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श्री कृष्ण जन्माष्टमी : जीवन एवं ज्ञान

आप सबको जन्मदिवस की शुभकामनाएं ! कहते हैं, कृष्ण हम सबमें बसे हैं।

आइये आज कृष्ण के मानव रूप में व्यतीत जीवन को आधुनिक जीवनशैली की तुलना में देखें। आज हम जानते हैं कि गर्भावस्था में माता के मानसिक स्वास्थ्य का शिशु के जीवन पर गहन प्रभाव होता है। मथुरा की गर्मी में, कारावास की कोठरी में, जहां उनके 7 अग्रजों का वध हो चुका हो, ऐसी माता के गर्भ से पैदा होना शायद विश्व का कठिनतम जन्म है। जन्म होते ही बारिश में भीगते हुए अपने धात्रेय के घर पहुँचे श्रीकृष्ण। जन्म के छठें दिवस ही उनकी विष से हत्या की कोशिश की गयी। बाल्यावस्था में मिट्टी भी खाते थे, थोड़े बड़े होकर दिनभर गायों को चराकर घर के कार्यों में सहयोग करते थे। त्वचा के रंग के आधार पर इन्हें ताने मिलते थे। किशोरावस्था से ही अपने अधिकारों और न्याय के लिए युद्ध करना पड़ा। युद्ध से भागने को विवश हुए (रणछोड़ा), और जब समाज का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध हो रहा था तब इन्हे मात्र एक सारथी के रूप में ओछा काम करना पड़ रहा था। जीवन के संध्याकाल में इन्हें स्वयं अपने पूरे वंश का विनाश करना पड़ा और स्वयं का पैरों के घाव से देहांत हुआ। इन सब के बावजूद श्रीकृष्ण हमेशा मुस्कराते हुए दिखे। उनका वही मुस्कराता मनमोहन रूप ही तो हमें अनायास उनकी ओर आकर्षित करता है।

मानव रूप में कृष्ण सारे कर्मों में, सारी भावनाओं में निर्लिप्त रहे, तद्यपि उनके पास एक ऐसा ज्ञान था जो उन्हें यह निरंतर मुस्कान देता था। गीता के अध्याय 14 में भगवान इस ज्ञान की महिमा बताते हैं और कहते हैं “इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः”, इस ज्ञान का अभ्यास करनेवाला मेरे स्वरूप का हो जाता है। इस परा ज्ञान को समझने से पहले “ज्ञान क्या है”, इस विषय पर प्रकाश डालते हैं। किसी भी ज्ञान के 2 आवश्यक गुण होते हैं:-

1) ज्ञान सत्य स्वरूप होता है। जैसे कि अगर मैं अपने बालक को 2+3=5 सिखाता हूं तो यह ज्ञान है, किन्तु 2+3=6 सिखाऊं तो यह ज्ञान नहीं है। ज्ञान का सत्य होना अनिवार्य है।

2) ज्ञान प्राप्ति के पश्चात यह हमारी प्रकृति का हिस्सा हो जाता है। 2 और 3 जोड़ने पर 5 होता है, यह ज्ञान आपसे कोई वापस नहीं ले सकता। हमारे शास्त्र 2 प्रकार के ज्ञान के बारे में बताते हैं : परा और अपरा। बाल्यावस्था से हम बहुत कुछ सीखते हैं, जिन्हें अपरा ज्ञान कहते हैं। यह हमारे IQ को बढ़ाते हैं। हम किसी भी विषय में पढ़ाई करते रहें, स्नातक, स्नातकोत्तर , डॉक्टरेट, डबल-डॉक्टरेट करें तो हमारा पांडित्य बढ़ता रहेगा, किन्तु ऐसे ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। चिकित्सा शास्त्र की इतनी उन्नति के उपरांत भी 80% से ज्यादा शरीर की पूर्ण जानकारी शेष है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि अपरा ज्ञान जरूरी नहीं है। हमारे भौतिक जीवन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम इनके लिए कठिन श्रम करें। अपरा ज्ञान की सिद्धि करने के प्रयास से उत्पन्न हुआ विवेक ही परा ज्ञान की ओर अग्रसर होने का प्रथम चरण है।

अपरा ज्ञान का मुख्य उद्देश्य प्रकट करना होता है, समाधान परा ज्ञान का स्वरूप है। आधुनिक परिभाषा में, परा ज्ञान = IQ + EQ, अर्थात वह ज्ञान हो हमारे अन्तः द्वंद का समाधान करता है। इस ज्ञान की प्राप्ति से अहंकार का अंत होता है। यह ज्ञान बताता है कि कर्म करते हुए भी अन्तःकरण की शांति संभव है। भगवान अध्याय 14 में कहते हैं कि “परं भूयः प्रवक्ष्यामि” , मैं तुम्हें पुनः यह ज्ञान कहता हूँ, अर्थात भगवान यहां अभ्यास की भी महिमा बता रहे हैं।

अंतर्द्वद्व का समाधान बाहर के विश्व में नहीं आपको अपने अन्तःकरण में ढूँढना है। इस ज्ञान की महिमा 2 कारणों से है, प्रथम कि यह हमें जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर निकालता है (14.2)। परंतु शायद हम पुनर्जन्म में भरोसा ना करते हों, या उसकी चिंता हमें किसी ज्ञान हेतु उत्प्रेरित ना करती हो, अतः दूसरा कारण समझना अनिवार्य है।

जब हम शांत चित्त से कार्य करते हैं तो हमारी जागरुकता उच्च कोटी की होती है। अपने आस-पास के किसी महात्मा को देखें कि वो अपने परिवेश के प्रति कितने सजग रहते हैं। परा ज्ञान आपको दक्ष बनाती है। अतः इसकी आवश्यकता भौतिक जीवन के सफलता हेतु भी अनिवार्य है।

इस लेख के लेखक समीर कुमार हैं। लेख में व्यक्त सभी विचार इनके निजी हैं। लेखक नेशनल अवॉर्ड विजेता ‘मिथिला मखान’ के प्रोड्यूसर हैं और अभी प्रसार भारती न्यूज सर्विसेज की स्थापना में योगदान कर सेवा में कार्यरत हैं।

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