पिछले दिनों भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने न्याय-व्यवस्था को ‘जीर्ण-शीर्ण’ कहकर सनसनी पैदा कर दी है। उन्होंने यह भी कहा है कि जो व्यक्ति न्याय की आस में न्यायालय जाता है, वह अपने निर्णय पर प्रायः पश्चाताप करता है। न्याय-व्यवस्था के शीर्ष पर रहे व्यक्ति का यह बयान चिंताजनक और सोचनीय है। परन्तु यह भी विचारणीय है कि रंजन गोगोई जब स्वयं मुख्य न्यायाधीश थे और न्यायिक-प्रक्रिया में सुधार की निर्णायक पहल कर सकते थे, तब उन्हें न्याय-व्यवस्था की ‘जीर्ण-शीर्ण’ हालत क्यों नज़र नहीं आयी? उन्होंने सरकार द्वारा राज्यसभा में अपने मनोनयन को स्वीकार करके न्याय-व्यवस्था की स्वतंत्रता, न्यायिक निष्ठा, पारदर्शिता और विश्वसनीयता को प्रश्नांकित और संदिग्ध बनाया। हालांकि, उनका मनोनयन कोई अपवाद नहीं था। ऐसे ‘राजकीय उत्कोच’ की शुरुआत और विकास कांग्रेसी संस्कृति रही है। अवकाश प्राप्ति के बाद ‘न्यायमूर्तियों’ की इस प्रकार की नियुक्तियां पहले भी बहुतायत में होती रही हैं।
एमसी छागला, बहरुल इस्लाम, रंगनाथ मिश्र, कोका सुब्बाराव, फातिमा बीवी, एस एस कंग, रमा जोइस, गोपाल स्वरूप पाठक और पी. सदाशिवम आदि इस प्रकार की विवादास्पद और आपत्तिजनक नियुक्तियों के कुछ चुनिन्दा उदाहरण हैं। सेवानिवृत्ति के उपरांत न्यायमूर्तियों की ‘पुनर्वास की आस’ न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बुरी तरह से प्रभावित करती है। उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति एमसी सीतलवाड की अध्यक्षता वाले भारत के पहले विधि आयोग ने सन् 1958 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में सर्वसम्मति से यह सिफारिश की थी कि न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकार द्वारा प्रदत्त कोई भी पद स्वीकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रभावित होती है। दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस विधि आयोग के सदस्य रहे न्यायमूर्ति एमसी छागला ने ही इस नियम और नैतिकता को ताक पर रखकर सरकार का कृपापात्र बनना स्वीकार किया। सेवानिवृत्ति के बाद वे राजदूत, उच्च्चायुक्त और केन्द्रीय मंत्री तक बने। उनके बारे में कहा गया कि उन्होंने उपरोक्त रिपोर्ट पर हस्ताक्षर की स्याही सूखने से पहले ही सरकारी पद स्वीकार कर लिया। तब से लेकर आज तक सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी पद स्वीकारने से पहले न्यायाधीशों के लिए ‘कूलिंग ऑफ़ पीरियड’ की अनिवार्यता पर बहस चली आ रही है। यह चिंताजनक ही है कि न्यायाधीशों की बड़ी संख्या सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद विभिन्न आयोगों, ट्रीब्युनल्स, समितियों और कम्पनियों आदि में कोई न कोई पद स्वीकार करके न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सम्मान से समझौता करती है।
