दिल्ली में ठंड है लेकिन चुनावों के चलते राजनीतिक गलियारों में खासी गर्मी है। लोकसभा चुनावों में दिल्ली में साथ मिलकर चुनाव लड़ चुकी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की राहें जुदा हो चुकी हैं। राजनीतिक बयानबाजी के साथ दोनों के बीच तल्खी भी बढ़ चुकी है। पिछले दस सालों से दिल्ली की सत्ता पर काबिज अरविंद केजरीवाल चुनाव में जीतने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस भी दिल्ली में अपना खोया जनाधार पाने के लिए पुरजोर कोशिश में जुटी है। अरविंद केजरीवाल ने इन चुनावों में एक नया पैंतरा चला है कि भाजपा और कांग्रेस मिलकर पर्दे के पीछे से उन्हें हराने की कोशिश कर रही हैं।
ऐसे में भाजपा के विरोध की राजनीति करने वाले तमाम दल फिर चाहे वह सपा हो, तृणमूल कांग्रेस हो या फिर शिवसेना (यूबीटी) ने कांग्रेस को छोड़कर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का समर्थन करने की घोषणा की है। ऐसा इसलिए कि तीनों ही दल अपने मतदाताओं को यही संदेश देना चाहते हैं कि वह उस राजनीतिक दल के साथ हैं जो भाजपा को टक्कर दे सकता है। वह भले ही इंडी गठबंधन में साथ हैं लेकिन दिल्ली में केजरीवाल को समर्थन दे रहे हैं।
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने आआपा के मुखिया अरविंद केजरीवाल के साथ मिलकर सभा करने की घोषणा कर दी है। ऐसा इसलिए क्योंकि अखिलेश को भी लगता है कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी आआपा भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में है। दूसरे उनका बड़ा वोट बैंक मुस्लिम वोट बैंक है। इससे सीधे तौर पर वह यह संदेश भी उत्तर प्रदेश में देना चाहते हैं कि वह उसके साथ हैं जो भाजपा को हरा सकता है। पिछले दो बार से उत्तर प्रदेश में सपा विपक्ष में है। उत्तर प्रदेश में 2027 में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में सपा मुस्लिमों को यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं बरतना चाहती कि हम उसके साथ हैं जो भाजपा को हरा सकता है।
सम्भल में जामा मस्जिद विवाद के बाद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने जिस तरह मुस्लिम वोट बैंक बढ़ाने के लिए राजनीति की वह सपा को पसंद नहीं आई। सपा के नेताओं की तरफ कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए तब तीखी बयानबाजी भी की गई थी। हालांकि यह बात भी सत्य है कि सपा की इतनी सीटें यदि लोकसभा चुनावों में आई तो उसकी वजह कांग्रेस और उसका गठबंधन ही थी। दोनों के गठबंधन से वोटों का ध्रुवीकरण हुआ और सपा लोकसभा में 37 सीटें लाकर पहली बार देश में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। ऐसे में सपा यूपी में तो कांग्रेस के साथ गठबंधन रखना चाहती है लेकिन यह भी नहीं चाहती कि उसके मतदाताओं में यह संदेश जाए कि वह सिर्फ कांग्रेस के साथ है। वह यही संदेश देना चाहती है कि वह भाजपा को हराने वाले हर दल के साथ है। फिर चाहे उसे किसी का भी समर्थन क्यों न करना पड़े।
वहीं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का भी बड़ा वोट बैंक मुस्लिम वोट बैंक ही है। इंडी गठबंधन में रहने के बावजूद ममता बनर्जी ने कांग्रेस के साथ समझौता कर लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था। पिछले दिनों हुई कुछ घटनाओं जैसे कोलकाता में डॉक्टर के साथ हुए दुष्कर्म के बाद तृणमूल और कांग्रेस के नेताओं के बीच तीखी बयानबाजी हुई थी। ऐसे में ममता बनर्जी भी अपने मतदाताओं को यही संदेश देना चाहती हैं कि हम उसके साथ हैं जो भाजपा को हराने की ताकत रखता है। इसलिए ममता बनर्जी ने स्पष्ट तौर पर अरविंद केजरीवाल का समर्थन करने की घोषणा की है।
जहां तक दिल्ली की बात है तो पिछले दस सालों से यहां पर कांग्रेस हाशिए पर है। दिल्ली में जो कांग्रेस का जनाधार था वह अब नहीं रहा। उसका सारा वोट बैंक खिसककर आम आदमी पार्टी को जा चुका है, जिसमें बड़ी संख्या मुस्लिमों की है। ऐसे में तृणमूल भी यही संदेश अपने राज्य में देना चाहती हैं कि हम उस पार्टी के साथ हैं जो भाजपा को हराने की स्थिति में हो।
आम आदमी पार्टी के आने से पहले कांग्रेस की दिल्ली में 15 वर्षों तक सरकार थी। भाजपा लाख प्रयासों के बाद भी दिल्ली की सत्ता नहीं हासिल कर पा रही थी। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के इस किले को ध्वस्त कर दिया। कांग्रेस के पास देश की राजधानी में खोए अपने जनाधार को वापस प्राप्त करने के लिए आम आदमी पार्टी को हराना ही विकल्प है क्योंकि भाजपा तो पहले भी दिल्ली की सत्ता में नहीं थी। दूसरी भाजपा भले ही दिल्ली की सत्ता में न हो उसका वोट बैंक स्थिर है। सबसे बड़ी समस्या कांग्रेस के लिए ही है। दिल्ली चुनावों का परिणाम क्या होगा यह तो भविष्य के गर्त में है, लेकिन अभी तक के समीकरणों को देखते हुए तो यही लग रहा है कि दिल्ली में कांग्रेस की राह फिलहाल तो आसान नहीं है।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।