मुंबई में एक कारोबारी को सिर्फ इसलिए थप्पड़ मारा गया क्योंकि वह मराठी नहीं बोल पाया। मारने वाले कौन थे? राज ठाकरे की पार्टी मनसे के कार्यकर्ता। वैसे इन्हें कार्यकर्ता न कहकर सड़क छाप गुंडा कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में यह घटना हुई, हालांकि पुलिस ने मामला दर्ज किया, आरोपियों को हिरासत में लिया लेकिन जमानती धाराएं होने के कारण उनके बयान दर्ज कर उन्हें वहीं से जमानत पर छोड़ दिया गया।
हिंदी भाषाई लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार होने पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने सामने आकर बयान दिया कि मराठी का मान हमेशा हमारे लिए है लेकिन भाषा के आधार पर किसी भी तरह की गुंडागर्दी कतई बर्दाश्त नहीं की जाएगी, अब देखना यह है कि इसका कितना कड़ाई से पालन होता है।
हिंदी बोलने को लेकर कुछ दिन पहले कर्नाटक में भी विवाद खड़ा हुआ था, जब कर्नाटक में स्टेट बैंक की शाखा में कार्यरत महिला अधिकारी ने महज इतना कहा था कि यह भारत है, मैं हिंदी में बात करूंगी, इस बात को इतना तूल दे दिया गया था कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इस विवाद में कूद गए थे। महिलाकर्मी को बाद में माफी मांगनी पड़ गई थी। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इसे ‘कन्नड़ अस्मिता’ पर हमले की तरह प्रचारित किया था।
कुछ ऐसा ही तमाशा तमिलनाडु की स्टालिन सरकार कर चुकी है। डीएमके की राजनीति शुरू से ही हिंदी विरोध की जहरीली खेती करती आई है। नई शिक्षा नीति लागू होते ही स्टालिन ने सबसे पहले यह राग अलापा था कि केंद्र सरकार हिंदी थोप रही है। वे तमिल अस्मिता की दुहाई दे रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि किसी राज्य में कोई भी भाषा थोपने की बात इस नीति में है ही नहीं। इस नीति के त्रिभाषा सूत्र के तहत अपनी मातृभाषा के अलावा कोई भी अन्य दो भाषाएं पढ़ाने की बात है, लेकिन सिर्फ वोट बैंक के लिए हिंदी भाषा विवाद को जन्म दिया गया।
महाराष्ट्र में भी यही हो रहा है। असल में महाराष्ट्र में जो हो रहा है वह सिर्फ हिंदी और मराठी की बहस नहीं है, यह राजनीति है, फिर चाहे उद्धव ठाकरे हों या महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रहे उनके चचेरे भाई राज ठाकरे, क्योंकि शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के तो फिर भी कुछ विधायक हैं, सांसद भी हैं, लेकिन मनसे के पास तो एक भी विधायक नहीं है। बावजूद इसके वे गुंडागर्दी पर उतारू हैं। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे 5 जुलाई को दो दशक बाद साथ आए। राज ठाकरे यहां भी हिंदी के खिलाफ जहर उगलने से नहीं चूके। उन्होंने भी हिंदी को थोपे जाने का आरोप लगाया।
नई शिक्षा नीति के तहत त्रिभाषा सूत्र लागू होने से न मराठी को कोई खतरा है न ही मराठियों की अस्मिता को खतरा है, राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे जैसे नेता त्रिभाषा सूत्र को ‘हिंदी थोपने की साजिश’ करार दे रहे हैं। मुंबई की सड़कों पर खुलेआम धमकियां दी जा रही हैं,’मराठी नहीं बोले तो देख लेंगे’ मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी कहा जाता है, मुंबई शहर की फिल्म इंडस्ट्री हिंदी के दम पर सांस लेती है और उसी शहर में हिंदी बोलने पर थप्पड़ मारे जा रहे हैं। राज ठाकरे की पार्टी मनसे के कार्यकर्ता पहले यूपी और बिहार के मजदूरों को पीटते थे, अब वे बच्चों की किताबों को निशाना बना रहे हैं।
मनसे के कार्यकर्ताओं द्वारा की जा रही यह गुंडागर्दी किसी भाषा की रक्षा नहीं, बल्कि एक सड़ी-गली राजनीति का प्रमाण है। महाराष्ट्र सरकार को भाषा के नाम पर नफरत फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई किए जाने की जरूरत है। मनसे की गुंडागर्दी इतनी बढ़ गई है कि मुख्यमंत्री फडणवीस द्वारा भाषा के आधार पर गुंडागर्दी करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई किए जाने का बयान दिए जाने के अगले ही दिन 30 सालों से मुंबई में रह रहे एक व्यापारी के ऑफिस पर मनसे के गुंडों ने हमला कर दिया। ऑफिस में ईंट-पत्थर बरसाए। गार्ड के साथ हाथापाई की।
भाषा की गरिमा तभी सुरक्षित रह सकती है जब उसे राजनीति का शिकार न बनाया जाए। भाषा के नाम पर नफरत फैलाने वाले ऐसे नेताओं को यह ध्यान दिलाया जाना बेहद जरूरी है कि भारत का संविधान किसी की बपौती नहीं है। वह किसी को भी अपनी भाषा चुनने, बोलने का अधिकार देता है। ऐसे में वह किसी पर कुछ थोप नहीं सकते। ऐसे नेता और ऐसे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता जो भाषाई आधार पर नागरिकों को निशाना बना रहे हैं, उनके खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि हिंदी या किसी अन्य भाषा के नाम पर कोई भी भारतीय नागरिक अपने ही देश के किसी भी राज्य में खुद को असुरक्षित महसूस न करे। भाषा के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने और वैमनस्य फैलाने वाले ऐसे सभी नेताओं पर तत्काल कड़ी कार्रवाई किए जाने की जरूरत है।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।