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देवभूमि का सियासी अतीत: किसी भी मुख्यमंत्री की नहीं हुई वापसी; साल 2012, 2014, 2017 और 2019 में जनता ने ऐसे डाला वोट

नई दिल्ली। यूं तो आगामी 10 फरवरी से उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, लेकिन जिस तरह की रोचक राजनीतिक स्थिति आगामी चुनाव में देवभूमि उत्तराखंड में देखने को मिल रही है, वैसी और किसी भी चुनावी सूबों में देखने को नहीं मिल पा रही है। उत्तराखंड की रोचक सियासी स्थिति ने सूबे के सियासी पंडितों की आतुरता को अपने शबाब पर पहुंचा दिया है। वो ये जानने के लिए बेताब हैं कि क्या इस बार मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी के उम्मीदवार पुष्कर सिंह धामी देवभूमि के सियासी अतीत को पलट पाएंगे या दशकों से चली आ रही सियायी रवायत के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो जाएंगे। यह तो नतीजों के दिन ही स्पष्ट हो पाएगा। फिलहाल आम जनता को रिझाने की ध्येय से सूबे की गलियां सियासी सूरमाओं की आमद से गुलजार हो रही हैं। लोकलुभावने वादों की नौका पर सवार होकर सभी सत्ता के शिखर पर पहुंचने की जद्दोजहद में मसरूफ हो चुके हैं।

कांग्रेस हो या बीजेपी….बीजेपी हो या आम आदमी पार्टी…सब के सब जनता को रिझाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं…लेकिन अगर सूबे के अतीत के खंगालने पर पता लगता है कि बीजेपी के लिए आगे की सियासी राह थोड़ी पथरिली है। वो इसलिए…क्योंकि सूबे की सियासी अतीत इस बात की तस्दीक करती है कि आज तक प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई भी सियासी सूरमा दोबारा विराजमान नहीं हो पाया है। ऐसे में अब आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि आगामी चुनाव में पुष्कर सिंह धामी के लिए चुनौतियों का सैलाब अपने उफान पर है और इन पर बीजेपी की नौका पर सवार होकर अपनी मंजिल को प्राप्त करनी जिम्मेदारी है। लेकिन यह इकरार में भी कोई गुरेज नहीं है कि गाहे बगाहे ही सही लेकिन मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को अपने सूबे का सियासी अतीत व्यथित करता है।

वो इसलिए क्योंकि उत्तराखंड की स्थापना से लेकर अब तक प्रदेश में कोई भी सियासी सूरमा दोबारा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने में सफल नहीं रहा। साल 2000….जब राज्य का गठन हुआ…तबसे लेकर अब तक प्रदेश में चार मर्तबा चुनावी बिगुल बज चुके हैं….लेकिन सूबे का इतिहास इस बात का गवाह है कि आज तक कोई भी दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। हमेशा से कांग्रेस और बीजेपी के बीच सत्ता का हस्तांतरण होता रहा है। साल 2012 का चुनाव था..जब कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिली थी। सिद्धहस्त सियासी सूरमाओं के लिए यह कहना मुश्किल हो रहा था कि किसकी सरकार बनेगी। लेकिन महज एक सीट ने पूरा सियासी समीकरण बदलकर रख दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस 32 सीटों के साथ सूबे में अपनी सरकार बनाने में कामयाब रही, जबकि बीजेपी को 31 सीटों के साथ विपक्षी की भूमिका निभाने पड़ गई।

वहीं, 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 70 सीटों में से 57 सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही थी। इस चुनाव में कुमाऊं और गढ़वाल सीट बीजेपी के लिए निर्णायक साबित हुई थी। इन दोनों सीटों से बीजेपी ने क्रमश: 34 और 23 सीटों पर जीत हासिल की थी। उधर, विगत लोकसभा चुनाव में बीजेपी 70 फीसद वोट हासिल करने में सफल रही थी।

कांग्रेस ने 30% वोट शेयर के साथ मामूली प्रदर्शन किया, जबकि अन्य पार्टियों का चुनावी मैदान से सफाया हो गया। अब तक के सियासी परिदृश्य से वाकिफ होने के बाद आप समझ ही गए होंगे कि सूबे का सियासी समीकरण कितना जटिल है।

 

अब ऐसे में सभी सियासी पंडितों की आतुरता का अपने शबाब पर पहुंचना लाजिमी है कि क्या पुष्कर सिंह धामी सूबे के सियासी अतीत को पलटते हुए मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन होने में सफल रहते हैं या प्रदेश की वर्षों से चली रही रवायत के आगे घुटने टेक देते हैं। यह तो फिलहाल आगामी 10 मार्च यानी की नतीजों के दिन ही परिलक्षित हो पाएगा।

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