भारत के एकदम दक्षिणी छोर अर्थात् तमिलनाडु राज्य में कन्याकुमारी नामक स्थान है; वहाँ तीन सागरों के पावन संगम स्थल पर समुद्र के भीतर स्थित एक विशाल शिलाखंड पर निर्मित ‘विवेकानंद शिला स्मारक’ आजकल सुर्ख़ियों में है । इसके पीछे कारण है भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण का प्रचार थमते ही गुरुवार यानी 30 मई, 2024 की शाम से 1 जून तक वहाँ के ‘ध्यान मंडपम’ में ध्यान-साधनारत रहने वाले हैं। इस पर राजनीति भी गरमाने लगी है और कांग्रेस निर्वाचन आयोग के पास शिकायत भी कर आया है ।
लेकिन, क्या आप जानते हैं कि विवेकानंद शिला स्मारक का निर्माण कैसे हुआ था? क्या आपको पता है कि इस स्मारक के निर्माण कार्य में आरएसएस की क्या भूमिका है? क्या आप जानते हैं यदि आरएसएस न होता तो विवेकानंद शिला स्मारक आज ईसाई मिशनरी जेवियर का मेमोरियल होता?
वास्तव में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण में आरएसएस ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। आरएसएस के स्वयंसेवकों ने इसके लिए कड़ा संघर्ष किया है और साथ समाज जागरण का कार्य भी किया है। कन्याकुमारी में स्थित यह स्मारक स्थानीय मछुआरों को उकसाने वाले ईसाई पादरियों के कड़े विरोध के बाबजूद बनाया गया था। संसाधनों के बिना यह कार्य करना बड़ा चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि तत्कालीन सरकारों को इस परियोजना में कोई रूचि नहीं थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी द्वारा संघ के वरिष्ठ प्रचारक और तत्कालीन सरकार्यवाह एकनाथ रानाडे को यह कार्य सौंपा गया और उन्हें इस कार्य को पूर्ण करने के लिए संघ कार्य से मुक्त कर दिया गया। यह राष्ट्र को गौरवान्वित करने वाली एक परियोजना थी। स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण में लगभग 6 साल का समय लगा । इसका निर्माण कार्य सन 1964 में शुरू हुआ और 1970 तक चला और 2 सितंबर, 1970 को इसका उद्घाटन हुआ।
संघ के स्वयंसेवकों द्वारा विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के लिए किये गये उद्यम को देश को आज जानना चाहिए । उन्होंने धन संग्रह के लिए कूपन के माध्यम से केवल ‘एक रुपये’ के दान की योजना क्रियान्वित की और इस कार्य में जनभागदारी का अनुपम अभियान शुरू किया। इसके लिए एकनाथ रानाडे ने देशभर में घूम-घूम कर प्रवास किया । स्मारक का निर्माण बड़े दान से नहीं अपितु सूक्ष्म योगदान से किया जाएगा ऐसा कृत संकल्प किया गया था। जब रानाडे जी से किसी ने कहा कि बहुत से लोग हजारों रुपए दान देना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि ये स्मारक तो एक अकेला धनी-दानी व्यक्ति भी बनवा सकता है, लेकिन, इसका उद्देश्य अधिकाधिक लोगों तक स्वामी विवेकानंद का सन्देश पहुँचाना है । इसलिए केवल एक रुपया ही पर्याप्त है। निर्माण कार्य का बजट लगभग डेढ़ करोड़ रूपये का था, जिसकी व्यवस्था धन संग्रह के इस संकल्प के माध्यम से ही होनी थी। संघ के स्वयंसेवकों ने किसी बड़े होर्डिंग और समाचार पत्रों में विज्ञापन के बिना घर-घर जाकर धन संग्रह करने का कार्य किया। एक साहसिक अभियांत्रिक कार्य होने के साथ-साथ इस परियोजना ने अनेक राजनैतिक बाधाओं का सामना भी किया। केरल की मार्क्सवादी सरकार के अलावा केंद्र और अन्य राज्य सरकारों ने सामान्य निधि में योगदान देकर शुष्क व्यवहार किया। यह संघ का वृहद जनसम्पर्क अभियान अथवा कार्यक्रम था जिसके माध्यम से स्वयंसेवकों द्वारा समाज के प्रत्येक स्तर के लोगों को इस राष्ट्रीय स्मारक के निर्माण कार्य में भागीदार बनाया गया और उन्हें सरल तरीके से स्वामी विवेकानंद के संदेश से अवगत कराया गया। संघ के स्वयंसेवक जहाँ समाज जागरण के साथ धन संग्रह में लगे हुए थे वहीं उन्होंने