गत 27 सितंबर को हिज्बुल्लाह चीफ हसन नसरल्लाह की इजराइल के जवाबी हमले में मौत हो गई। उसकी मौत के बाद वहां पर नए जन्मे 100 से ज्यादा बच्चों का नाम हसन नसरल्लाह रखा गया। भारत में भी कश्मीर, लखनऊ, कोलकाता, बरेली आदि शहरों में नसरल्लाह की मौत के विरोध में प्रदर्शन हुए, इजरायल ‘मुर्दाबाद’ के साथ मजहबी नारे लगाए गए। कश्मीर की एक लड़की का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वह स्पष्ट कह रही है कि हर घर से हिज्बुल्लाह निकलेगा। यहां पर हुए प्रदर्शन में बच्चे भी शामिल थे। सवाल यह है कि एक आतंकी संगठन के प्रमुख के मारे जाने पर इतनी हमदर्दी क्यों ?
न जमीन अपनी, न देश अपना, न संस्कृति अपनी, सिर्फ मजहब के नाम पर इतनी हमदर्दी? नसरल्लाह के मारे जाने पर नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने मीडिया से कहा कि भारत को इजराइल पर दबाव बनाना चाहिए कि वो युद्ध रोके और वहां पर शांति स्थापित हो। इसी अब्दुल्ला परिवार ने 1989 में जम्मू—कश्मीर से तीन लाख से अधिक कश्मीरी पंडितों के एक ही दिन में पलायन, आतंकियों द्वारा किए गए नरसंहार पर चुप्पी साध ली थी। कश्मीरी पंडितों को लेकर इस परिवार की चुप्पी आज तक भी कायम है।
हाल ही में बांग्लादेश में हुए तख्ता पलट के बाद वहां पर मारे गए हिंदुओं के लिए किसी ने आवाज नहीं उठाई। धर्म की बात एक तरफ रखकर सिर्फ मानवता के नाम पर तो कम से कम बोला जा सकता था, मगर नहीं ऐसा नहीं हुआ। यही नहीं बांग्लादेश में हिंदुओं के मारे जाने को मजहबी नहीं बल्कि राजनैतिक तक कह दिया गया। वहीं जब पिछले साल फिलिस्तीन के आतंकियों ने पैराशूट से उतर कर इजराइल के निर्दोष नागरिकों को मारा था। उनका अपहरण कर लिया था तब सारे लिबरल और नसरल्लाह के मारे जाने पर प्रदर्शन करने वाले संगठन चुप थे। यूरोपीय संघ द्वारा घोषित तौर पर आतंकी नसरल्लाह के मारे जाने पर प्रदर्शन और निरीह लोगों के कत्लेआम पर चुप्पी यह कौन सी मानसिकता है ?
यह मानसिकता है जिहाद की, कट्टरवाद की। मुस्लिमों की इसी मानसिकता पर बाबा साहेब आंबेडकर ने 1940 में आई उनकी पुस्तक ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’ में स्पष्ट लिखा है कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ यानी बंधुत्व केवल और केवल मुसलमानों के लिए है, इसमें किसी और के लिए कोई जगह नहीं है। और भी बहुत सारी टिप्पणी इस पुस्तक में मुसलमानों के लिए की गई हैं। मुसलमान आज से ऐसा नहीं कर रहे हैं। 1919 से 1922 तक खिलाफत आंदोलन के समय भी मुसलमानों ने ऐसा ही किया था। इस्लाम के मुखिया माने जाने वाले तुर्की के खलीफा के पद को फिर से सृजित करने के लिए वे अंग्रेजों पर दबाव बनाना चाहते थे। भारत के मुसलमान भी इसमें शामिल थे। गांधी जी ने इस आंदोलन को सपोर्ट किया था और कांग्रेस को इसमें शामिल किया था।
तब से लेकर आज तक मुसलमान ऐसा ही करते आ रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत में जितने भी मुस्लिम हैं अगर 0.2 प्रतिशत की बात छोड़ दी जाए तो सभी कन्वर्ट होकर मुस्लिम बने हैं। बावजूद इसके उनकी आस्था और विश्वास सबसे पहले मुस्लिम देशों के लिए है। कल को अगर पाकिस्तान के साथ तनाव हुआ तो भी क्या खुद को इंडियन कहने वाले मुसलमान और भारत से इजरायल पर दबाव बनाकर युद्ध रोके जाने की अपील करने वाले कथित नेता ऐसा ही करेंगे। इस बात की क्या गारंटी है कि वह यहां पर इस तरह के प्रदर्शन नहीं करेंगे?
जिनके हित ‘हसन नसरल्लाह’ के साथ जुड़े हैं, उनका दुखी होना तो समझ आता है, पर भारत में नसरल्लाह की मौत के बाद कई संगठनों, राजनीतिक पार्टियों एवं अन्य लोगों का दुखी होना और विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरना समझ नहीं आ रहा है। यदि ये लोग इतने ही ये मानवाधिकार के संरक्षक हैं तब फिर ये बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों पर चुप क्यों रहे? इजराइल के मामले में भी मानवाधिकार की बात कोई नहीं करता। हिंदुओं के बाद यदि सबसे ज्यादा नरसंहार किसी का हुआ है तो वह यहूदी समुदाय के लोगों का हुआ है। हमास और हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठन इजराइल में उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर उस पर कब्जा करना चाहते हैं।
आत्मरक्षा का अधिकार सभी को है। इजराइल का संघर्ष हमास और हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों से अपने देश और अपने नागरिकों की रक्षा के लिए है। अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र्र के चार्टर के अनुसार कोई भी देश अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिए स्वतंत्र है उसे कोई रोक नहीं सकता। मानवता की बात करने वाले आतंकी संगठनों के पक्ष में बोलने वाले तमाम संगठनों को सोचना चाहिए कि मानवता सिर्फ एक पक्षीय नहीं होती। इसलिए इजराइल को नेस्तनाबूद करने की बात करने वाले आतंकी नसरल्लाह की मौत के विरोध में प्रदर्शन करने वालों और युद्ध रोकने के लिए भारत को इजराइल पर दबाव बनाने के लिए कहने वाले नेताओं को हर पहलू को देखना चाहिए।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।