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प्राचीनकाल में आयुर्विज्ञान का विकास कैसे हुआ?, जानें यहां सब कुछ

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नई दिल्ली। भारतीय परम्परा में ज्ञान-विज्ञान के बीज हैं। यहाँ प्राचीनकाल में सुव्यवस्थित आयुर्विज्ञान का विकास हुआ था। अथर्ववेद स्वास्थ्य विज्ञान से भरा पूरा है। चरक संहिता आयुर्विज्ञान का प्रमुख ग्रन्थ है। यह वैदिक आयुर्विज्ञान का विकास है। प्रसन्नता की बात है कि नेशनल मेडिकल कमीशन ने देश के मेडिकल शिक्षण संस्थानों को पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि मेडिकल शिक्षण संस्थान चिकित्सकों को पुरानी शपथ की जगह पर चरक संहिता में उल्लिखित शपथ दिलायें। अभी तक ली जाने वाली शपथ को हिप्पोक्रेटस शपथ कहलाती है। हिप्पोक्रेटस यूनान के प्रमुख विद्वान थे और पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्र के जन्मदाता थे। चिकित्सक अपोलो, असलेपियस और हाजिया तथा पैनेसिया और सभी देवी देवताओं का नाम लेकर शपथ लेते थे कि मैं अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार पूरी जिम्मेदारी से चिकित्सा करूँगा। अपोलो ग्रीक और रोमन धर्म के प्रमुख देवता थे। वह प्रकाश, कविता, नृत्य, संगीत, चिकित्सा आदि के देव थे। उन्हें आदर्श पुरूष सौंदर्य और जीवन का प्रतिनिधि देवता माना जाता है। इसी तरह हाजिया ग्रीक में स्वास्थ्य व स्वच्छता की देवी कहलाती है। उनका नाम स्वच्छता शब्द से जुड़ा हुआ है। वे ग्रीक के औषधि विज्ञान के देवता एसक्लिपस से संबंधित है। वे ओलम्पियन ईश्वर अपोलो के पुत्र हैं। पैनेशिया सार्वभौमिक निदान की देवी कही जाती है। यह एसक्लिपस की पुत्री हैं। पेनीशिया और उसकी चार बहनों ने अपोलो द्वारा प्रतिपादित पहलुओं पर कार्य किया है। एसक्लिपस ग्रीक में औषधि के देवता बताये गये हैं। वे अपोलो के पुत्र थे। यह औषधि, उपचार, कायाकल्प एवं चिकित्सा के बड़े देवता हैं। नेशनल मेडिकल कमीशन ने इस शपथ की जगह चरक संहिता से उद्धृत शपथ का प्रारूप जारी किया है। इसी शपथ में कहा गया है कि मैं अपने लिए और न ही अपनी भौतिक उपलब्धि के लिए या अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए उपचार नहीं करूँगा। मैं समस्त पीड़ित मानवता के शुभ स्वास्थ्य के लिए काम करूँगा।’’ औषधि विज्ञान का मूल उद्देश्य केवल रोगी की चिकित्सा करना नहीं है उसे मनुष्यों को स्वस्थ रहने का मार्गदर्शन भी करना चाहिए।

चरक संहिता में स्वस्थ रहने के नियमों का उल्लेख है। चरक ने आदर्श चिकित्सक के लिए कहा है कि, ‘‘उसे विद्या आदि सभी सद्गुणों से युक्त होना चाहिए।’’ चरक ने धन लोभ को निन्दनीय बताया है, लिखा है, ’’सर्प का विष खाकर प्राण गवाना या उबले हुए ताम्र पात्र का जल पीकर शरीर नष्ट कर देना या अग्नि में तपाये हुए लोहे के गोले खा लेना अच्छा है लेकिन शरण में आये हुए पीड़ित रोगियों से धन लेना अच्छा नहीं है’’  वैदिक पूर्वज 100 वर्ष का स्वस्थ जीवन चाहते थे। उन्होंने मनुष्य और प्रकृति का गहन अध्ययन किया। आयुर्विज्ञान गढ़ा। अथर्ववेद में आयुर्विज्ञान के तमाम सूत्र व औषधियों का वर्णन हैं। भारतीय चिन्तन में वैज्ञानिक भौतिकवाद की अनेक धाराएँ थीं। लेकिन विदेशी विद्वानों ने भारतीय चिन्तन को भाववादी बताया। प्राक् भारतीय विज्ञान की उपेक्षा हुई। निःसन्देह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने उल्लेखनीय प्रगति की है। लेकिन पीछे 20-25 वर्ष से दोनों के अनुभवी विद्वानों में आयुर्वेद का प्रभाव बढ़ा है। आधुनिक चिकित्सा महँगी है। प्राचीन काल में प्रदूषणजनित रोग नहीं थे। फिर रोग बढ़े। चरक संहिताके अनुसार सैकड़ों बरस पहले रोग बढ़े। ऋषियों ने हिमालय के सुन्दर स्थान में सभा बुलाई। रोगों की वृद्धि पर विमर्श हुआ। तय हुआ कि भरद्वाज इन्द्र से रोग दूर करने की जानकारी करें। इन्द्र ज्ञात इतिहास के पात्र नहीं हैं। वे प्रकृति की शक्ति हैं। अर्थ यह हुआ कि भरद्वाज तमाम विद्वानों से ज्ञान लेकर सभा को बतायें। भरद्वाज ने आयुर्वेद का ज्ञान आत्रेय को बताया और आत्रेय ने अग्निवेश को। इसी संवाद का मूल चरक संहिता है।

