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भारतीय परंपरा को अंधविश्वासी कहने वाले लज्जित

भारतीय परंपरा को अंधविश्वासी कहने वाले लज्जित हैं। कथित प्रगतिशील श्रीराम व श्री कृष्ण को काव्य कल्पना बताते थे। वे हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहते थे। राजनैतिक दलतंत्र का बड़ा हिस्सा भी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक बताता था। देवों की भी निन्दा थी।

नई दिल्ली। भारतीय परंपरा को अंधविश्वासी कहने वाले लज्जित हैं। कथित प्रगतिशील श्रीराम व श्री कृष्ण को काव्य कल्पना बताते थे। वे हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहते थे। राजनैतिक दलतंत्र का बड़ा हिस्सा भी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक बताता था। देवों की भी निन्दा थी। देव आस्था से जुड़े उत्सवों का भी मजाक बनाया जा रहा था। लेकिन अचानक देश की संपूर्ण राजनीति में हिन्दू हो जाने की जल्दबाजी है। संप्रति देश में हिन्दुत्व का स्वाभाविक वातावरण है। सो किसी भी पार्टी के नेता द्वारा हिन्दुत्व की निंदा का साहस नहीं है। हिन्दुत्व भारत के लोगों की जीवनशैली। यहां देव आस्था की बात अलग है। यहां बहुदेव उपासना है। एक ईश्वर, परमतत्व की धारणा भी है।

आस्था अंध विश्वास नहीं होती। आस्था का विकास शून्य से नहीं होता। करके देखना या देखने के बाद विश्वास मानव स्वभाव है। अंधविश्वास बिना देखे सुने या समझ मान लेना अंधविश्वास है। भारत सत्य खोजी है। शोध और बोध की मनोभूमि से निर्मित भारत की देव आस्था निराली है। यहाँ कई तरह के देवता हैं। सबके रूप भिन्न-भिन्न हैं। कथित प्रगतिशील तत्व देवताओं का मजाक भी बनाते हैं। लेकिन भारतीय देव श्रद्धा में प्रकृति की शक्तियाँ ही देवता है। कुछ देवता प्रत्यक्ष हैं और कुछ अप्रत्यक्ष। अथर्ववेद में ज्ञानी, अच्छे कारीगर व हमारे आपके सबके मन के शुद्ध भाव भी देवता कहे गये हैं। अथर्ववेद के अनुसार प्रारंभ में कुल 10 देवता थे। इसके अनुसार प्राण, अपान, आंख, सूंघने की शक्ति, ज्ञान, उदान, वाणी, मन और क्षय-अक्षय होने वाली शक्तियाँ देवता है। अथर्ववेद के देवता मनुष्य के शरीर की प्रभावकारी शक्तियाँ हैं। इस प्रकार मनुष्य का शरीर भी देवताओं का निवास है।

देवताओं की संख्या पर भी यहां मजेदार विवाद भी रहा है। भारत के लोक-जीवन में 33 करोड़ देवता कहे जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में 33 देवताओं की सूची है। इस सूची में 08 वसु हैं, 11 रुद्र हैं, 12 आदित्य हैं, इंद्र और प्रजापति हैं। कुल मिलाकर 33 हैं। फिर 11 रुद्रों का अलग विवरण भी है। 10 प्राण इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ आत्म-मन मिलाकर 11 रुद्र हैं। यह सब मनुष्य की काया के भीतर हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय- 03) में रुद्र की स्तुति है। बताते हैं- ‘‘जो सबको प्रभाव में रखने वाले उत्पत्ति और वृद्धि का कारण हैं, विश्व के अधिपति हैं, ज्ञानी हैं, वह रुद्र हमको शुभ बुद्धि से जोड़ें।’’ यहाँ रुद्र का मानवीयकरण है। जो रुद्र है, वही शिव हैं। भारत में सभी देवताओं के रूप अलग-अलग हैं। लेकिन वास्तविक अनुभूति में सभी देवता मिलाकर एक हैं। इसका सबसे सुंदर उदाहरण ऋग्वेद (10.90) में एक विराट पुरुष का वर्णन हैं। पुरूष सहस्त्र शीर्षा है। हजारों सिर वाला। हजारों आँखों वाला है। हजारों पैरों वाला है। समस्त जगत को आच्छादित करता है।’’ यहां पुरूष नाम का देवता सबको आच्छादित करता है। आगे कहते है कि जो अब तक हो चुका है और होने वाला है वह सब पुरूष ही है। ’’यही बात श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी कही गयी है। बताते हैं-‘‘उसके हाथ-पैर सब जगह है। उसकी आंख सिर और मुख, कान सर्वत्र है। वह सबको घेरकर स्थित है।’’ यहाँ विराट पुरुष का रूपक है। पुरूष एक देवता है। इससे भिन्न कुछ न लेकिन कुल मिलाकर देवताओं की अराधना अपने-अपने ढंग से की जाती है।

