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दिल्ली चुनाव: कांग्रेस का लक्ष्य जीतना नहीं बल्कि अपने खोए जनाधार को वापस पाना है

पहले नहीं लग रहा था कि कांग्रेस दिल्ली में चुनाव लड़ भी रही है। लेकिन अब कांग्रेस खुलकर मैदान में है। उसका लक्ष्य दिल्ली में चुनाव जीतना नहीं बल्कि रसातल में जा चुके अपने जनाधार को वापस पाने का है।

दिल्ली में चुनावी बिगुल बज चुका है। लोकसभा चुनावों में जहां भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने गठबंधन किया था वहीं अब दोनों अलग—अलग चुनाव लड़ रहे हैं। दिल्ली में राहुल गांधी ने कांग्रेस के चुनावी अभियान की शुरुआत सीलमपुर विधानसभा सीट पर रैली करके की। बता दें कि सीलमपुर विधानसभा सीट दिल्ली की मुस्लिम बहुल सीट है, जो कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करती थी। जब से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी, तबसे दिल्ली में कांग्रेस के जो भी गढ़ थे वहां उसने सेंध लगा दी। कांग्रेस का सारा वोट बैंक छिटककर आप के पाले में चला गया और उसकी सरकार बन गई। नतीजतन दिल्ली में दस सालों से आआपा की सरकार है।

आम आदमी पार्टी के लिए जहां पिछले दस साल की सरकार के बाद इस बार सरकार बचाए रखने की चुनौती है, तो वहीं कांग्रेस का लक्ष्य दिल्ली में सरकार बनाना नहीं बल्कि दिल्ली में खोए अपने जनाधार को वापस पाना है। दरअसल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों का वोट बैंक एक ही है। मुस्लिम वोट और दिल्ली की झुग्गी—झोंपड़ी और निचले तबके से आने वोट ही दोनों का जनाधार हैं। इन्हीं वोटों के चलते कांग्रेस ने लगातार तीन बार 1998 से लेकर 2013 तक दिल्ली में अपनी सरकार बनाई थी और शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी थीं। तीन बार वह लगातार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। इसके बाद क्या हुआ यह सबके सामने है।

2013 में आम आदमी पार्टी ने पहली बार चुनाव लड़ा और दिल्ली में न भाजपा, न कांग्रेस और न ही आआपा को पूर्ण बहुमत मिला। कांग्रेस ने बाहर से आआपा को समर्थन दिया और कुछ दिन सरकार चलाने के बाद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद कुछ समय राष्ट्रपति शासन रहा। 2015 में फिर से दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए और आम आदमी पार्टी ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई, कांग्रेस का सूपड़ा दिल्ली से साफ हो गया। पिछले दो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस दिल्ली में कहीं से अपना खाता भी नहीं खोल पाई है। भाजपा को सीटों का नुकसान हुआ लेकिन उसके वोट बैंक में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। वहीं जो कांग्रेस कभी दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुआ करती थी वह रसातल में चली गई।

इस बार का चुनाव दिल्ली में जरा अलग है। राहुल गांधी खुलकर मैदान में सामने आ गए हैं। उन्होंने अपनी रैली में तमाम वह मुद्दे उठाए जो उन्होंने लोकसभा चुनावों में उठाए थे। उन्होंने केजरीवाल और भाजपा दोनों पर एक जैसे आरोप लगाए और कांग्रेस को जिताने की अपील की। जैसे वह भाजपा को आरक्षण विरोधी बताते हैं उन्होंने केजरीवाल को भी आरक्षण विरोधी कहा। राहुल ने फिर से दिल्ली में जातिगत जनगणना कराए जाने का मुद्दा उठाया। अब चुनाव का परिणाम तो अभी भविष्य के गर्त में है लेकिन एक बात तय है कि कांग्रेस अपने दिल्ली में खोए हुए जनाधार को वापस पाने के लिए कमर कसकर मैदान में है। यदि ऐसा हुआ तो सबसे ज्यादा मुश्किल आम आदमी पार्टी के लिए ही खड़ी होगी, क्योंकि आम आदमी पार्टी का अपना कोई बड़ा कैडर दिल्ली में हो ऐसा नहीं है। जो कांग्रेस का कैडर और वोट बैंक था वही दिल्ली में आम आदमी पार्टी का कैडर और जनाधार है।

पिछले दस सालों से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है। जाहिर है कहीं न कहीं एंटी इनकंबेंसी भी है। इस बात को आम आदमी पार्टी भी समझ रही है। राहुल के केजरीवाल पर आरक्षण विरोधी होने का बयान दिए जाने के बाद आम आदमी पार्टी के नेताओं ने भी राहुल पर सवाल उठाते हुए कहा है कि अरविंद केजरीवाल को किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। इस चुनाव में जहां भाजपा का लक्ष्य पिछले 27 साल से सूखा झेल रही भाजपा की दिल्ली में वापसी करवाना है तो केजरीवाल का लक्ष्य किसी भी तरह अपनी सत्ता बचाए रखना है वहीं कांग्रेस का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ अपना खोया जनाधार प्राप्त करना है।

दिल्ली में चुनावी सरगर्मियां शुरू होने के बाद शुरुआती दौर में ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस चुनाव ही नहीं लड़ रही है। लेकिन अब कांग्रेस पूरी तरह कमर कसके मैदान में है। राहुल गांधी आज जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं वह वही भाषा है जिसको बोल—बोलकर कभी केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता हासिल की थी। एक बात तय है कि यदि कांग्रेस दिल्ली चुनावों में अच्छा करने में कामयाब हो जाती है तो निश्चित तौर पर इसका नुकसान आम आदमी पार्टी को ही होगा।

 

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।

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