 

स्वस्थ शरीर से ही जीवन के सभी सुखों की पूर्ति है। वैदिक ऋषियों के लिए यह संसार असार नहीं है। यह कर्मक्षेत्र, तपक्षेत्र व धर्मक्षेत्र है। इनमें सक्रियता के लिए स्वस्थ शरीर और दीर्घजीवन अपरिहार्य है। जन्म से लेकर मृत्यु तक का समय आयु हैं। आयु का सम्यक् बोध जीवन यात्रा में उपयोगी है। चरक संहिता में आयुर्वेद की परिभाषा है ’’जो स्वस्थ आयु का ज्ञान कराता है, वह आयुर्वेद है। आयुर्वेद आयु का वेद है। आयुर्वेद आयु का उपदेश करता है। यह सुखकारी-असुखकारी पदार्थों का वर्णन करता है। हितकारी और अहितकारी पदार्थों का उपदेशक है। आयुवर्द्धक और आयुनाशक द्रव्यों के गुणधर्म का वर्णन करता है।’’ (चरक संहिता, सूत्र स्थान, 30.23) यहाँ आयुर्वेद का लक्ष्य भी बताते हैं, ’’स्वस्थ्य प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा और रोगी के रोग की शान्ति आयुर्वेद का उद्देश्य है।’’

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में दीर्घ आयु और स्वस्थ जीवन विधायी मूल्य नहीं हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान का जोर स्वस्थ जीवन और दीर्घ आयु पर है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की गति रोगरहित जीवन तक सीमित है। रोगरहित जीवन और स्वास्थ्य में आधारभूत अन्तर है। रोगी काया में जीवन वीणा में संगीत नहीं उगता। स्वास्थ्य परम भौतिक आधार है। यही अध्यात्म और आत्मदर्शन का उपकरण है। पूर्वजों ने स्वस्थ दीर्घायु के इस विज्ञान को आयुर्वेद कहा था। प्राचीन आयुर्विज्ञान एक जीवनशैली है। चरक संहिता की शुरूआत स्वस्थ जीवन के सूत्रों से होती है। कहते हैं कि ’’यहाँ बताये स्वस्थवृत का पालन करने वाले 100 वर्ष की स्वस्थ आयु पाते हैं।’’ प्रकृति और मन की अनुकूलता का नाम सुख है। इसके विपरीत दुख। चरक संहिता में इसकी परिभाषा और भी सरल है, ’’आरोग्यावस्था सुख है, विकार अवस्था दुख। दुख का मूल कारण रोग हैं।’’ यहाँ कोई आध्यात्मिक या भाववादी दर्शन नहीं हैं। चरक संहिता में रोगों के तीन कारण बताये गये हैं-’’इन्द्रिय विषयों का अतियोग, अयोग और मिथ्या योग ही रोगों के कारण हैं।’’ आगे उदाहरण देते हैं, ’जैसे आँखों से तीव्र चमकने वाले पदार्थ देखना, सूर्य अग्नि आदि को अधिक देखना अतियोग है।’’ चरक संहिता में वैद्य की योग्यता के साथ संवेदनशीलता पर भी जोर है।

चरक संहिता में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्नि, देश, काल और मन के साथ आत्मा को भी द्रव्य बताया गया है। चरक का आत्मा द्रव्य गीता वाली अमर आत्मा से भिन्न है। रोग रहित होना अलग बात है और स्वस्थ होना बिल्कुल भिन्न आनन्द। चरक ने बताया है कि स्वस्थ होना सुख है और रोगी होना दुख। आयुर्वेद में वात, पित्त और कफ तीन दोष हैं। सत्व, रज और तम तीन गुण हैं। गुणों का प्रभाव मन पर पड़ता है और दोषों का प्रभाव तन पर। रोगी मन शरीर को भी रोगी बनाता है और रोगी तन मन को। धन्वन्तरि, चरक, सुश्रुत, सहित तमाम पूर्वजों ने आयु के विज्ञान का विकास किया था। वात, पित्त और कफ की धरणा अरब देशों तक गयी थी। वनस्पतियाँ और औषधियाँ उपास्य थीं। उपचारप्रथमा नहीं होता। आचार प्रथमा है, आचारहीन को ही उप-चारकी जरूरत पड़ती है।

सुख सबकी कामना है। चरक संहिता में सुख और दुख की विशेष परिभाषा की गयी है। चरक के अनुसार, ’’स्वस्थ होना सुख है और रूग्ण (विकार ग्रस्त) होना दुख है।’’ सुखी रहने के लिए उत्तम स्वास्थ्य जरूरी है। चरक संहिता में सुखी जीवन के लिए स्वास्थ्य को आवश्यक बताया है। स्वस्थ जीवन के तमाम स्वर्ण सूत्र चरक संहिता के पहले उपनिषदों में भी कहे गये थे। छान्दोग्य उपनिषद् में अन्न पचने और रक्त अस्थि तक बनने के विवरण हैं। महाभारत (शान्ति पर्व )में भी शरीर की आन्तरिक गतिविधि का वर्णन है। चरक संहिता में स्वास्थ्य के लिए कठोर अनुशासन को जरूरी कहा गया है। बताते हैं, ’’अपना कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को अपनी स्मरण शक्ति बनाये रखते हुए सद्व्रतों का पालन करना चाहिए।’’ सद्व्रत आयुर्विज्ञान का आचार शास्त्र है।

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