमदितव्यम्।’’ (वही 11वां अनुवाक) अध्ययन महत्वपूर्ण है। अध्ययन से प्राप्त सत्य का प्रसार भी जरूरी है। इसमें प्रमाद आलस्य न करने का निर्देश अद्वितीय है। मैं स्वयं इसी सूत्र से प्रेरित हूँ। अन्य मामलों में आलसी हूँ। लेकिन संवैधानिक कत्र्तव्य पालन में आलस्य नहीं करता। हमारा स्वाध्याय मुझे आलस्य से दूर रखता है। जो पढ़ता हूँ, उसका भाव लेखन द्वारा प्रसारित करने में भी आलस्य नहीं करता।