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क्या प्रियंका गाँधी का चुनावी राजनीति में उतरना राहुल गाँधी के लिए एक नई और बड़ी चुनौती होगी !

प्रियंका गांधी वाड्रा सक्रिय चुनावी राजनीति में आ चुकी हैं। उन्होंने केरल के वायनाड से लोकसभा के लिए होने वाले उपचुनाव के लिए पर्चा दाखिल कर दिया है, संभवत: वह जीत भी जाएंगी क्योंकि गांधी परिवार का ठप्पा होने के चलते उनके लिए यह सुरक्षित सीट भी है। राहुल गांधी भी पिछले लोकसभा चुनावों में अमेठी से हार के डर के चलते इसी सीट से चुनाव लड़कर किसी तरह संसद पहुंच गए थे। इस वह रायबरेली से सांसद बनने में कामयाब रहे। वायनाड सीट खाली हुई तो प्रियंका गांधी वहां से उप-चुनाव लड़ रही हैं।

यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि प्रियंका गांधी अब जबकि चुनावी राजनीति में आ चुकी हैं और सांसद बनने वाली हैं तो वह किसके लिए चुनौती होंगी। इस पर कांग्रेसी खेमे में भी चर्चा है। कांग्रेस का आगे का भविष्य क्या होगा। कांग्रेस का नेतृत्व प्रियंका गांधी करेंगी या फिर राहुल गांधी यह भी बड़ा सवाल है।

आज से पहले भी कई मौकों पर ऐसी चर्चा सामने आ चुकी है कि दोनों भाई—बहनों के बीच कई मुद्दों पर सहमति नहीं बनती है। जाहिर है ऐसा हर जगह होता है। 2018 में जब राजस्थान में विधानसभा चुनाव कांग्रेस जीती थी, तब अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों में से कौन मुख्यमंत्री बनेगा इस पर भी काफी खींचतान रही थी। ऐसा कहा जाता रहा है कि प्रियंका अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में थी और राहुल गांधी सचिन पायलट की वकालत कर रहे थे। बाद में 10 जनपथ पर बैठकर हुई बातचीत में अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर पर मुहर लगा दी गई थी। इसकी परिणीति क्या रही यह सबने देखा। 2023 में राजस्थान में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद तक पायलट और गहलोत के बीच तनातनी बनी रही।

बहरहाल यहां बात प्रियंका गांधी के सांसद बनने के बाद कांग्रेस का नेतृत्व करने की हो रही है। ऐसा इसलिए कि भले ही देश में लोकतंत्र हो लेकिन कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र कभी नहीं रहा। इंदिरा गांधी के राजनीति में उत्थान के समय इंदिरा गांधी ने पुरानी कांग्रेस को तोड़कर नई कांग्रेस पार्टी बनाई थी और सारे पुराने कांग्रेसी नेताओं को इधर—उधर कर दिया था। जब तक इंदिरा गांधी जीवित थीं वह सर्वेसर्वा रहीं। 1984 में उनकी हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बनें। तब से लेकर आज तक गांधी परिवार ही कांग्रेस को चलाता आया है।

हालांकि प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद एक दशक से ज्यादा तक गांधी परिवार राजनीति में सक्रिय नहीं रहा, इस दौरान कांग्रेस की स्थिति बहुत अच्छी भी नहीं रही। बाद में तमाम पुराने कांग्रेसी सोनिया गांधी को राजनीति में लेकर आए। उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। तब के बाद राहुल गांधी अपनी मां सोनिया के साथ सार्वजनिक तौर पर दिखाई देना शुरू हुए। 2004 में राहुल गांधी अमेठी से सांसद बनें। उनकी मां सोनिया गांधी ने अमेठी सीट उनके लिए छोड़ दी ओर वह रायबरेली से चुनाव लड़कर संसद पहुंची। इसके बाद फिर 2004 से 2014 तक कांग्रेस सत्ता में रही। सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा तो परिस्थितिवश मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया लेकिन निर्णय लेने का अधिकार किस के पास था यह पूरा देश जानता है। इन दस वर्षों में हुआ वही जो गांधी परिवार चाहता था।

2014 में भाजपा पहली बार पूर्णबहुमत से सत्ता में आई। यह पहली बार था कि देश में कांग्रेस के बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था, नहीं तो या देश में कांग्रेस की सरकार रही या फिर कांग्रेस के दम पर ही सरकार रही । भाजपा सत्ता में पूर्ण बहुमत से आएगी ऐसा कांग्रेस को कभी नहीं लगता था। 2014 से आज तक कांग्रेस सत्ता पाने के लिए किस तरह छटपटा रही है यह स्पष्ट देखा जा सकता है। पिछले दस सालों से राहुल गांधी पूरी ताकत से भाजपा को हराने के लिए प्रयास कर रहे हैं लेकिन वह कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। 2014 के बाद से केंद्र में तो कांग्रेस है ही नहीं बल्कि उसका राज्यों में ग्राफ तेजी से गिरा है। देश के विभिन्न राज्यों में कांग्रेस की स्थिति कैसी है इससे सब वाकिफ हैं।

