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गुलजार से मिलना और एक किताब का बनना

जैसे छांव कूदती है न, ठीक ऐसे ही खयाल कूदते हैं जेहन में, छम से। गुलजार साहब उन खयालों को बटोरकर कागज पर रख देते हैं और नज्म बन जाती है। गुलजार साहब कहते हैं- “मैं अपनी पहचान चाहता था, अपना मुकाम चाहता था, और लिखने से बेहतर मुझे कोई काम नहीं लगता था।”

शाख पर जब धूप आई

हाथ छूने के लिए

छांव छम से नीचे कूदी

हंसके बोली, आइए- गुलजार

जैसे छांव कूदती है न, ठीक ऐसे ही खयाल कूदते हैं जेहन में, छम से। गुलजार साहब उन खयालों को बटोरकर कागज पर रख देते हैं और नज्म बन जाती है। गुलजार साहब कहते हैं- “मैं अपनी पहचान चाहता था, अपना मुकाम चाहता था, और लिखने से बेहतर मुझे कोई काम नहीं लगता था।”  गुलजार साहब की नई किताब ‘बोसकीयाना’ के बारे में बता रहे हैं वसीम अकरम।  गुलजार लिखते तो हैं, लेकिन लिखने के साथ-साथ वो बहुत कुछ करते हैं और बहुत बेहतर करते हैं। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में जितनी मकबूलियत गुलजार को है, उतनी शायद ही किसी दिगर रचनाकार की हो। जाहिर है, गुलजार होने के अपने मायने हैं।

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गुलजार साहब की नई किताब आई है- ‘बोसकीयाना’ जिसमें वरिष्ठ पत्रकार यशवंत व्यास की उनसे हुई कुछ मुलाकातों के तसलसुल में जो बातें हुईं, उन्हें दर्ज किया गया है। इस किताब को राजकमल प्रकाशन के सहयोगी प्रतिष्ठान राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा है। ‘बोसकीयाना’ गुलजार साहब के घर का नाम है। उनकी बेटी का नाम ‘बोसकी’ है और इसी नाम से उनके घर को एक बेहतरीन नाम मिला था- बोसकीयाना। और अब देखिए कि उसी ‘बोसकीयाना’ से इस किताब को भी नाम मिला। जाहिर है, गुलजार साहब के उस घर में मिलना, बैठना, चाय पीना और जमकर बतियाना ही ‘बोसकीयाना’ है जिसे यशवंत व्यास ने गुलजार साहब के प्रशंसकों और पाठकों के लिए एक किताबनुमा गुलदस्ता बनाकर पेश किया है। बोसकीयाना की तासीर का आलम यह है कि उसमें बांग्ला की मिठास है, तो पंजाबी की गर्मजोशी भी है। और सबसे बढ़कर तो हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी की वह सादगी है जो किसी की जुबान पर चढ़ जाए तो वह गाने लगे-

वो यार है जो खुशबू की तरह

है जिसकी जुबां उर्दू की तरह

मेरी शाम-रात, मेरी कायनात

वो यार मेरा सैयां सैयां

चल छैंया-छैंया-छैंया-छैंया… चल छैंया…

इस किताब में हुईं यशवंत व्यास और गुलजार साहब के बीच ढेर सारी बातों में गुलजार की जिंदगी से जुड़ी ऐसी-ऐसी तस्वीरें हैं जिनसे हम सब अब तक महरूम थे। यूं समझ लीजिए कि एक मशहूर शायर, गीतकार और फिल्मकार की जिंदगी इस किताब में गुलजार है।

बॉलीवुड यानी भारत की हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में गुलजार एक ऐसी शख्सियत का नाम है जिनकी फनकारी का दायरा बहुत बड़ा और अलहदा किस्म का विस्तार लिए हुए है। वह दायरा इतना बड़ा, जैसे कि आंखों को कोई वीजा नहीं लगता और वह विस्तार इतना, जैसे कि सपनों की कोई सरहद नहीं होती। गुलजार ऐसे फिल्मकार हैं जिनके नग्मों, गजलों, कहानियों और फिल्मों में एहसास के ऐसे जाविए मिलते हैं, जिनके सिरे आम इंसान की पकड़ में बमुश्किल ही आते हैं। लेकिन जो शख्स उन सिरों को पकड़ ले तो वह गुलजार का मुरीद हो जाए, जैसे वरिष्ठ पत्रकार और लेखक यशवंत व्यास मुरीद हुए तो पहुंच गए उनके आशियाने ‘बोसकीयाना’ में उनसे मिलने। और फिर, कई मुलाकातों के दौरान हुई गुलजार से यशवंत व्यास की बातों के सिलसिले ने एक किताब की शक्ल अख्तियार कर ली। क्या ही खूबसूरत है कि उस किताब का नाम गुलजार साहब ने ‘बो‍स्कीयाना’ ही रख दिया। गुलजार की फिल्मों के अलहदा किस्म के टाइटिल की तरह इस किताब का टाइटिल भी जेहन और जुबान पर उतर जाने वाला है।

