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न्यायपालिका और न्यायमूर्ति भी संविधान के दायरे में, स्वतंत्रता जरूरी पर जवाबदेही और पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर आग बुझाने के दौरान भारी मात्रा में नकदी का मिलना केवल एक घटना नहीं, बल्कि न्यायपालिका की आंतरिक पारदर्शिता और जांच-पड़ताल की विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्नचिन्ह है।

लोकतंत्र की मजबूती इस बात में निहित है कि उसकी प्रत्येक संस्था संविधान द्वारा निर्धारित मर्यादाओं में कार्य करे। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका—इन तीनों के मध्य संतुलन और पारस्परिक उत्तरदायित्व लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल स्तंभ हैं। किंतु जब कोई एक संस्था स्वयं को न केवल स्वतंत्र बल्कि सर्वोपरि मानने लगे, तो लोकतंत्र की संपूर्ण इमारत डगमगाने लगती है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में न्यायपालिका द्वारा निरंतर हो रहे हस्तक्षेप पर जो टिप्पणी की, वह केवल एक व्यक्ति की प्रतिक्रिया नहीं, अपितु जनभावना का प्रतिबिंब है—जिसे अब अनदेखा नहीं किया जा सकता।

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर आग बुझाने के दौरान भारी मात्रा में नकदी का मिलना केवल एक घटना नहीं, बल्कि न्यायपालिका की आंतरिक पारदर्शिता और जांच-पड़ताल की विश्वसनीयता पर गहरा प्रश्नचिन्ह है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उनका तत्काल तबादला कर देना इस संवेदनशील मामले की लीपापोती प्रतीत होती है। क्या यह स्थानांतरण उत्तरदायित्व का विकल्प बन सकता है? क्या यह पारदर्शिता और न्यायिक शुचिता की गारंटी है? ऐसे गंभीर प्रश्न आज सामने खड़े हैं।

अनुच्छेद 124 और 217 के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कुछ प्रावधान किए गए हैं। संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करते हैं। ऐसा इसलिए कि यह सब देश आजाद होने के बाद तब बनाई गई संविधान सभा में तय हुआ था। उस समय जब विषय को लेकर संविधान सभा में चर्चा हुई थी। तब संविधान सभा में एक सदस्य ने सुझाव दिया था कि संविधान में जहां नियुक्ति के लिए ‘मुख्य न्यायाधीश से परामर्श’ किए जाने की बात लिखी है। उसे ‘मुख्य न्यायाधीश की सहमति से’ पढ़ा जाना चाहिए न की परामर्श। तब डॉ. अंबेडकर ने तत्काल इस सुझाव को खारिज करते हुए कहा था कि यह ठीक नहीं। उन्होंने कहा था, ” भारत के मुख्य न्यायाधीश भी पूर्वाग्रहों, मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं से पूर्ण आम इंसान की तरह ही हैं। ऐसे में सहमति देने की सर्वोच्च शक्ति केवल भारत के राष्ट्रपति को ही प्राप्त होगी”। तब संविधान निर्माताओं ने नियुक्ति की शक्ति केवल कार्यपालिका को प्रदान की जिसमें परामर्श करने की बात भी जोड़ी गई।

1970 तक ‘परामर्श’ प्रभावी बना रहा। जब संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर ‘सहमति’ शब्द को अस्वीकार किया था, तो आज उसे ‘बाध्यकारी’ कैसे बना दिया गया? यह बदलाव न्यायपालिका की ओर से आई एकतरफा व्याख्याओं का परिणाम है। परामर्श को धीरे-धीरे ‘सहमति’ में बदल डाला और कॉलेजियम प्रणाली को जन्म दिया। इस प्रणाली के अंतर्गत न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और तबादले पर पूर्ण अधिकार स्वयं न्यायपालिका के पास आ गया। इसमें कार्यपालिका की कोई भागीदारी नहीं रही। यह व्यवस्था पारदर्शिता से कोसों दूर है। इस कारण ही राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) बना गया था। संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से इसे पारित किया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने रद कर दिया।

यह लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध था। लोकतंत्र में सर्वोच्चता संविधान की होती है, न कि किसी संस्था की। अगर न्यायपालिका संविधान की व्याख्या करने का अधिकार रखती है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह संविधान से ऊपर हो गई है। आज जब न्यायपालिका पर पारिवारिक सिफारिशों, जातीय समीकरणों और आत्मपरीक्षा के अभाव जैसे गंभीर आरोप लग रहे हैं, तब केवल आंतरिक जांच से स्थिति नहीं सुधरने वाली। न्यायमूर्ति वर्मा के मामले में भी यदि एफआईआर दर्ज नहीं होती, जांच केंद्रीय एजेंसी के माध्यम से नहीं होती, तो क्या ऐसा होना संभव नहीं है कि यह जांच बस लीपापोती बनकर रह जाए। यह उसी प्रकार है जैसे कोई आरोपी स्वयं ही जज बनकर अपना फैसला सुनाए।

समस्या की जड़ में न्यायिक व्यवस्था की अपारदर्शिता है। आवश्यक है कि न्यायपालिका के लिए भी वैसी ही जवाबदेही की प्रणाली बने जैसी कार्यपालिका और विधायिका के लिए है। न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति और आय की सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए। उनके परिवारजनों की संपत्ति का भी वार्षिक ब्यौरा देना अनिवार्य हो। एक वैधानिक आचार संहिता बने, जिसका उल्लंघन न हो। सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद कोई भी न्यायाधीश किसी संवैधानिक पद पर नियुक्त न हो—यह नैतिकता और निष्पक्षता के लिए अनिवार्य है।

यह बात निःसंदेह सत्य है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतंत्र की रीढ़ है। परंतु स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि वह स्वयं को सर्वशक्तिमान समझे। स्वतंत्रता, उत्तरदायित्व के साथ आती है। यह उत्तरदायित्व तभी संभव है जब न्यायपालिका के भीतर भी जनप्रतिनिधित्व, जांच प्रणाली और पारदर्शिता की वैसी ही सख्ती हो जैसी अन्य संस्थाओं पर लागू होती है। उपराष्ट्रपति धनखड़ की टिप्पणी को ऐसे ही सुनकर कानों से नहीं निकाला जा सकता। उन्होंने जो कहा वह विचारणीय हैं। यदि न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही तय नहीं होगी तो उसका जो सार्वजनिक विश्वास है वह क्षीण होता चला जाएगा। न्याय का मंदिर तभी पवित्र माना जाएगा जब उसमें बैठा हर व्यक्ति न्याय के साथ साथ नैतिकता, पारदर्शिता और संवैधानिक मर्यादा का भी पालन करे। न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी बनी रहे और उस सवाल न उठें इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।

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