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Bawaal Review: हिटलर, यूरोप और इतिहास के सवाल, ड्रामे से भरी है जान्हवी-वरुण की ‘बवाल’, पढ़ें पूरा रिव्यू

नई दिल्ली। अतीत में घटी घटनाएं आज हमारे लिए महज इतिहास का एक किस्सा है, जिसे हम सालों से पढ़ते या सुनते आ रहे हैं। लेकिन हम इन घटनाओं को कभी इतनी गंभीरता से नहीं लेते। क्या आपने कभी सोचा है कि आज हम इतिहास के पन्नों पर जो किसी न किसी का नाम पढ़ रहे हैं वो भी अपने ज़माने में एक इंसान थे। एक खुश इंसान, हंसते खेलते इंसान। कभी सोचा है कि युद्धों में जब ये लोग दुनिया छोड़ कर गए होंगे कितना दर्द सहा होगा। कहते हैं दर्द सिर्फ वही महसूस कर सकता है जिसे जख्म लगा हो। वरुण धवन और जान्हवी कपूर की फिल्म ‘बवाल’ भी इतिहास के कुछ उन्हीं पुराने जख्मों के दर्द को महसूस करने की जद्दोजहद में बुनी गई कहानी है। तो चलिए एक नजर डालते हैं फिल्म की कहानी पर…

क्या है कहानी ?

फिल्म की कहानी शुरू होती है नवाबों के शहर लखनऊ से, जहां रहने वाले अजय दीक्षित उर्फ़ अज्जू भैया ने पूरे शहर में अपना भौकाल सेट कर रखा होता है। अज्जू भैया के जीवन में उनकी शो-शा वाली इमेज के बहुत मायने हैं। अज्जू अपने इमेज और दिखावे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। लेकिन अज्जू जितना लोगों के सामने दिखावा करते हैं, असल जिंदगी में वो अपने जीवन से उतने ही नाखुश भी हैं। परिवार में मां-बाप है जिनका नाम वो बस काम पड़ने पर लेते हैं। इसके अलावा बीवी है निसा (जान्हवी कपूर) जिससे शादी तो कर ली लेकिन शादी के बाद प्यार नहीं कर पाए। नतीजन नजदीक आने के बजाय दोनों के बीच दूरियों की लंबी दीवार खड़ी हो गई है।

कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब अज्जू भैया की एक दिन नौकरी पर बन आती है। ऐसे में अपने स्टूडेंट्स को दूसरे विश्वयुद्ध का पाठ विश्वयुद्ध वाली जगह जाकर पढ़ाने और ट्रिप का पूरा खर्चा पिताजी से निकलवाने के लिए फेक हनीमून का कॉम्बो प्लान बनाकर अज्जू यूरोप पहुंच जाते हैं, जहां अज्जू की जिंदगी बदल जाती है। अब हिटलर के शहर में अज्जू के हाथ ऐसा क्या कोहिनूर लगता है ये जानने के लिए आपको ये फिल्म देखनी पड़ेगी।

कैसी है परफॉर्मेंस?

वरुण धवन में एक्टिंग का पॉटेंशियल है। उन्होंने ‘बवाल’ में काम भी ठीक किया है। लेकिन और बेहतर की गुंजाईश अभी भी लगती है। ये फिल्म जाहिर तौर पर जान्हवी के करियर की बेस्ट परफॉर्मेंस के तौर पर याद की जाएगी। एक्ट्रेस ने बेहतरीन काम किया है, खासकर इमोशनल सीन्स में जान्हवी कमाल लगी हैं। मनोज पाहवा, अंजुमन सक्सेना और सभी को-एक्टर्स ने अच्छा काम किया है।

कहां रह गई कमीं?

नितेश तिवारी ने कुछ अलग करने की कोशिस जरूर की लेकिन सही तरीके से पेश करने में चूक जरूर गए। फिल्म की कुछ चीज़े अत्यंत बचकानी लगती है। फिल्म में सेकेंड वर्ल्ड वार के बारे में सेंसेटिव तरीके से दर्शकों को सीख देने की कोशिश की गई है। लेकिन ये एक ऐसा टॉपिक है जिसके बारे में हम सालों से पढ़ते आ रहे हैं, जानते आ रहे हैं। ऐसे में ये चीज़ थोड़ा बोर जरूर करती है। फिल्म की पटकथा को और बेहतर किया जा सकता था। वरुण की एक्टिंग ‘बद्री की दुल्हनिया’ हो या ‘जुड़वां’ या ‘बवाल’ सेम ही लगती है। एक्टर को अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलने की जरूरत है।

देखें या ना देखें

अगर आपके पास कुछ नहीं है देखने को और हिटलर के अत्याचार को उसके शहर जाकर जानना चाहते हैं, तो ये फिल्म एक बार तो जरूर देख सकते हैं।

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