प्यू रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार इस्लाम विश्व में दूसरा सबसे तेजी से बढ़ता समूह है। 2010 से 2020 तक मुस्लिम आबादी में 21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। यह सार्वभौमिक सत्य है जब किसी एक प्रजाति की आबादी ज्यादा बढ़ती है तो दूसरी नष्ट हो जाती है, क्योंकि संसाधन सीमित हैं। ऐसे में इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता, यदि इसी तरह से दुनियाभर में मुसलमानों की आबादी बढ़ती रही तो जनसांख्यिकी संतुलन पूरी तरह गड़बड़ा जाएगा।
विश्व की कुल आबादी में मुसलमानों की आबादी 26 फीसदी तक पहुंच गई हैं। यानी हर चार में से एक व्यक्ति मुसलमान है। जरा सोचिए यदि इतनी ही तेजी से मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी होती रही है आने वाले समय में विश्व की क्या स्थिति होगी ? गैर मुस्लिम देशों में से शायद ही ऐसा कोई दुनिया में कोई ऐसा देश हो जो मुस्लिम शरणार्थियों, अवैध मुस्लिम घुसपैठियों की समस्या से न जूझ रहा हो। यूरोप के तमाम देशों में वहां के मूल निवासी आजिज आ चुके हैं। ब्रिटेन के कई इलाकों में मुस्लिमों की संख्या इतनी ज्यादा हो चुकी है कि उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल हो रहा है।
तेजी से बढ़ती इस्लामी जनसंख्या विस्फोट बम की तरह धमाका नहीं करता, लेकिन लेकिन अपने विस्तार से मूलभूत सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ढांचे को भीतर से जर्जर जरूर कर देता है। जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड, स्वीडन, डेनमार्क से लेकर कनाडा और अमेरिका तक, तमाम विकसित देश अब इस्लामी शरणार्थियों, अप्रवासन और बढ़ती मुस्लिम आबादी से उपजी चुनौतियों के आगे झुकते नजर आ रहे हैं। वहां के स्कूल, न्यायालय, नगरपालिकाएं और यहां तक कि संविधान तक, अब इस्लामी दबाव और कट्टरपंथी मांगों के समक्ष अपनी मूल स्वरूप को बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं।
भारत भी इससे अछूता नहीं है। सीमावर्ती क्षेत्रों, बांग्लादेश की सीमा से लगे पश्चिम बंगाल, असम और बिहार में जनसांख्यिकी संतुलन तेजी से बिगड़ा है। अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों के माध्यम से न केवल जमीनों पर कब्जा किया गया है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दबाव भी बनाया जा रहा है। असम के अनेक हिस्सों से हिंदू पलायन कर गए हैं। उत्तर प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखंड जैसे राज्यों में भी मुस्लिम आबादी का अनुपात बेहद तेजी से बढ़ा है जो खतरनाक है।
बढ़ते मुस्लिम घुसपैठियों, तेजी से बढ़ती मुस्लिम आबादी ने इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना को बुरी तरह बदल दिया है। आंकड़ों से परे, यह एक ऐसा हमला है जिसके माध्यम से बिना हथियारों के भूमि, संसाधन, प्रशासन पर अधिकार करने का प्रयास किया जा रहा है।
प्यू रिसर्च सेंटर की हालिया रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2020 तक दुनिया में मुसलमानों की संख्या 200 करोड़ तक पहुंच चुकी है, जो आबादी 2010 में 170 करोड़ थी। एक दशक में मुस्लिम आबादी में 21 प्रतिशत की रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। इसके इतर वैश्विक जनसंख्या में जिसमें औसत बढ़ोतरी मात्र 10 प्रतिशत रही है। विश्व की कुल जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत हो गई है। यानी हर चार में से एक व्यक्ति अब मुसलमान है। वहीं गैर-मुस्लिम आबादी में मात्र 9.7 प्रतिशत की ही बढ़ोतरी हुई है। इस तरह के आंकड़े खतरनाक हैं। यही स्थिति आगे भी रही तो दुनिया के तमाम देश इस बढ़ती हुई आबादी के द्वारा बनाई गई नीतियों, उनके कानूनों को मानने की के लिए विवश होंगे। यूरोप के उदाहरण इसका साक्षात प्रमाण हैं। वहां मजहबी स्वतंत्रता के नाम पर जिन इस्लामी समूहों को खुला स्थान दिया गया, वे अब अपने नियमों को राष्ट्रीय नीतियों पर थोपने की जिद पर उतर आए हैं।
जब भी मुस्लिम आबादी एक निश्चित सीमा पार कर जाती है, तो वह स्वयं को ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा से बाहर समझने लगती है और तब वह अपने मजहबी कानूनों, शरीयत, अलग पहचान और विशेषाधिकार की मांग करने लगती है। कट्टरपंथ की जड़े फैलने लगती हैं। सामाजिक समरसता छिन्न-भिन्न हो जाती है। बढ़ती मुस्लिम आबादी सामाजिक ताने-बाने को असंतुलित करने की क्षमता रखती है।भारत के संदर्भ में यह और भी ज्यादा संवेदनशील है। जहां एक ओर राष्ट्रहित में जनसंख्या नियंत्रण की बातें होती हैं। वहीं दूसरी ओर मौलाना और मजहबी कट्टरपंथी इसे मजहब के खिलाफ साजिश’ कहकर खारिज कर देते हैं। यह समय चेतने का है, कहीं ऐसा न हो कि हमें देर हो जाए और कट्टरपंथी सबकुछ लील जाएं।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।