वर्ण व जाति व्यवस्था समाज विभाजक थी और है। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था से भारत का बड़ा नुकसान हुआ। कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के जन्म और विकास को दैवी विधान मानते हैं और अनेक विद्वान इसे सामाजिक विकास का परिणाम मानते हैं। डॉ.आंबेडकर कहते हैं कि चार वर्णों की व्यवस्था के सम्बंध में दो भिन्न मत थे। दूसरा मत था कि इस व्यवस्था का विकास मनु के वंशजों में हुआ। इस तरह यह प्राकृतिक है। दैवी नहीं है। कुछ समाज विज्ञानी इसे रंग भेद का परिणाम मानते थे। कई यूरोपीय विद्वान ने वर्ण का अर्थ रंग करते थे। वे आर्यों को श्वेत रंग वाला और शूद्रों को श्याम वर्ण वाला मानते थे। वास्तविकता इससे दूर है। डाॅ.आंबेडकर ने तमाम उदाहरण देकर बताया है कि आर्य गौर वर्ण के थे और श्याम वर्ण के भी थे। उन्होंने ऋग्वेद के हवाले से लिखा, “अश्विनी देवों ने श्याव व रूक्षती का विवाह कराया। श्याव श्याम वर्ण का था और रूक्षती गोरी। अश्वनी देव ने गौर वर्ण की वंदना की रक्षा की थी।” डॉ.आंबेडकर का निष्कर्ष है कि “आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी।” आर्यों में काई भेद नहीं था।” आर्य जाति के उपास्य श्रीराम श्याम रंग के थे और श्रीकृष्ण भी। ऋग्वेद के एक ऋषि दीर्घतमस भी गोरे रंग के नहीं श्याम रंग के थे।
ऋग्वेद में संसार प्राकृतिक विकास का परिणाम है। वर्ण व्यवस्था सामाजिक विकास के क्रम में विकसित हुई और जाति भी। सभी आर्य एक समान थे। सभी वर्णो में आत्मीय सम्बंध थे। मनुस्मृति (10.64) में कहा गया है कि शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है और ब्राह्मण शूद्रत्व को। भिन्न-भिन्न वर्ण में वैवाहिक सम्बंध थे।” धर्म सूत्रों में कहा गया है कि शूद्रों को वेद नहीं पढ़ना चाहिए लेकिन इससे भिन्न विचार भी थे। छान्दोग्य उपनिषद् में राजा जानश्रुति शूद्र थे। उन्हें रैक्व ऋषि ने वैदिक ज्ञान दिया था। ऋषि कवष एलूस शूद्र थे। ऋषि थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में उनके सूक्त हैं। भारद्वाज श्रोत्र शूद्र को भी यज्ञ कर्म का अधिकार देता है। धर्म सूत्रों में शूद्र को सोमरस पीने का अधिकार नहीं दिया गया। इन्द्र ने अश्विनि को सोम पीने का अधिकार नहीं दिया। सुकन्या के वृद्ध पति च्यवन को अविनी देवों ने यौवन दिया था। च्यवन ऋषि ने इन्द्र को बाध्य किया कि अश्विनी देवों को सोमरस दें। यह वही च्यवन है जिनके नाम पर आयुर्वेद का च्यवनप्रास चलता है। शूद्रों को समान अधिकार देने की अनेक कथाएं हैं। लेकिन बाद की वर्ण व्यवस्था के समाज में उत्पादन और श्रम तप वाले शूद्रों की स्थिति कमजोर होती रही।
शूद्र आर्य थे। हम सबके पूर्वज थे। डाॅ.आंबेडकर ने लिखा है कि पहले शूद्र शब्द वर्ण सूचक नहीं हैं। यह एक गण या कबीले का नाम था। भारत पर सिकंदर के आक्रमण के समय सोदरि नाम का गण लड़ा था। पतंजलि ने महाभाष्य में शूद्रों का उल्लेख अमीरों के साथ किया है। महाभारत के सभा पर्व में शूद्रों के गण संघ का उल्लेख है। विष्णु पुराण, मार्कण्डेय पुराण, ब्रह्म पुराण में भी शूद्रों के गण संघ का उल्लेख है।” शूद्र गुणवाची है। अब वर्ण व्यवस्था कालवाह्य हो गई लेकिन उसके अवशेष अभी भी हैं। यज्ञ आदि कर्मकाण्ड के समय उन्हें सम्मान जनक स्थान नहीं मिलता। यह दशा त्रासद है। वे पूजा, यज्ञ उपासना में केन्द्रीय भूमिका नहीं पाते। जातियां कालवाह्य हो रही हैं लेकिन पिछले सप्ताह शिवरात्रि के दिन एक प्रेरक घटना घटी। यूपी विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे के खेत में खोदाई के समय एक प्राचीन शिव मूर्ति मिली। संयोग से यह शिवरात्रि का दिन था। दुबे ने शिव उपासना की। यज्ञ कराया और अनुसूचित जाति के एक वरिष्ठ को पुरोहित बनाया। उपस्थित जनसमुदाय ने उनसे प्रसाद लिया। उन्हें प्रणाम किया। मुझे आशा है कि लोग इससे प्रेरित होंगे। दुबे के इस अनुसूचित जाति के नेतृत्व वाले कर्मकांंड में कोई निजी हित नहीं था।
ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द आया है। ब्राह्मणों के साथ अन्य लोग भी यज्ञ में सम्मिलित होते थे। यज्ञ आर्यों का प्रमुख अनुष्ठान था। सभी ब्राह्मण यज्ञ विज्ञान के जानकार नहीं थे। ऋग्वेद में एक मंत्र (8.58.1) में प्रश्न है कि “इस यज्ञ में नियुक्त हुआ है उसका यज्ञ सम्बंधी ज्ञान कैसा था?” ऋग्वेद में यज्ञ कर्म में योग्य ब्राह्मण नियुक्त किए जाते थे। यही यज्ञ कर्म में नियुक्त ब्राह्मण की योग्यता जरूरी है। यज्ञ के प्रोटोकाल में ब्राह्मण होता के नीचे बैठता था। ऋग्वेद के समाज में कवि ऋषि सबसे ज्यादा सम्मानित हैं। ऋषि कवि हैं। ब्राह्मण मंत्र रचना नहीं करते थे। वे मंत्रों का प्रयोग करते थे। मंत्र पढ़ते थे। ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द का अर्थ मंत्र या स्तुति भी है। एक ऋषि कहते हैं कि देव इन्द्र तेरे लिए मैं नए ब्राह्मण रचता हूं। ब्राह्मण का अर्थ कविता भी है। वर्ण धीरे-धीरे जाति बने। लेकिन ब्राह्मण वर्ण ही रहे। इस वर्ग में जातियां नहीं हैं। इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य वर्ग में जाति नहीं है। शूद्र वर्ग में काम और व्यवसाय आदि के कारण सैकड़ों जातियों का विकास हुआ। फिर किसी दुर्भाग्यपूर्ण काल में शूद्र वर्ग की जातियां नीचे कही जाने लगीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्र को निम्न कहने लगे। इससे राष्ट्रीय क्षति हुई। अब भी हो रही है।
सरकार बनाने और अपनी अपनी पार्टियों के लिए अभियान चलाने का राजनैतिक काम आसान है लेकिन सामाजिक परिवर्तन का कार्य कठिन है। अनुसूचित जातियों के बीच हमने 15 वर्ष काम किया है। यह काम सामाजिक परिवर्तन का है। मेरे विरूद्ध ऊंची जातियों के कुछ लोगों ने तमाम अभियान चलाए। मेरी निंदा हुई। भारतीय समाज जड़ नहीं है। इसे प्रयत्नपूर्वक गतिशील बनाया जा सकता है। अधिकांश पूर्वजों ने इसे गतिशील बनाया है। मैंने जाति विरोधी अभियान चलाकर सीमित क्षेत्र में सफलता भी पाई है। समाजवादी डाॅ. राममनोहर लोहिया ने जाति तोड़ो अभियान चलाया। उनके बाद के समाजवादियों ने जाति आधारित गोलबंदी की राह पकड़ी। जातियों की संख्या के आधार पर राजनीति चली। भारतीय कम्युनिष्टों से अपेक्षा थी कि वे वर्ग संघर्ष के अपने सिद्धांत के लिए अमीर और गरीब वर्गों के गठन के लिए काम करेंगे। लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति की निंदा की। अल्पसंख्यक मुस्लिम वर्ग की आस्था स्वीकार की। वामपंथ के सिद्धांत में मजहबी अलगाववादी अस्मिता का कोई स्थान नहीं है लेकिन उन्होंने इसका पोषण किया। परिणाम सामने हैं। कम्युनिस्ट असफल होते रहे। अब वे इतिहास की सामग्री हैं। जाति वर्ण की अस्मिता का खात्मा राजनीति के द्वारा संभव नहीं है। राजनीति जाति वर्ण से लाभ उठाती है। सामाजिक आन्दोलन ही उपाय हैं।
भारत के सभी निवासी आर्य हैं। ऋग्वेद आर्यो की ही रचना है और समूचा वैदिक साहित्य भी। आर्य नस्ल नहीं थे। शूद्र भी आर्य थे। आर्य समाज के अविभाज्य अंग थे। शूद्र कोई अलग नस्ल नहीं थे। डाॅ.आंबेडकर ने ‘हू वेयर शूद्राज’ पुस्तक लिखी थी। यह 1946 में प्रकाशित हुई थी। प्रश्न है कि क्या शूद्र अनार्य थे? डाॅ0 आम्बेडकर ने लिखा है “शूद्र आर्य थे। क्षत्रिय थे। क्षत्रिय में शूद्र महत्वपूर्ण वर्ग के थे। प्राचीन आर्य समुदाय के कुछ सबसे प्रसिद्ध शक्तिशाली राजा शूद्र थे।” शूद्र या अनुसूचित जाति के भाई बंधु हमारे अंग हैं। वे हमारे पूर्वज अग्रज थे और हैं लेकिन उन्हें सामाजिक दृष्टि में अब भी पर्याप्त सम्मान नहीं मिलता। शूद्र शब्द भीतर हृदय में कांटे की तरह चुभता है। दुनिया अंतरिक्ष नाप रही है। भारत भी चन्द्र और मंगल गृह तक पहुंच गया है। हम सब विश्व का अंग हैं। भारत परिवार के भी अंग हैं। हम सब सभी वर्गो को अपनाएं। इसी अपनेपन में भारत की ऋद्धि सिद्धि समृद्धि की गारंटी है।