ईसाई मिशनरियों द्वारा उत्पन्न बाधाओं का सामना भी किया । सन 1963 में जब तमिलनाडु सरकार ने विवेकानंद शिला स्मारक समिति को ये जमीन सौंप दी तो उसके बाद वहाँ एक पट्टिका लगाई गई थी। लेकिन, ईसाई मिशनरियों ने उस पट्टिका को तोड़कर उसकी जगह कंक्रीट का एक विशाल क्रॉस खड़ा कर दिया और गोवा में हिन्दुओं पर नृशंस अत्याचार करने वाले पुर्तगाली पादरी जेवियर का स्मारक बनाने का प्रयास किया । ईसाईयों ने यह मिथक गढ़ने की साजिश रची कि पादरी जेवियर उस शिला पर गए थे । लेकिन, संघ के स्वयंसेवकों ने ईसाई मिशनरियों की यह साजिश पूरी नही होने दी । संघ के स्वयंसेवकों ने तैरकर समुद्र पार किया और उस क्रॉस को हटा दिया । माहौल खराब होता देख तत्कालीन सरकार को वहाँ धारा-144 लागू करनी पड़ी। सारी बाधाओं को पार करते हुए 2 सितंबर, 1970 को विवेकानंद शिला स्मारक का भव्य उद्घाटन हुआ जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे और अध्यक्षता तमिलनाडू के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने की थी। बाद में इंदिरा गांधी भी वहाँ गयीं ।
ये संघ प्रचारक एकनाथ रानाडे का ही पुरुषार्थ था कि विविध विचारधाराओं के बहुत से लोग इस कार्य से जुड़े। ध्यातब्य है कि यदि संघ के स्वयंसेवक और एकनाथ रानाडे अर्थात् आरएसएस नहीं होता तो आज कदाचित हम उस स्थान को ‘सेंट जेवियर रॉक मैमोरियल’ कह रहे होते। एक बात और गौर करने की है कि तमिलनाडु की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सहित भारत के तत्कालीन संस्कृति मंत्री हुमायूँ कबीर भी इस परियोजना के खिलाफ थे । उस समय हुमायूँ कबीर ने कहा था कि इस स्मारक के निर्माण से उस जगह की नैसर्गिक सुंदरता खत्म हो जाएगी। जब एकनाद रानाडे को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने हुमायूँ कबीर से भेंट करने के लिए समय माँगा लेकिन, उन्होंने समय नही दिया । इसके बाद एकनाथ रानाडे ने हुमायूँ कबीर की राजनैतिक भूमि बंगाल में मीडिया के माध्यम से शिला स्मारक निर्माण कार्य के हुमायूँ कबीर द्वारा रोड़ा अटकाने की बात सार्वजनिक कर दी, जिससे बंगाल में हुमायूँ कबीर की बहुत किरकिरी हुई। बंगाल में बने दबाब के कारण हुमायूँ कबीर ने एकनाथ रानाडे को भेंट के लिए आमंत्रित किया । भेंट में एकनाथ रानाडे ने शिला स्मारक निर्माण के लिए हुमायूँ कबीर की स्वीकृति प्राप्त की और उनसे मुख्यमंत्री को पत्र लिखवाया, तब जाकर ये कार्य संपन्न हुआ। एकनाथ रानाडे ने ही इस कार्य के समर्थन में लाल बहादुर शास्त्री को विश्वास में लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर दबाब बनाने के लिए कांग्रेस, लेफ्ट सहित अलग-अलग राजनितिक दलों के 323 सांसदों के हस्ताक्षर लिए थे। जब लेफ्ट पार्टी के बंगाली नेता ज्योति बसु सहयोग से मुकर गए तो एकनाथ रानाडे ने उनकी पत्नी से सहयोग ले लिया । एकनाथ रानाडे ने प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से भी स्मारक निर्माण के समर्थन में हस्ताक्षर लिए तो शेख अब्दुल्ला और हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवी लाल से मिलकर उनको भी कार्य से जोड़ा ।
एकनाथ रानाडे और संघ के स्वयंसेवकों के पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप ही आज हम भव्य विवेकानंद शिला स्मारक के दर्शन आज करते हैं । यह एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय स्मारक है और पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र भी है। इस स्मारक के परिसर में स्थापित विवेकानंद केंद्र, पूर्वोत्तर भारत पर विशेष ध्यान देते हुए सम्पूर्ण भारत में अपने स्वयं के राहत कार्य, विद्यालय और योग प्रशिक्षण केंद्र संचालित करता है। योग पर वैज्ञानिक अध्ययन और शोध इस केंद्र की एक और विशिष्टता है।