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कुछ लोग देवों की उपासना करते हैं, कुछ लोग नहीं करते। कुछ उन्हें मनुष्य की तरह मिठाई और पान भी खिलाते हैं। ऐसी पूजा के लाभ-हानि पर घण्टों बहस हो सकती है। लेकिन देवों की अनुभूति सहज ही अनुभव की जा सकती है। यहां रूप विधान हैं, देवता के रूप का वर्णन किया गया है। वहाँ शब्द रूपायन से देवता को समझने का प्रयास किया जा सकता है। लेकिन उपनिषदों में उस एक को अंततः रूप-रंग और शरीर रहित बताया गया है। अधिकांश प्राचीन साहित्य में सत्य और ईश्वर पर्यायवाची है। सत्य भी देवता है। ऐसी श्रद्धा के साथ चिंतन करने से जीवन मार्ग सुगम हो जाता है।’’ ऋग्वेद और कई उपनिषदों में एक सुंदर मंत्र आया है कि अक्षर-अविनाशी परम आकाश में मंत्र अक्षर रहते हैं। यहीं परम आकाश में ही समस्त देवता भी रहते हैं। जो यह बात नहीं जानते, उनके लिए वेद पढ़ना व्यर्थ है और जो यह बात जानते हैं, वे सम्यक् रूप में उसी में स्थिर हो जाते हैं। परम व्योम देव निवास है। वैदिक पूर्वजों ने अलग-अलग रूप वाले देवों की उपासना की। सबका अलग-अलग व्यक्तित्व भी गढ़ा। इंद्र को ही लीजिए। वे प्रत्यक्ष देवता नहीं हैं। वैदिक साहित्य में वे पराक्रमी, ज्ञानी और श्रेष्ठ देवता हैं। मनुष्य की तरह मूंछ भी रखते हैं। इसी प्रकार रुद्र और शिव हैं। पुराण काल में उनका नया रूप प्रचारित हुआ। अग्नि भी प्रकृति की प्रत्यक्ष शक्ति है। उनका भी मानवीयकरण भी वेदों में ही है। वे भी वैदिक काल से प्रतिष्ठित देवता हैं।

भारतीय देवतंत्र में अनेक के साथ एकत्व है। पहले अलग-अलग उपासना फिर सभी देवताओं को एक ही परम सत्य के भीतर प्रतिष्ठित करना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं- ‘‘इंद्र वरुण आदि देवताओं को भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं, लेकिन सत्य एक है। विद्वान उसे अनेक नाम से बुलाते हैं। भारतीय देव-तंत्र का सतत् विकास हुआ है। दुनिया के किसी भी देश में देवों के रूप-स्वरूप का विकास भारत जैसा हजारों वर्ष लंबा नहीं है। दुनिया की सभी प्राचीन संस्कृतियों में देवताओं की उपस्थिति है और उनकी उपासना भी होती है लेकिन भारत की बात दूसरी है। यहां श्रीराम श्रीकृष्ण भी उपास्य देवता है कुछ यूरोपीय विद्वानों ने भारत के वैदिक देवताओं को अविकसित बताया है। कहा है यूनानी देवताओं की आकृतियाँ सुव्यवस्थ्ति हैं और भारतीय देवों की अविकसित। वैदिक पूर्वजों ने अस्तित्व को अखण्ड और अविभाज्य पाया था। भारत सहित दुनिया के सभी देवताओं के रूप ससीम हैं। लेकिन भारत ससीम रूप और नाम के बावजूद उनकी उपस्थिति असीम है। वे रूप-नाम के कारण सीमाबद्ध हैं और अपनी व्याप्ति के कारण अनंत। अग्नि भी सर्वव्यापी है। अथर्ववेद में अग्नि के सर्वव्यापी रूप का उल्लेख है कि अग्नि दिव्यलोक में सूर्य है। अंतरिक्ष में विद्युत है। वनस्पति में पोषक-तत्व है। कठोपनिषद में यम ने नचिकेता को बताया- ‘‘एक ही अग्नि समस्त ब्रह्माण्ड के रूप में रूप-रूप प्रतिरूप है। ऋग्वेद में यही बात इन्द्र के लिए कही गयी है कि एक ही इन्द्र ब्रह्माण्ड के सभी रूपों में रूप-रूप प्रतिरूप हैं। वरुण देवता भी सब जगह व्याप्त है।

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वैदिक देव-उपासना का इतिहास ऋग्वेद के रचना काल से भी पुराना है और किसी न किसी रूप में आधुनिक काल में भी जारी है। ड्राइवर गाड़ी चलाने के पहले स्टीयरिंग को नमस्कार करते हैं, देवता की तरह। गाय को नमस्कार करते हैं। मंदिर को नमस्कार करते हैं। धरती को नमस्कार करते हैं और नदी पर्वतों को भी। देव-उपासना आत्मविश्वास बढ़ाती है। उपासना में तमाम कर्मकाण्ड भी है। कर्मकाण्ड से होने वाले लाभ हानि पर बहसें होती रहती हैं। उपासना और कर्मकाण्ड एक नहीं है। उपासना वस्तुतः उप-आसन है। इसका अर्थ निकट बैठना है। आस्था में ईश्वर या देव के निकट होना है। उपनिषद् का भाव भी यही है-सत्य के निकट बैठना या अनुभव करना है। ऐसे अनुभव चित्त को आनंद से भरते है।