newsroompost
  • youtube
  • facebook
  • twitter

पेशेवर रणनीतिकारों से बिहार में वैकल्पिक राजनीति स्थापित नहीं होगी

अब अपराधियों का स्थान सफ़ेदपोश लोगों ने ले लिया है जिसे हम “चुनावी रणनीतिकार” कहते है। इनकी सम्पूर्ण रणनीति का आधार व्यवसाय है। रणनीतिकारों की कंपनी का आधार विशुद्ध लाभ कामना है। इनका राष्ट्र, धर्म, देश की परंपरा-संस्कृति आदि से कुछ लेना-देना नहीं है। प्रजातंत्र के साथ ऐसी “वेश्यावृति” की कल्पना संविधान निर्माताओं ने नहीं की होंगी। भारत में चुनाव व्यवसाय के प्रणेता प्रशांत किशोर हैं।

– By संजय कुमार / एस के सिंह

भारत की वर्तमान चुनावी राजनीति में आये नकारात्मकता के विश्लेषण से प्रतीत होता है कि इसके लिये हमारे संविधान में अंगीकृत ब्रिटेन ‘संसदीय व्यवस्था’ भी उत्तरदायी है। ब्रिटेन की यह व्यवस्था  “फूट डालो और राज  करो” की नीति पर आधारित है। इस व्यवस्था पर आधारित चुनाव ने पहले गांव को खंड-खंड में विभाजित किया, फिर पड़ोसी विभाजित हुए और आज परिवार भी बंट गया है। इसी से आगे “तुष्टिकरण” वोट बैंक की नीति बनती गयी जिसका दुष्परिणाम देश की मनोदशा, सोच,शिक्षा, पाठ्यक्रम,समाज और सामाजिक जीवन आदि में देखा जा सकता है। कुछ-कुछ इसी व्यवस्था ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को वोट बैंक हेतु संविधान के प्रस्तावना को बदलने का साहस दिया।  वोट बैंक का दूसरा चरण चुनावी राजनीति में ‘अपराधियों’ का आना है। इसका ख़तरनाक और सूक्ष्म विश्लेषण भारत सरकार द्वारा गठित ‘वोहरा समिति’ के रिपोर्ट में है। ( इस रिपोर्ट में उन्होंने राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और अपराधियों के गठजोड़ का विशद विश्लेषण किया है।) राजनीति के अपराधीकरण के परिणामस्वरूप समाज के अच्छे लोगों ने राजनीति को अलविदा कह दिया और बाद की पीढ़ी को मानो चुनावी राजनीति से नफ़रत सी हो गई, और हमने स्वीकार कर लिया कि राजनीति ठीक लोगों के लिये नहीं है।

राजनीति और समय की मांग - AFEIAS

देश के प्रजातांत्रिक इतिहास में सबसे चुनौतीपूर्ण काल खंड नब्बे के दशक में आया जब हम जाति, वर्ग, क्षेत्र, भाषा में बंट गये। कहना न होगा कि अब चुनाव जीतना अन्यान्य कारणों से आसान- सा हो गया। जाति, वर्ग , क्षेत्र और भाषा आदि के आधार पर जातीय और पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले कई दल अस्तित्त्व में आये। इन लोगों ने हीं राजनीति में गुंडों के स्थान पर ‘ राष्ट्र विरोधी’ तत्त्वों को पनपने में योगदान दिया, चुनाव जीतने के लिये जातिवादी दलों ने राष्ट्र विरोधी तत्त्वों से गठजोड़ कर लिया। राष्ट्रहित और सनातन परंपरा को काफ़ी नुक़सान हुआ। बाद के दिनों में अर्थव्यवस्था में सुधार, उदारवाद तथा सूचना क्रांति ने समय के साथ उपयुक्त प्रवृति कमजोर पड़ रही थी कि कुछ विकसित देशों ने सोशल मीडिया और तकनीकी के प्रयोग का चुनावी राजनीति में  व्यावसायिक महत्त्व समझा। इसका लाभ भी बहुत मिला पर भारत जैसे विकासशील देश में इसका नुक़सान भी देखने को मिल रहा है। चूँकि इस विधा को अधिकांशतः पढ़े-लिखे अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग अब व्यावसायिक तरीक़े से इस्तेमाल करने लगे, मीडिया ने भी इनका खूब साथ देना आरंभ कर दिया है। इस प्रकार आज हम लोग एक ख़तरनाक चुनौती का सामना  कर रहे हैं।

राजनीति में अब अपराधियों का स्थान सफ़ेदपोश लोगों ने ले लिया है जिसे हम “चुनावी रणनीतिकार” कहते है। इनकी सम्पूर्ण रणनीति का आधार व्यवसाय है। रणनीतिकारों की कंपनी का आधार विशुद्ध लाभ कामना है। इनका राष्ट्र, धर्म, देश की परंपरा-संस्कृति आदि से कुछ लेना-देना नहीं है। प्रजातंत्र के साथ ऐसी “वेश्यावृति” की कल्पना संविधान निर्माताओं ने नहीं की होंगी। भारत में चुनाव व्यवसाय के प्रणेता प्रशांत किशोर हैं। प्रशांत किशोर ने अभी तक क़रीब -क़रीब सभी दलों को रणनीतिकार के नाते पेशेवर व व्यावसायिक मदद की है। इन्होंने चुनाव में अन्यान्य राजनीतिक दलों को सूचना तकनीक के माध्यम से वोटरों के जाति, वर्ग, क्षेत्र, भाषा और मज़हबी पहचान के आंकड़ों  की जादूगरी से चुनाव जीतने में भी मदद की है। देश के विभिन्न दलों ने प्रशांत के इस जादूगरी को हाथों-हाथ लेना आरंभ कर दिया। राजनीतिक दलों द्वारा  भाड़े पर लिए गए किराये के रणनीतिकारों ने पहले से विभाजित समाज में और अधिक फूट डाला या यों कहें कि इस विभाजन संस्थागत बना दिया। इस रणनीति का हीं परिणाम है की भारतीय राष्ट्रीयता और भी कमजोर हुई।

