नई दिल्ली। आज हम यहां मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे फिल्म का रिव्यू करने वाले हैं। इस फिल्म में मर्दानी गर्ल रानी मुखर्जी ने काम किया है। उनके साथ इस फिल्म में कई अन्य कलाकार अनिबरन भट्टाचार्य, जिम सरभ और कैमियो के रूप में नीना गुप्ता ने भी काम किया है। जब इस फिल्म के ट्रेलर को रिलीज किया गया था तो फिल्म से काफी उम्मीदें बनी हुई थीं। लेकिन जब फिल्म देखी गई तो असल सच्चाई का पता लगता है। आशिमा छिब्बर ने इस फिल्म का निर्देशन किया है और फिल्म की पटकथा समीर सतीजा, राहुल हांडा और आशिमा छिब्बर ने मिलकर लिखा है। निखिल आडवाणी के प्रोडक्शन ने फिल्म को प्रोड्यूस किया है वहीं इस फिल्म का म्यूज़िक अमित त्रिवेदी ने दिया है। ज्यादा देर न करते हुए फिल्म के बारे में बात करते हैं।
कैसी है फिल्म
अगर एक लाइन फिल्म के बारे में कहना हो तो सच ये है कि फिल्म अपना असर नहीं दिखा पाई। एक इमोशनल सब्जेक्ट होने के बाद भी फिल्म इमोशनल करने में कामयाब नहीं हुई। एक मां और उसके बच्चों को एक-दूसरे से अलग करने की कहानी का विषय अपने आप में ही दर्शक को संवेदनाओं से भर सकता है। लेकिन पटकथा के कमजोर होने के कारण ऐसा नहीं हुआ और एक अच्छे विषय की फिल्म आकर्षित करने में नाकामयाब रही।
कहानी क्या है
अगर फिल्म की कहानी की बात करें तो ट्रेलर देखकर ही आपको अंदाजा लग गया होगा कि कहानी क्या है। लेकिन फिर भी आपको बता दें कहानी देबिका चटर्जी की है। जिन्हें मिसेज़ चटर्जी के नाम से जानते हैं। देबिका चटर्जी अपने पति के साथ नार्वे में अपने दो बच्चों के साथ रहती हैं। लेकिन तभी नार्वे की फॉस्टर केयर दोनों ही बच्चों को इनके पास से उठा ले जाती हैं। आपको बता दें नॉर्वे में जब तक बच्चे 18 वर्ष के नहीं हो जाते तब तक उनके ऊपर बहुत ध्यान रखा जाता है। एक घर मे बच्चों को कैसे रखा जा रहा है, उन्हें क्या पढ़ाई दी जा रही है, कैसी शिक्षा दी जा रही है, कैसा खाना दिया जा रहा है, किस माहौल में रखा जा रहा है ये सभी बातों का ख्याल रखा जाता है। अगर आप इन बातों को नहीं मानते हैं तब चाइल्ड वेलफेयर वाले आप पर दबाव डालते हैं और आपको अपना बच्चा उन्हें सौंपना पड़ता है।
ऐसा ही कुछ हुआ था सागरिका भट्टाचार्य और अनुरूप भट्टाचार्य के साथ जिनके असल जिंदगी पर इन फिल्म की कहानी आधारित है। 2011 में इनकी बेटी ऐश्वर्या की में एक साल और बेटे अभिज्ञान की उम्र तीन साल थी। तब चाइल्ड वेलफेयर वालों ने सागरिका पर आरोप लगाया था कि सागरिका ने अपने एक बच्चे को थप्पड़ मारा था। साथ ही इन बच्चों के पास जरूरत की चीज़ें भी मुहैया नहीं थीं जिसके बाद इन कपल पर चाइल्ड वेलफेयर वालों ने दबाव बनाकर बच्चों को फ़ॉस्टर केयर में भेजा था और ये भी कहा गया था कि बच्चों के माता-पिता 