नई दिल्ली। आप में से कई लोग ऐसे होंगे जिन्होंने रिसर्च करके थीसिस लिखकर पीएचडी हांसिल की होगी। ये काम बोलने में जितना आसान है इसे करने में उतनी ही मेहनत लगती है। मेहनत, लेकिन कितने साल की तीन साल, चार साल या पांच साल इससे ज्यादा तो नहीं। लेकिन आपको जानकर बेहद हैरानी होगी कि बीएचयू के एक बुज़ुर्ग छात्र ने अपनी रिसर्च पूरी करने में 60 साल लग गए जी हां, कौन हैं ये बुज़ुर्ग छात्र और इन्होंने ऐसी कौन सी रिसर्च की जिसमें उन्होंने लगभग अपनी पूरी ज़िंदगी खपा दी। असल में, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रो. उमेश सिंह के अंडर में 84 साल के छात्र डॉ. अमलधारी सिंह को डी.लिट की उपाधि मिली है। उन्होंने दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ ऋग्वेद की दो शाखाओं ‘शांखायन’ और ‘आश्वलायन’ के मंत्रों को एक साथ लाकर किताब प्रकाशित करवाई है। इसमें 21 हजार 388 मंत्र हैं। सनातन हिंदू धर्म के मूल ग्रंथ ऋग्वेद की ये दोनों गुमनाम शाखाएं सैकड़ों सालों से खोजी जा रही थीं।
डॉ. सिंह ने हिंदी अखबार दैनिक भास्कर से बातचीत में बताया कि उन्होंने इस दिशा में 1962 से काम करना शुरू किया था। इससे पहले 180 साल से ऋग्वेद का संकलन कराने का श्रेय मैक्समूलर को ही दिया जाता था। लाखों साल पहले रचे गए ऋग्वेद की अभी तक दो ही शाखाएं ही ग्रंथ में थीं। इसमें से एक 10 हजार 472 मंत्रों वाला ग्रंथ ‘शाकल’ जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने 1849 में प्रकाशित कराया था। इसी से आज पूरे देश में ऋग्वेद पढ़ाया जाता है। दूसरा सेकेंडरी सोर्सेज़ के हवाले से लिखा गया ‘वाष्कल’ है। अब आप सोच रहे होंगे कि शाखा का क्या मतलब होता है। दरअसल, ऋग्वेद की शाखाओं से मतलब इसकी कॉपियों या एडिशन से होता है।डॉ. सिंह ने कहा कि ऋग्वेद भारत के 21 अलग-अलग गुरुकुलों में पहली बार लिखा गया था यानि ऋग्वेद एक ही है, लेकिन उसे 21 अलग-अलग तरीकों से लिखा गया यही वजह है कि इसकी 21 शाखाएं हैं। अलग-अलग जगहों पर लिखे जाने की वजह से इसके मंत्रों की संख्या में भी बदलाव आ गए। मैक्समूलर ने ऋग्वेद की ‘शाकल’ शाखा को कलेक्ट किया था, जिसमें 10 हजार 772 मंत्र थे। दूसरे सेकेंड्री सोर्स वाले ग्रंथ वाष्कल में 10 हजार 548 मंत्र हैं जबकि डॉ. अमलधारी के दोनों ग्रंथों में उससे 289 और 155 मंत्र ज्यादा हैं। अब इन ग्रंथों के अनुवाद का काम जल्द ही वैदिक ब्राह्मणों की देख-रेख में शुरू कर दिया जाएगा।
डॉ. अमलधारी सिंह ने जिस ग्रंथ की रचना की है, उसमें से एक शंखायन 16वीं सदी में काशी में लिखा गया था फिर यहां से वो अहमद नगर पहुंचा। राजस्थान के महाराजा विनय सिंह को जब इस बात की खबर मिली, तो उन्होंने इस हजारों मंत्र की पांडुलिपियों को राजस्थान के अलवर पैलेस की लाइब्रेरी में सुरक्षित रखवा दिया था। तब से किसी ने न तो इस धरोहर को पढ़ा और न ही इसके बारे में कोई जानकारी कभी बाहर आई। 1960 के आस-पास लाहौर के एक रिसर्च स्कॉलर भगवत दत्त ने अपनी किताब में इस बात की चर्चा की थी कि उन्होंने अलवर के महाराजा की लाइब्रेरी में कुछ सामग्री देखी, लेकिन वह उसे पढ़ नहीं सके। ये जानकारी मिलने के बाद डॉ. अमलधारी सिंह 1968 में इस लाइब्रेरी में आए, तो उन्हें 12 हजार पन्नों की 63 पांडुलिपियां मिलीं। जांच-पड़ताल करने पर पता चला कि ये ऋग्वेद की मूल प्रतियां हैं। उसके बाद से ही डॉ. अमलधारी ने एक के बाद एक कई लेख प्रकाशित कराए और साल 2012-13 में उज्जैन के महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान ने शांखायन संहिता को चार हिस्सों में प्रकाशित किया।
ऋग्वेद की पांच शाखाएं सबसे प्रसिद्ध हैं जिनमें डॉ. अमलधारी द्वारा प्रकाशित दोनों शाखाएं भी शामिल हैं..वेद श्रुति परंपरा की चीज रही, यानी यह गुरु से शिष्यों को बोलकर पढ़ाई गईं। लिपि कला तब नहीं थी। दूसरी शताब्दी के बाद ये लिखी गई। पढ़ने में सुविधाजनक बनाने के लिए महर्षि वेद व्यास ने इसे चार भाग में बांट दिया था। फिर उन्होंने अपने चार शिष्यों पैल, सुमंतु, जैमिनी और वैशंपायन को इसे पढ़ाया था। इसमें सबसे प्राचीन ऋग्वेद है। महर्षि पतंजलि ने ऋग्वेद की 21 शाखाएं बताईं हैं।