नई दिल्ली। ‘यशस्वी भारत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर, भिन्न-भिन्न स्थानों पर दिए हुए भाषणों का संग्रह है। इस संग्रह में 2018 के सितंबर मास में दिल्ली के विज्ञान भवन में दिए गए दो भाषणों तथा तृतीय दिन के प्रश्नोत्तरी का भी अंतर्भाव है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझना वैसे आसान नहीं है। फिर भी लोगों को संघ समझना इस पुस्तक के पठन से आसान होगा। साथ ही उन्हें यह भी स्पष्ट होगा कि विभिन्न विषयों पर संघ का वैचारिक अधिष्ठान क्या है।
इस पुस्तक में 17 भाषणों का संकलन है। इसका प्रकाशन नई दिल्ली स्थित प्रभात प्रकाशन ने किया है। ‘यशस्वी भारत’ पुस्तक में सरसंघचालक ने जो मूल रूप में कहा है, उसमें से कुछ प्रमुख बिंदु यहां संक्षिप्त में दिए जा रहे हैं-
1- यह ‘यशस्वी भारत’ पुस्तक के प्रथम प्रकरण का शीर्षक है, ‘हिंदू, विविधता में एकता के उपासक’। हम स्वस्थ समाज की बात करते हैं, तो उसका आशय ‘संगठित समाज’ होता है (पृष्ठ 27)।
2- हम को दुर्बल नहीं रहना है, हम को एक होकर सबकी चिंता करनी है।
3- भारत की परंपरागत संस्कृति के आधार पर पूर्व में कभी इस भारत का जो चित्र दुनिया में था, वह अत्यंत परम वैभव-संपन्न, शक्ति-संपन्न राष्ट्र के रूप में था और परम वैभव, शक्ति-संपन्न होने के बाद भी दुनिया के किसी देश को न रौंदनेवाला था। उलटा सारी दुनिया को एक सुख-शांतिपूर्वक जीने की सीख अपने जीवन से देनेवाला भारत है (पृष्ठ 45)।
4- हमारा काम सबको जोड़ने का है।
5- संघ में आकर ही संघ को समझा जा सकता है।
6- संगठन ही शक्ति है। विविधतापूर्ण समाज को संगठित करने का काम संघ करता है।
7- राष्ट्रीयता ही संवाद का आधार हो। वैचारिक मतभेद होने के बाद भी एक देश के हम सब लोग हैं और हम सबको मिलकर इस देश को बड़ा बनाना है। इसलिए हम संवाद करेंगे।
8- संघ का काम व्यक्ति-निर्माण का है। व्यक्ति निर्मित होने के बाद वे समाज में वातावरण बनाते हैं। समाज में आचरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं। यह स्वावलंबी पद्धति से, सामूहिकता से चलनेवाला काम है।…संघ केवल एक ही काम करेगा—व्यक्ति-निर्माण, लेकिन स्वयंसेवक समाज के हित में जो-जो करना पड़ेगा, वह करेगा
9- भारत से निकले सभी संप्रदायों का जो सामूहिक मूल्यबोध है, उसका नाम ‘हिंदुत्व’ है।
10- हमारा कोई शत्रु नहीं है, न दुनिया में है, न देश में। हमारी शत्रुता करनेवाले लोग होंगे, उनसे अपने को बचाते हुए भी हमारी आकांक्षा उनको समाप्त करने की नहीं, उनको साथ लेने की है, जोड़ने की है। यह वास्तव में हिंदुत्व है।
11- परंपरा से, राष्ट्रीयता से, मातृभूमि से, पूर्वजों से हम सब लोग हिंदू हैं। यह हमारा कहना है और यह हम कहते रहेंगे (पृष्ठ 257)।
12- हमारा कहना है कि हमारी जितनी शक्ति है, हम करेंगे, आपकी जितनी शक्ति है, आप करो, लेकिन इस देश को हमको खड़ा करना है। क्योंकि संपूर्ण दुनिया को आज तीसरा रास्ता चाहिए। दुनिया जानती है और हम भी जानें कि तीसरा रास्ता देने की अंतर्निहित शक्ति केवल और केवल भारत की है (पृष्ठ 276)।
13- देशहित की मूलभूत अनिवार्य आवश्यकता है कि भारत के ‘स्व’ की पहचान के सुस्पष्ट अधिष्ठान पर खड़ा हुआ सामर्थ्य-संपन्न व गुणवत्तावाला संगठित समाज इस देश में बने। यह हमारी पहचान हिंदू पहचान है, जो हमें सबका आदर, सबका स्वीकार, सबका मेल-मिलाप व सबका भला करना सिखाती है। इसलिए संघ हिंदू समाज को संगठित व अजेय सामर्थ्य-संपन्न बनाना चाहता है और इस कार्य को संपूर्ण संपन्न करके रहेगा (पृष्ठ 279)।
इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखते हुए एम.जी.वैद्य ने कहा है- ‘वर्तमान पीढ़ी इस ‘यशस्वी भारत’ को पढ़े। उसमें व्यक्त किए गए विचारों पर विचार करे। संघ समझने का अर्थ संघ की अनुभूति है। इसलिए हम यथासंभव शाखा के कार्य से जुड़ें और सामाजिक एकता तथा सामाजिक समरसता का अनुभव लेकर अपना जीवन समृद्ध एवं सार्थक बनाएं।’ पुस्तक का विमोचन 19 दिसंबर को दिल्ली में किया जा रहा है।