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आज के समय में भारतीय ज्ञान परंपरा क्यों जरूरी है?

इसके लिए शोध अवसंरचना को भी उन्नत करना होगा। बहुभाषी शैक्षणिक सामग्री, पांडुलिपियों के डिजिटल संग्रह, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग अत्यंत आवश्यक हैं। भारतीय परंपराओं का अध्ययन उसी अकादमिक गहराई से होना चाहिए जैसे पश्चिमी सिद्धांतों का होता है—तथ्यों का अनुभवजन्य सत्यापन, विमर्श को प्रोत्साहन, और आवश्यकतानुसार व्याख्याओं में संशोधन सहित।

नई दिल्ली। भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है, चाहे वह हमारे वेद हों या फिर तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे विश्वविद्यालय, हमारे प्राचीन ग्रंथों और संस्थानों ने न केवल क्षेत्रीय बल्कि वैश्विक बौद्धिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार देने में अहम भूमिका निभाई है। और यही कारण है की दुनिया भर से विद्वान भारत की ओर आकर्षित होते रहे हैं।

यह प्राचीन संस्थान अपने शैक्षणिक योगदान के लिए तो प्रसिद्ध थे ही पर इनकी सबसे बड़ी विशेषता थी शिक्षा के प्रति इनका समग्र दृष्टिकोण। इन संस्थाओं में तकनीकी ज्ञान के साथ-साथ नैतिक मूल्य, चरित्र निर्माण, और व्यक्ति, समाज तथा प्रकृति के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंधों पर बल दिया जाता था। और यही कारण है कि सदियों पुराने स्वदेशी चिंतन पर आधारित भारतीय ज्ञान परंपरा (Indian Knowledge System – IKS) आज की चुनौतियों से निपटने के लिए एक प्रासंगिक ढांचा प्रस्तुत करती है।

भारतीय ज्ञान परंपरा की सबसे आकर्षक बात इसकी विषय-विविधता है। इसमें गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा, वास्तुकला, भाषा विज्ञान, दर्शन और शासन जैसे अनेक क्षेत्र सम्मिलित हैं। यह केवल तथ्यों का संग्रह नहीं, बल्कि एक ऐसी सोच है जो आपसी जुड़ाव, संतुलन और स्थायित्व को महत्व देती है। ऐसे समय में जब पर्यावरण संकट, तकनीकी विघटन और सामाजिक विखंडन चरम पर पहुँच गए हैं, इस दृष्टिकोण की उपयोगिता अत्यंत महत्वपूर्ण नजर आती है।

भारतीय ज्ञान परंपरा में इसी का उदाहरण है आयुर्वेद, जो आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। आयुर्वेद सिर्फ इलाज की बात नहीं करता, बल्कि स्वस्थ जीवन जीने की आदतें सिखाता है, और यही कारण है कि अब दुनिया भर में वैज्ञानिक आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा को मिलाकर नए मॉडल बना रहे हैं।

इसी प्रकार, भारतीय गणितीय परंपरा केवल शून्य या दशमलव प्रणाली तक सीमित नहीं है। इसमें तर्क और न्याय जैसी वैचारिक पद्धतियाँ शामिल हैं जो तर्क-वितर्क और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करती हैं। ये परंपराएं आज के STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) शिक्षा, और खासकर बचपन से विश्लेषणात्मक सोच को विकसित करने में विशेष योगदान दे सकती हैं ।

भारत के दर्शन और भाषा के क्षेत्र में भी बहुत कुछ सिखने लायक है। वेदांत, मीमांसा और व्याकरण जैसे विषयों में सोचने का ऐसा तरीका देते हैं, जिसमें भाषा, तर्क, तत्वमीमांसा और नैतिकता का सह-अस्तित्व देखने को मिलता है।

वहीं, भारतीय ज्ञान परंपरा में समाहित पर्यावरणीय नैतिकता आज के समाज के लिए अत्यंत उपयोगी सबक देती है। पृथ्वी को “भूमि देवी” के रूप में देखने की सोच, उपभोग नहीं बल्कि संरक्षण को बढ़ावा देती है। अर्थशास्त्र और वृक्षायुर्वेद जैसे ग्रंथ जल संरक्षण, सतत कृषि और समुदाय आधारित शासन के विषय में महत्वपूर्ण ज्ञान प्रदान करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन और संसाधन संकट की वर्तमान स्थिति में अत्यंत प्रासंगिक हैं।

भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनरुद्धार कोई भावनात्मक या अतीतगामी प्रयास नहीं होना चाहिए। यह सघन शोध, आलोचनात्मक विवेचना और समसामयिक वैश्विक संदर्भों में इसके योगदान को सिद्ध करने पर आधारित होना चाहिए। और इसी आवश्यकता को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने पहचाना है और मुख्यधारा के पाठ्यक्रमों में IKS को शामिल करने की सिफारिश की है।

इस सोच को साकार करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विश्वविद्यालयों की है। केवल वैकल्पिक पाठ्यक्रम या संगोष्ठियाँ आयोजित करना पर्याप्त नहीं होगा। इसके लिए ढांचागत प्रतिबद्धता की आवश्यकता है—जैसे IKS केंद्र, संकाय विकास कार्यक्रम, समीक्षित प्रकाशन, और आधुनिक वैज्ञानिक विषयों के साथ साझेदारी। इससे विद्यार्थी विविध ज्ञान परंपराओं को समझने और अपनी जड़ों से जुड़ी दृष्टि के साथ वैश्विक विमर्श में योगदान देने में सक्षम होंगे।

इसके लिए शोध अवसंरचना को भी उन्नत करना होगा। बहुभाषी शैक्षणिक सामग्री, पांडुलिपियों के डिजिटल संग्रह, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग अत्यंत आवश्यक हैं। भारतीय परंपराओं का अध्ययन उसी अकादमिक गहराई से होना चाहिए जैसे पश्चिमी सिद्धांतों का होता है—तथ्यों का अनुभवजन्य सत्यापन, विमर्श को प्रोत्साहन, और आवश्यकतानुसार व्याख्याओं में संशोधन सहित।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय ज्ञान परंपरा की महत्ता को केवल आधुनिक पश्चिमी मानकों से नहीं आँकना चाहिए। यह एक वैकल्पिक बौद्धिक दृष्टिकोण है जो स्वास्थ्य, समाज, प्रकृति और आत्मचिंतन के नए रास्ते दिखाता है। इस विचार बहुलता (pluralism) से न केवल वैश्विक ज्ञान में विविधता आती है, बल्कि भारत की बौद्धिक संप्रभुता भी मजबूत होती है।

भारतीय ज्ञान परंपरा कोई जड़ व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक जीवंत परंपरा है जो भविष्य को दिशा दे सकती है। इसकी प्रासंगिकता इसके सतत अभ्यास, अंतर्विषयी अध्ययन, नैतिक चिंतन और सांस्कृतिक आत्म-संवेदन से जुड़ी वैश्विक दृष्टि में निहित है, एक ऐसे युग में जहां तेजी, उपभोग और सतही ज्ञान को प्राथमिकता दी जा रही है, वहीं IKS हमें उद्देश्यपूर्ण सीखने का महत्व याद दिलाती है। इसका पुनरुद्धार और समकालीन शिक्षा में एकीकरण न केवल भारत की बौद्धिक विरासत को सम्मान देने का कार्य है, बल्कि एक संतुलित, समावेशी और चिंतनशील वैश्विक समाज के निर्माण की दिशा में एक आवश्यक कदम भी है।

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