प्रशांत किशोर की ताज़ा खबरे हिन्दी में | ब्रेकिंग और लेटेस्ट न्यूज़ in Hindi - Zee News Hindi

आंकड़ों के माध्यम से “फूट डालो और चुनाव जीतो” की तकनीक ने आर्थिक रूप से कमजोर परंतु प्रतिभावान व्यक्ति को चुनावी राजनीति से कोसों दूर कर दिया है। उल्लेखनीय है कि प्रशांत किशोर कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं, अपितु विशुद्ध व्यापारी हैं, सिद्धांत विहीन हैं। आज जिस बिहार राज्य में वे तथाकथित “सुराज” के नाम पर पदयात्रा कर रहे हैं वहां जातीय और मज़हबी आंकड़ों के हिसाब से उन्होंने कुशासन और जंगलराज को स्थाई कर दिया है। 2015 के विधान सभा मे लालू-नीतीश को साथ लाने का श्रेय प्रशांत किशोर को जाता है।  क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि लोकतंत्र का सत्यानाश करके अब प्रशांत किशोर ‘जन सुराज’ पदयात्रा के माध्यम से सत्ता और व्यवस्था में परिवर्तन की बात कर रहे हैं। प्रेक्षकों का मानना है कि उनकी इस यात्रा पर करोड़ों रुपये खर्च हो रहा है। बिहार के क़रीब-क़रीब सभी समाचार पत्रों में उनके यात्रा का विज्ञापन है, कुछ चुनिंदा टेलिविज़न चैनल भी इसे प्रसारित कर रहे हैं। अतः इसपर हो रहे धन के खर्च सार्वजनिक होना चाहिये।

यह भी विचारणीय है कि विज्ञापन और होर्डिंग में “सही लोग और सही सोच” की बात करने वाले प्रशांत किशोर की पहचान अभी तक कुछ शहरी लोगों तक हीं सीमित है, शेष लोगों को पता नहीं है कि उन्होंने कैसे अपनी व्यवसायिक व पेशेवर रणनीति से आम लोगों को चुनाव से दूर कर दिया है। उनको यह भी पता नहीं है अब राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की छवि ,उनका  व्यक्तित्व, कार्यक्रम तथा चुनावी घोषणा पत्र अब गौण हो गया है और इन सभी का स्थान व्यावसायिक कम्पनी ने ले लिया है और उम्मीदवारों के लिए वहीं चुनाव लड़ रही है और इस क्रांतिकारी बदलाव के जनक पीके हैं। अतः हमें उनके दोहरा चरित्र को आम लोगों के सामने लाना होगा। बिहार के लोगों को यह जानने का अधिकार है कि आख़िर पीके किस दल या व्यक्ति की ओर से सक्रिय हैं। बिहार के मुखयमंत्री नीतिश कुमार ने एक राष्ट्रीय चैनल के साथ बात-चीत में बताया कि उन्होंने अमित शाह के कहने पर  प्रशांत किशोर को पार्टी में लिया। आज तक प्रशांत किशोर ने इसका खंडन नहीं किया है। पीके ने दक्षिण के धुर विरोधी दलों के लिये काम किया पर पश्चिम बंगाल में उनकी भूमिका राष्ट्र हित में कई सवाल पैदा करती है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल आज राजनैतिक हत्या तथा विभाजनकारी ताक़तों का केंद्र बना हुआ है।  चुनाव आयोग को भी इसका संज्ञान लेना होगा। क्या कम्पनी आधारित चुनाव प्रणाली देश के लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक नहीं है ? समय रहते अगर हम नहीं जगे तो प्रशांत किशोर की सोच सम्पूर्ण लोकतंत्र  के लिए खतरा बन सकती है। चुनावी रणनीति से उत्पन्न  राजनीतिक और सामजिक बुराई  वास्तव में एक राजनीतिक घोटाला है, जिसमें जनता के पैसे से राजनीतिज्ञों और चुनावी रणनीतिकार की कंपनी फल फूल रही है। वास्तव में बिहार मे एक वैकल्पिक रजनीतिक दल की संभावना भी है और आवश्यकता भी लेकिन पेशेवर रणनीतिकारों के माध्यम से यह बदलाव संभव नहीं। इसके लिए स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही एकजुट होना पड़ेगा।

(संजय कुमार ‘समर्थ बिहार’ नामक सामाजिक संस्था के संस्थापक हैं। एसके सिंह
 रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ)से वैज्ञानिक के तौर पर संबद्ध रहे और वर्तमान में ‘समर्थ बिहार’ के संयोजक हैं)