हाल ही में फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप जो अपनी फिल्मों में गालियों और अश्लील संवादों के लिए प्रसिद्ध हैं, जिन पर अपने निजी जीवन में कई तरह के आरोप लग चुके हैं ने ब्राह्मण समाज के लिए अपमानजनक और अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया। जिसमें उन्होंने ”ब्राह्मणों पर मूतने” जैसे घृणित शब्द कहे। यह केवल भाषा की मर्यादा का उल्लंघन नहीं है, यह उस सनातन परंपरा पर प्रहार है जिसने भारत को ऋषियों, मुनियों, आचार्यों और विद्वानों का देश बनाया।
ब्राह्मण शब्द केवल एक जाति नहीं, वह एक विचार है—ज्ञान का, संयम का, तप का, और त्याग का। क्या अनुराग कश्यप को यह याद नहीं कि चाणक्य जैसे राष्ट्रशिल्पी इसी परंपरा की देन हैं? क्या वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय को नहीं जानते जिन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी संस्था की नींव रखी और भारतीय शिक्षा की आत्मा को पुनर्जीवित किया? क्या वह स्वतंत्रता सेनानी पंडित चंद्रशेखर आजाद को भूल गए, जिन्होंने आजादी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान दिया। 1947 में देश की आजादी के बाद श्रीनगर में मातृभूमि के लिए बलिदान होने वाले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा भी ब्राह्मण ही थे।
जो अनुराग कश्यप ने कहा वह केवल ब्राह्मणों को अपमानित करने का मामला नहीं है—बल्कि उनके ऐसे ओछे और घटिया बोल ऐसी सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सुनियोजित रूप से भारत के मूल को काटने, तोड़ने और घृणा फैलाने वाली है। इसके लिए उनकी जितनी फजीहत की जाए वह कम ही होगी। ऐसे बोल बोलने के लिए क्यों न अनुराग कश्यप से बोलने, लिखने और फिल्म बनाने की आजादी पर छीन ली जाए ? क्यूं न उनकी फिल्मों को प्रतिबंधित कर दिया जाए ?
जातिगत विद्वेष की ऐसी ही सोच तब सामने आती है जब समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव जेएनयू छात्र संघ चुनाव के परिणामों को ‘पीडीए’ यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक की ‘राजनीतिक जीत’ बताकर प्रस्तुत करते हैं। वे छात्रों को विद्यार्थी के रूप में नहीं, बल्कि जातिगत खांचों में बांटकर एक घातक ध्रुवीकरण करने का प्रयास करते नजर आते हैं जो व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहा हो, वर्तमान में सांसद हो, कम से कम उन्हें तो ऐसे बोल नहीं बोलने चाहिए।
जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में जहां शोध होने चाहिए। जहां राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर मंथन होना चाहिए। वहां वैचारिक विविधता के नाम पर जिस प्रकार की दिशाहीन और विभाजनकारी राजनीति पनपाने के प्रयास किए जा रहे हैं वह भारत के शैक्षणिक और सांस्कृतिक भविष्य के लिए एक गंभीर खतरे का संकेत है। जब देश के नेता ही छात्रसंघ जीत को ‘जातिगत गठजोड़’ की जीत के रूप में प्रचारित करने लगे तब यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा के मंदिरों को राजनीतिक अखाड़ा बनाने का षड्यंत्र किया जा रहा है।
इसी प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सपा नेता रामजीलाल सुमन का राणा सांगा जैसे वीर राष्ट्रनायक पर विवादित बयान देना केवल इतिहास के साथ नहीं, बल्कि भारत की आत्मा के साथ विश्वासघात करना है। ऐसी ही घृणित मानसिकता से ग्रसित सपा विधायक इंद्रजीत सरोज का देवी देवताओं और मंदिरों पर दिया निकृष्ट बयान हो या अबू आजमी का औरंगजेब जैसे आततायी, कट्टरपंथी की प्रशंसा हो जो केवल एक बयान ही नहीं है बल्कि भारत विरोधी मानसिकता वाली सोच है।
इस तरह के बयान दिए जाने पर प्रश्न उठने जो लाजमी हैं। यहां प्रश्न उठता है कि क्या ऐसे लोग, जो बार-बार समाज को जाति, संप्रदाय और धर्म के नाम पर बांटते हैं, देश के वीरों को अपमानित करते हैं, आक्रांताओं की प्रशंसा करते हैं, उन्हें लोकतंत्र की छत्रछाया में अधिकार देने चाहिए? क्या संविधान की आड़ लेकर यह लोग देश को भीतर से तोड़ने का काम नहीं कर रहे ?
लोकतंत्र अधिकार देता है, लेकिन अंधाधुंध स्वतंत्रता का नहीं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आप कुछ भी नहीं बोल सकते। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक नैतिक उत्तरदायित्व के साथ जुड़ी होती है। लोकतंत्र में अधिकार हैं लेकिन किसी को भी अधिकारों के नाम पर निरंकुश नहीं होने दिया जा सकता। जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाज के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाने लगें तब उसे अधिकार नहीं कहा जा सकता। यह सीधे तौर मिले हुए अधिकारों का दुरुपयोग करना है।
तो फिर क्यूं न ऐसे लोगों को चिन्हित किया जाए जो लगातार समाज में जहर घोल रहे हैं ? केवल चिन्हित ही नहीं, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाए कि वे लोकतंत्र के किसी भी स्तर—चुनाव, विश्वविद्यालय, मीडिया, या सिनेमा—का उपयोग समाज को तोड़ने के लिए न कर सकें। इन्हें संविधान प्रदत्त अधिकारों से वंचित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह अधिकार उन लोगों के लिए हैं जो भारत के संविधान और समाज की गरिमा का सम्मान करते हैं, न कि उन्हें रौंदने के लिए।
हम बार-बार यह भ्रम पालते हैं कि लोकतंत्र सब कुछ सहन कर सकता है, परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र भी तभी तक जीवित है जब तक उसकी आत्मा सुरक्षित है। और उसकी आत्मा है—भारत की एकता, उसका सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक समरसता। जो इस आत्मा पर बार-बार प्रहार कर रहे हैं, उन्हें संरक्षण नहीं बल्कि दंड मिलना चाहिए।
अब समय आ गया है कि हम केवल प्रतिक्रियाएं न दें, बल्कि कठोर निर्णय लेने की दिशा में आगे बढ़ें। ऐसे तत्वों को लोकतांत्रिक अधिकारों से बहिष्कृत कर देना चाहिए। लोकतंत्र के नाम पर संविधान से उन्हें जो अधिकार मिले हैं उन अधिकारों को छीन लेना चाहिए। ऐसे लोगों से वोट देने का अधिकार, किसी मंच से बोलने का अधिकार भी छीन लेने चाहिए ?
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।