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किसी शख्सि‍यत को जानने को लेकर हमारे मन में कई सवाल होते हैं कि आखिर उस शख्स की जिंदगी कैसी होगी। बस उन सभी सवालों के जवाब को इकट्ठा करके इसमें रख दिया गया है। यानी यह किताब एक तरह से जिंदगीनाम है गुलजार की जिंदगी के बारे में विस्तार से बताती है। यह किताब गुलजार से जुड़े उन तमाम लम्हों की एक लड़ी है जिसमें कहीं नग्मों की मोतियां हैं तो कहीं गीतों के मनके हैं, कहीं उनकी खूबसूरत फिल्मों के रत्न हैं तो कहीं उनकी कहानियों और पटकथाओं के मूँगे हैं। गुलजार की जिंदगी का ऐसा सफरनामा है यह किताब जिसमें उनकी पसंद-नापसंद से लेकर दुनिया, समाज, धर्म, राजनीति, सिनेमा, कलाकार, साहित्य, कला, संगीत, कलाकार और ज्ञान-विज्ञान पर साफ नजरिया दिखाई देता है। किसी सरहद में न बंटने वाले शायर और फिल्मकार के नजरिए में इन बातों का बड़ा ही महत्व है, इसलिए जरूरी है कि पाठकों के बीच इसका संदेश बहुत ही सकारात्मक जाए।

रत्ती रत्ती सच्ची मैंने जान गवाई है, नच नच कोयलों पे रात बिताई है

अँखियों की नींद मैंने फूंकों से उड़ा दी, गिन गिन तारे मैंने उंगली जलाई है

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तारों से उंगली जलाने का हुनर अगर कहीं है तो वह केवल गुलजार के पास ही है। यह तो जाहिर बात है कि गुलजार के बोल उनके एहसास की तर्जुमानी करते हैं, लेकिन उनकी खामोशियां भी रूमान पैदा कर देंगी, यशवंत व्यास ने इसकी परतें भी खोल दी हैं। करीब ढाई-तीन दशक से गुलजार की सोहबत पाने वाले यशवंत जी को ‘गुलजार-तत्व’ का अन्वेषी माना जाता है। यही वजह है कि इन दोनों के बीच सवाल और जवाब से बने धागे में जगह-जगह रूमानी झरनों की ऐसी गिरहें हैं जो खुलती हैं तो नहला देती हैं। फिर क्या मजाल जो कोई शख्स गुलजार से बात करे और उसमें भीगकर बाहर न आए! बकौल इस किताब- एक आत्मीय बैठक, एक प्रेमिल संगत, एक भरा-पूरा अनुभव है- बोसकीयाना। भला ऐसे अनुभव को हासि‍ल करने का मौका चूकना बेहद ही घाटा उठाने वाली बात है।

मेरा मानना है कि गुलजार साहब के लिखे गीतों, नज्मों, गजलों को पढ़ना उनको महसूस करने जैसा है। उनकी फिल्मों को देखना जिंदगी को एक अलहदा नजरिए से देखना है। उनके लिखे किरदारों के बारे में क्या ही कहें, वो तो जेहन पर कब्जा जमाकर बैठ जाते हैं। गुलजार से मुलाकातें, उनकी कुछ मख्सूस यादें, कुछ किस्से-कहानियां और उनकी जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव भरे मरहले, इन सबको समेटे हुए एक घर है बोसकीयाना। जाहिर है, इसको पढ़ना एक ऐसे घर में दाखिल होना है जहां अदब-ओ-आदाब की इंतेहाई खूबसूरती के साथ जिंदगी का फलसफा भी मौजूद है। इस किताब को पढ़ना एक ऐसे दरख्त के नीचे बैठना है जो नि सिर्फ जिस्म की हरारतों को आराम पहुंचाए बल्कि थके जेहन को भी सुकून से भर दे। अदब और फन का हासिल है ‘बोसकीयाना’, कभी वक्त मिले तो इसके पन्ने से होकर गुजर फरमाइए और गुलजार से रूबरू होने का खूबसूरत मौका पाइए। गुलजार से मिलने के बाद उनसे बातचीत का सि‍लसि‍ला कैसे किताब बनता है, इसकी मिसाल इस ‘बोसकीयाना’ से बेहतर कहीं और नहीं मिल सकती।

मैं अब बोसकीयाना में दाखिल हो चुका हूं। आप सब भी आइए, चाय की चुस्की के साथ गुलजार साहब से मिलकर उनसे ढेर सारी बातें करते हैं।

किताब – बोसकीयाना

गुलजार से यशवंत व्यास की बात-मुलाकात

प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन

कीमत – 1200 रुपए (हार्डकवर)

समीक्षक – वसीम अकरम