इसी प्रकार एक अन्य महत्वपूर्ण समस्या न्यायिक नियुक्तियों में होने वाली देरी है। गौरतलब है कि चार रिक्तियां होने के बावजूद उच्चतम न्यायालय में सितम्बर, 2019 के बाद से कोई नयी नियुक्ति नहीं हुई है। इसी प्रकार देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 419 से अधिक रिक्तियां हैं। किन्तु वहां भी न्यायाधीशों की नियुक्ति की दिशा में कोई उल्लेखनीय और उत्साहजनक पहल नहीं की गयी। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाला कॉलेजियम उनके अबतक के लगभग 14 माह के कार्यकाल में कोई नियुक्ति नहीं कर सका है। उनका कार्यकाल 23 अप्रैल, 2021 तक ही है। सम्भावना यह है कि वे अपने लगभग 17 महीने के कार्यकाल में कोई नियुक्ति न कर सकेंगे। यह न्यायिक नियुक्तियों की जटिल एवं अपारदर्शी प्रक्रिया वाली कॉलेजियम व्यवस्था का प्रतिफलन है। सरकार और न्यायपालिका की टकराहट भी एक कारण है। यह स्थिति तब और चिंताजनक है जबकि निचली अदालतों में लगभग 3.8 करोड़ और उच्च न्यायालयों में 57 लाख से अधिक और उच्चतम न्यायालय में एक लाख से अधिक मामले लंबित हैं। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालयों में ‘न्यायमूर्तियों’ की चयन-प्रक्रिया को लेकर भी लगातार सवाल उठते रहे हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की शिकायतें आम हो गयी हैं। इन न्यायालयों में न्यायाधीशों का चयन उच्चतम न्यायालय के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों का कॉलेजियम करता है। यह व्यवस्था अत्यंत आंतरिक, अपवर्जी, असमावेशी और गोपन है। इसपर पारदर्शिता और जवाबदेही के अभाव और पेशेवर योग्यता की उपेक्षा के आरोप गाहे-बगाहे लगते रहते हैं। इसलिए भारत सरकार ने न्याय-व्यवस्था में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित करने की पहल की थी। कॉलेजियम व्यवस्था के लाभार्थियों ने अपनी ‘सुप्रीम’ शक्ति का प्रयोग करते हुए इस प्रस्ताव की भ्रूणहत्या कर डाली।
जब अपराधी को उचित दंड नहीं मिलता तो समाज में जंगलराज कायम हो जाता है और अराजकता और अंधेरगर्दी बढ़ती चली जाती है। इसलिए कहा जाता है कि न्याय मिलने में देरी न्याय न मिलने के समान है। ऐसी स्थिति होने पर संवैधानिक संस्थाएं क्रमशः कमजोर पड़ने लगती हैं। कानून बनाना मात्र समस्या का समाधान नहीं है, कानून का उसकी भावना के अनुरूप समयबद्ध क्रियान्वयन भी उतना ही आवश्यक है। ऐसा न होने से न्याय-व्यवस्था जैसी संस्थाओं के प्रति समाज के विश्वास की नींव भी हिलने लगती है। भारत में न्याय की प्रतीक्षा कभी न खत्म होने वाली प्रतीक्षा है। अपराधी से ज्यादा शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण उत्पीड़ित का होता है। दीवानी मामलों को तो छोड़ ही दीजिये, अब तो फौजदारी मामलों के निपटारे में भी पीढ़ियां गुजर जाती हैं। भारत की विलंबित न्यायिक-प्रक्रिया ‘वेटिंग फॉर गोदो’ जैसी हो गयी है। बदलाव या सुधार के लिए कहीं कोई आत्म-मंथन करता नहीं दिखता है।
भारतीय न्याय-व्यवस्था भ्रष्टाचार की चपेट में भी है। अपराधियों, बड़े वकीलों और न्यायाधीशों के गठजोड़ के किस्से आम हो चले हैं। न्याय-व्यवस्था की लेटलतीफी, लालफीताशाह क्रमशः बढ़ते भ्रष्टाचार और आम आदमी से बढ़ती दूरी के चलते लोकतंत्र का मंदिर मानी जाने वाली संसद और विधान-सभाएं भी अपराधियों का अड्डा बन चुकी हैं। राजनीति अपराधियों की शरणस्थली मात्र नहीं; बल्कि चारागाह बन चुकी है। खादी और खाकीपोश अपराधियों की बढ़ती संख्या के अनुपात में ही भारतीय न्याय-व्यवस्था से आम भारतीय का भरोसा घटता जा रहा है। अब न्यायालय से न्याय प्राप्त करना उसकी पहली प्राथमिकता न होकर ‘निरुपाय का अंतिम शरण्य’ है। न्यायालयों को लेकर आम भारतीय की मनःस्थिति ‘हारे को हरिनाम’ जैसी है।