राहुल गांधी अभी तक अपने नेतृत्व को साबित नहीं कर पाए हैं। इस समय देश में केवल तीन राज्यों, हिमाचल, कर्नाटक और तेलंगाना में ही कांग्रेस की सरकार है। कांग्रेस की लगातार हो रही दुर्गति के चलते कांग्रेसियों का एक बड़ा खेमा लंबे समय से प्रियंका को चुनाव लड़ाने की वकालत करने में जुटा हुआ था। पहली बार प्रियंका गांधी वायनाड से चुनाव लड़ रही हैं।

अब जबकि वह चुनाव लड़ ही रही हैं तो यह सवाल बार—बार उठ रहा है कि वह संसद में चुनौती किसके लिए होंगी। यदि कांग्रेस के इतिहास का अवलोकन करें तो इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि प्रियंका गांधी संसद में सबसे बड़ी चुनौती राहुल गांधी के लिए बनेंगी। कांग्रेसी अक्सर उनकी तुलना उनकी दादी इंदिरा गांधी से करते हैं। उनकी भाषा शैली भी राहुल गांधी के मुकाबले बेहतर ही नजर आती है। वहीं राहुल गांधी की परफॉर्मेंस, उनकी भाषा शैली, उनके व्यवहार को लेकर कांग्रेस में भी सवाल उठते रहे हैं।

2014 के बाद से कांग्रेस का ग्राफ गिरता ही जा रहा है। गाहे—बगाहे चुनावों में हार का ठीकरा राहुल गांधी पर ही फूटता रहा है। ये बात दीगर है कि कांग्रेसी नेता चुनावों में हुई हार के बाद राहुल को बचाने के लिए जिम्मेदारी खुद पर ले लेते हैं लेकिन वास्तविकता क्या है यह सभी को पता है। हालांकि इंदिरा गांधी से काफी हद तक शक्ल मिलने के बाद भी प्रियंका गांधी किसी चुनाव में कुछ करिश्मा कर पाई हों ऐसा भी दिखाई नहीं देता। उदाहरण के तौर पर 2019 में उन्हें कांग्रेस के महामंत्री के तौर पर उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनावों की पहली बार जिम्म्मेदारी दी गई थी। तब कांग्रेस केवल एक सीट यहां पर जीत पाई थी।

सोनिया गांधी रायबरेली से अकेले जीती थीं। राहुल गांधी खुद अमेठी से चुनाव हार गए थे। 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी कमान प्रियंका के पास थी। तब विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पूरे उत्तर प्रदेश में केवल दो सीटें ही जीत पाई थीं। बहरहाल इसके बाद भी कांग्रेसियों का एक बड़ा वर्ग उन्हें इससे बड़ी भूमिका में देखना चाहता है। कांग्रेसियों के एक बड़े खेमे को लगता है कि संभवत: प्रियंका गांधी कांग्रेस फिर से उसकी पुरानी स्थिति में ला सकती हैं।

ऐसा होगा या नहीं यह तो बाद की बात है लेकिन प्रियंका और राहुल गांधी की तुलना शुरू हो चुकी है। प्रियंका गांधी चुनाव लड़कर संसद में आएंगी तो कांग्रेसियों की उनसे अपेक्षाएं भी बढ़ेंगी। जाहिर तौर पर उन्हें बड़ी भूमिका के लिए प्रोजेक्ट भी किया जाएगा। संसद में पहली बार पहुंचने वाली प्रियंका गांधी के बोलने पर देशभर के मीडिया की भी नजर रहेगी। उनका किसी विषय पर बोलना अखबारों की सुर्खियां भी बनेगा। ऐसे में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर राहुल गांधी पर भी दबाव रहेगा कि सत्ता पक्ष को घेरने के लिए दमदारी से बोलें और अपनी बात इतने वजन और तथ्यों के साथ रखें कि उनकी बातों को गंभीरता से लिया जाए, जोकि अभी तक कि राहुल गांधी की परफॉर्मेंस को देखते हुए नजर नहीं आता। ऐसे में कांग्रेस के एक बड़े वर्ग की मांग प्रियंका गांधी को आगे बढ़ाने और कांग्रेस में निर्णायक भूमिका में लाने के लिए होगी। यदि ऐसा होगा तो राहुल गांधी के लिए चुनौती निश्चित तौर पर बड़ी होगी। इस राजनीतिक अखाड़े में कौन किसको कैसे पटखनी देगा यह तो अभी भविष्य के गर्त में है लेकिन चर्चाओं का बाजार अभी से गर्म है।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।

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