News Room Post

प्रो. कुसुमलता केडिया की पुस्तक चीन संबंधित वैचारिक युद्ध में हो सकती है ‘शक्तिशाली अस्त्र’

बिना अस्त्र-शस्त्रों के कोई भी युद्ध नहीं लड़ा जा सकता। और जहां तक वैचारिक युद्ध की बात आती है तो वैचारिक युद्ध में पुस्तकें आयुध होती हैं। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में यह बात अक्षरसः सत्य सिद्ध होती है। हर कोई अपने विचार को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगा हुआ है। इसलिए आये दिन अनेकों पुस्तकों, शोधपत्रों आदि का प्रकाशन हो रहा है, सम्मेलनों, संगोष्ठियों, वार्ताओं का आयोजन हो रहा है। इन वैचारिक आयुधों के भंडारों और निर्माणशालाओं में अनेकों प्रयोग चलते रहते हैं। ऐसा ही एक प्रयोग पिछले कुछ दशकों से भारत के ‘तथाकथित पडोसी देश चीन’ को लेकर भी किया जा रहा है। चीन को लेकर अनेकों झूठे तथ्य गढ़े गए हैं और भारत सहित विश्व के लगभग सभी देश उन कल्पित तथ्यों को सत्य मानकर चल रहे हैं। चीन को लेकर मेरी जानकारी भी वही है जो साधारण भारतीय की है। इसी कालक्रम में दैवयोग से अचानक एक पुस्तक मिली; जिसको पढ़ने के बाद चीन को लेकर मेरी सारी अवधारणा मिथक और खोखली सिद्ध हुई। बल्कि मैं यह कह सकता हूं कि मैं आश्चर्यचकित हूं और बार-बार ये प्रश्न मस्तिष्क में घूम रहे हैं कि क्या ऐसा भी है? क्या ऐसा भी हो सकता है?
पुस्तक का शीर्षक ही अपने आप में किसी परमाणु बम से कम नहीं है क्योंकि यह शीर्षक ही चीन को लेकर मिथकों को तोड़ने की शुरुआत कर देता है। चीन के परिप्रेक्ष्य और वैचारिक युद्ध में सबसे शक्तिशाली आयुध का काम करने वाली इस पुस्तक का शीर्षक है ‘कम्युनिस्ट चीन अवैध अस्तित्व’ और इस पुस्तक को लिखा है महान विदुषी प्रो. कुसुमलता केडियाजी ने। प्रो. कुसुमलता केडियाजी को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।

उनकी इस पुस्तक की समीक्षा लिखना मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है। 190 पृष्ठों की इस अद्भुत पुस्तक का प्रकाशन भारत के सुप्रसिद्ध प्रकाशक प्रभात प्रकाशन ने किया है। पुस्तक का लोकार्पण 5 जुलाई 2023 को पूज्य स्वामी रामदेव जी के करकमलों द्वारा पतंजलि योगपीठ हरिद्वार में हुआ। इस पुस्तक में चीन को लेकर पाठकों के ज्ञानचक्षुओं को आश्चर्यचकित रूप से खोलने वाले और अनेकों मिथकों को तोड़ने वाले 22 छोटे छोटे अध्याय हैं। किसी भी पुस्तक का प्राक्कथन अथवा आमुख पढ़ना बहुत महत्वपूर्ण होता है। बहुत से पाठक कई बार प्राक्कथन नहीं पढ़ते हैं। ऐसी गलती या महाभूल इस पुस्तक के साथ मत करियेगा; ऐसी विनम्र प्रार्थना पाठकों से है। इस पुस्तक का आमुख लिखा है सुप्रसिद्ध लेखक डॉ शैलेन्द्र कुमार जी ने। पुनः डॉ शैलेन्द्र कुमार जी को भी किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। पुस्तक का आमुख चीन को लेकर चलने वाले वैचारिक युद्ध में ठीक वैसा ही पराक्रम है जैसा कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीम ने कौरव सेना का विध्वंस करके दिखाया था। इसका उदाहरण आमुख से उद्धृत किया जा सकता है। डॉ शैलेन्द्र कुमार लिखते हैं. “चीन का ‘चीन’ नाम भारत का दिया हुआ है। चीन तो स्वयं को ‘झुआंगहुआ’ कहता है। महाभारत काल में चीन, भारत के सैकड़ों जनपदों में से एक था। चीन के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अपने इतिहास के अधिकांश में चीन बाहरी शक्तियों के अधीन रहा है। रोचक तथ्य यह है कि यह चीन न होकर, कम्युनिस्ट चीन है। चीन शताब्दियों तक भरतवंशी सम्राटों की अधीनता में रहा है। सन् 1954 तक चीन में उसके प्राचीन इतिहास का कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। भारत, जापान, अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया का रणनैतिक नैकट्यस चीन के कम्युनिस्ट शासन के लिए आसन्न संकट है। अतः इस स्थिति में भारत के प्रबुद्धजन को चीन के विषय में अधिक-से-अधिक जानना चाहिए।”