भारत के अधिकांश उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में जिस और जैसी अंग्रेजी भाषा में फैसले सुनाये जाते हैं, वह देश की 95 फीसद जनता के लिए अबूझ पहेली है। शर्मनाक है कि भारत की न्याय-व्यवस्था अभी तक औपनिवेशिक शिकंजे में जकड़ी हुयी है। अधिकांश निचली अदालतों की कार्रवाई और पुलिस विवेचना की भाषा उर्दू है। वह भी आम आदमी के पल्ले नहीं पड़ती। अच्छे-भले पढ़े लिखे लोगों तक को पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी (एफ आई आर) और मुकद्दमों के फैसलों का अर्थ/मंतव्य समझने के लिए शातिर वकीलों की शरण में जाना पड़ता है। अब समय आ गया है कि न्यायालयों की कार्रवाई और फैसले आम आदमी की भाषा में हों।
आज न्याय-व्यवस्था और न्यायिक-प्रक्रिया में प्राथमिकता के आधार पर सुधार और बदलाव की आवश्यकता है। वर्षों-वर्ष चलने वाले मामलों/मुकद्दमों का खर्च भी बहुत ज्यादा हो जाता है। इसलिए निचले न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक समस्त न्यायालयों को दो पालियों में चलाने का प्रावधान तत्काल किया जाना चाहिए। नए न्यायालय भी स्थापित किये जाने चाहिए। एक पाली में चलने वाले सरकारी कार्यालयों और विद्यालयों में दूसरी पाली में न्यायालय चलाये जाने चाहिए ताकि न्यूनतम अतिरिक्त खर्च करते हुए उपलब्ध संसाधनों में ढांचागत सुविधाएँ जुटाकर काम प्रारम्भ किया जा सके। न केवल न्यायाधीशों के बड़ी संख्या में रिक्त पदों को भरा जाना चाहिए; बल्कि देश की जनसंख्या और लंबित मामलों का संज्ञान लेते हुए भारी संख्या में नए न्यायाधीशों और न्यायिक कर्मियों की नियुक्ति भी की जानी चाहिए। इन सब नयी व्यवस्थाओं के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए सरकार को भी अतिरिक्त आर्थिक संसाधन मुहैय्या कराने चाहिए और न्यायालय फीस को भी कुछ बढ़ाकर संसाधन जुटाए जा सकता हैं। यूँ भी वादी और प्रतिवादी पीढ़ियों चलने वाले मुकद्दमे में लुटते ही रहते हैं। निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालय तक किसी भी मामले के निपटारे के लिए अधिकतम समयावधि और अधिकतम तारीखों की संख्या तय की जानी चाहिए। बार-बार तारीख देने वाले न्यायाधीशों और बार–बार तारीख मांगने वाले वकीलों को कदाचार का दोषी माना जाना चाहिए और उनके खिलाफ कार्रवाई का भी प्रावधान किया जाना चाहिए। तकनीक का प्रयोग बढ़ाने और पुलिस द्वारा की जाने वाली विवेचना में सुधार की भी आवश्यकता है। एक सर्व-सक्षम न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन करके इन सवालों और समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
हालांकि, अब यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि उच्चतम न्यायालय पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई के द्वारा उठाये गए सवालों का संज्ञान लेकर क्या कार्रवाई करेगा!
(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं। लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इसका संस्थान से कोई लेना-देना नहीं है।)