18 वर्ष पूरे होने पर ही बच्चों से मिल सकते हैं। जिसके बाद कपल और चाइल्ड वेलफेयर के बीच कानूनी लड़ाई हुई। भारत सरकार ने भी इसमें मदद करनी चाही। लेकिन उसके बाद सागरिका को जंग अकेली लड़नी पड़ी और साल 2012 में उन्हें उनके बच्चे वापस मिल गए। इस कहानी में भी ऐसा ही होता है देबिका को अकेले कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। उसका परिवार और उसके पति उसके साथ खड़े नहीं होते हैं। उसे पागल करार दिया जाता है लेकिन अंत मे उसे जीत मिलती है।
फ़िल्म की अच्छाई-
फिल्म का म्यूजिक अच्छा है। इसके अलावा कुछ जगह पर सीन ठीक तरह से लिए गए हैं लेकिन बस एक और दो सीन। इसके अलावा जिम सरभ आप पर पूरा असर छोड़कर जाते हैं। जिस तरह से वो अपने संवादों में इमोशन डालते हैं वो काफी बेहतरीन है।
कहानी में क्या है दिक्कतें
कहानी की अच्छाइयां खत्म। शुरुआत में ही बच्चों को उठाने वाले सीन से कहानी आपको बांधना चाहती है लेकि वो सीन न ही आपको थ्रिल कर पाता है और न आपको कहानी के वर्ल्ड में ले जाकर कहानी से जोड़ पाता है। उस सीन को बेहद खराब तरीके से लिखा गया है और उतने ही खराब तरीके से डायरेक्ट किया गया है।
कहानी ज्यादातर नॉर्वे के सिस्टम पर बात करती है ऐसे में इस कहानी से दर्शकों के जुड़ने की उम्मीदें कम हो जाती हैं क्योंकि हमारे भारत में ही इतनी कहानियां हैं तो वो नॉर्वे के सिस्टम को क्यों जानना चाहेगा। बार-बार नॉर्वे के सिस्टम के जिक्र से दर्शकों के ऊबने की संभावना बन जाती है। कहानी इमोशनल बिल्कुल भी नहीं करती है। एक मां और उसके बच्चों के अलग होने की कहानी अगर इमोशनल न करे तब तो इसका मतलब पटकथा में एक नहीं कई खामियां हैं। मुख्य बात तो ये है ऐसा लगता है कि इस फिल्म की कहानी तो कोई है ही नहीं, बल्कि सिर्फ सीन के आधार पर कहानी को तैयार किया गया। आजकल अक्सर ऐसा होने लगा नए-नवेले लेखकों के पास कहानी नही होती है, सिर्फ विषय होता है और कुछ सीन और वो सीन्स के आधार पर फिल्म बनाते हैं, जबकि फिल्म बगैर कहानी के बन ही नहीं सकती है।
बेमतलब का फेमिनिज्म का एंगल फिल्म में डाला गया है। जैसे एक पत्नी को ही अपने बच्चों से प्यार है पति को नहीं। एक पत्नी को उसका पति छोड़ देता है और ससुराल वाले उसे प्रताड़ित करते हैं। इस फिल्म में ये दिमाग मे रखकर कहानी बनानी नहीं चाहिए थी। पटकथा में कई लूपहोल्स हैं। इस विषय पर बनी कहानी जब आपके दिल में घात कर जानी चाहिए थी, तब ये फिल्म आपका पूरा समय वेस्ट कर देती है।
रानी मुखर्जी की भूमिका कुछ खास असर नहीं छोड़ पाई-
ओवरऑल आप इस फिल्म को अपनी मर्जी के मुताबिक देख सकते हैं लेकिन फिल्म में आपको वो नहीं मिलेगा जो ट्रेलर में दिखाया गया था। मेरी तरफ से फिल्म को खराब पटकथा और डायरेक्शन के कारण 2 स्टार।