पुस्तक के आमुख में पाठकों को ऐसी बहुत सी रोचक और चौंकाने वाली जानकारियां मिलेंगी। यह आमुख इस बात का प्रमाण है कि पाठक एक बार में ही पूरी पुस्तक पढ़े बिना इस पुस्तक को नहीं छोड़ेगा। पुस्तक का प्रथम अध्याय ‘चीन के विषय में आधारभूत तथ्य तो जाने’ चीन को लेकर सारे ऐतिहासिक मिथकों को मानचित्र सहित एक ही बार में तोड़ देता है। उदाहरण स्वरुप ‘चीन स्व यं को झुआंगहुआ कहता है, परंतु झुआंगहुआ का चीन नाम केवल भारत में ही प्रयुक्त होता था। महाभारत में चीन को उत्तरापथ का एक जनपद और भारत राष्ट्र का एक राज्य कहा गया है। यूरोप के लोगों ने इसे भारत के ही अनुसरण में विगत 200 वर्षों में पहली बार चाइना या चीन कहना शुरू किया है।”प्राचीन चीन सनातन धर्म का अनुयायी था और इसीलिए यहाँ परमसत्ता का बोध भी था और विविध देवी-देवताओं की उपासना का ज्ञान भी था। सनातन धर्म के पूजा अनुष्ठानों का विराट वैविध्य यहाँ भी था। राजा धर्म का संरक्षक होता था और इसीलिए उसे विष्णु का अवतार माना जाता था। ऐसी ही परंपरा भारत में रही है।” सम्राट अशोक का शासन काशगर (उत्तर का काशी), खोतान (कुस्तन) और तारिम घाटी तक था। इसके अभिलेखीय साक्ष्य हैं। सम्राट कनिष्क का शासन तो इस संपूर्ण क्षेत्र के साथ ही शिनजियांग तथा यारकंद तक था। इस प्रकार अशोक के समय चीन का कोई अलग राज्य के रूप में उल्लेख नहीं मिलता। कनिष्क के भी किसी अभिलेख में चीन का अलग राज्य के रूप में कोई उल्लेख नहीं मिलता।’ इस प्रकार चीन के इतिहास की सारी बातें 20वीं शताब्दी में की पुरातात्विक खुदाइयों पर आधारित परिकल्पनाएं हैं। महाभारत या पुराणों जैसी कोई भी प्राचीन इतिहास रचना (ग्रंथ या महाकाव्य) संपूर्ण चीन में आज तक प्राप्त नहीं हुई है। इस विषय में और अधिक स्पष्टता के लिए चीन–अमेरिकी-यूरोपीय संबंधों की जटिलता को समझना आवश्यक है। तभी नए रचे गए चीनी इतिहास का तथ्य स्पष्ट हो सकेगा।’

स्थापित परिपाटी के अनुसार किसी भी पुस्तक की समीक्षा में पुस्तक की विषयवस्तु के उद्धरण अधिक नहीं दिए जाते हैं लेकिन मैं स्थापित परिपाटी के हटकर अधिक उद्धरण दे रहा हूँ ताकि पाठक इस पुस्तक का महत्व समझ सकें। पुस्तक का शीर्षक और प्रथम अध्याय ही काफी है कम्युनिस्ट चीन और उसके समर्थकों की पोल खोलने के लिए। पुस्तक का दूसरा अध्याय चीन को लेकर झूठा इतिहास रचने वाले पादरी सैमुअल बील और जोसफ नीडम की चीन में भूमिका को लेकर है। पुस्तक के अनुसार सैमुअल बील तथा उनके सहयोगियों की चीनी समाज को विद्रोह की आग में जलाने तथा चीन और भारत के बीच दार्शनिक भेदभाव का प्रचार करने और चीन में इंग्लैंड का तथा ईसाई मिशनरियों का बेरोकटोक प्रभाव फैलाने में निर्णायक भूमिका रही। वहीं चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका ने द्वितीय महायुद्ध में साथ देने के पुरस्कारस्वरूप जो विशाल क्षेत्र सौंप दिए, जो कभी भी चीन का अंग नहीं थे, उन सबको सदा से चीनी क्षेत्रबताने का काम, बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के, जोसफ नीडम ने किया और उसके बाद से एंगस मेडिसन जैसे अर्थशास्त्री भी प्राचीन चीन की अर्थव्यवस्थाकी अनुमानित गणना करते हुए उतने विशाल क्षेत्र के अनुमानित आँकड़ों को चीन के खाते में डालते जा रहे हैं, ताकि चीनी अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्थासे थोड़ी बड़ी दिखे। इस छल का प्रारंभ पादरी जोसफ नीडम ने ही किया था।

यह पुस्तक निम्न लिंक से प्राप्त की जा सकती है 

पुस्तक के तीसरे और चौथे अध्यायों में फाहयान और शुंग युन की चीन की यात्रा और हुएन सांग के यात्रा विवरणों में चीन और भारत की स्थिति का विस्तृत वर्णन है। इन दोनों अध्यायों में पाठकों को ऐसी चौंकाने वाली जानकरी मिलेगी जो मेरे जैसे साधारण पाठक के लिए अकल्पनीय है।पुस्तक का पांचवां अध्याय अपने भीतर किस प्रकार की विस्फोटक सामग्री समेटकर रखा हुआ है इसका अंदाजा पाठक इस अध्याय की शुरूआत से लगा सकते हैं। “इस प्रकार, बाहरी विश्व में ‘चीन’ के नाम से प्रसिद्ध वर्तमान क्षेत्र, जिस पर 1949 से अर्थात् द्वितीय महायुद्ध के बाद, रूस, इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका की सहमति से और उनकी योजना के अनुसार कम्युनिस्टों का कब्जा है, लगातार अलग-अलग रूप या आकार और अलग-अलग सीमाओं तथा अलग-अलग नाम से जाना जाता रहा है। वस्तुतः आज भी वह स्वयं को ‘चीन’ नहीं कहता और 20वीं शताब्दी से पहले यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के लोग भी उसे ‘चीन’ नहीं कहते थे। (इस इलाके को ‘चीन’ नाम केवल भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से दिया जाता रहा है और महाभारत काल में उसे भारतवर्ष का ही एक जनपद कहा जाता रहा है । अपनी दिग्विजय यात्रा में अर्जुन चीन और उत्तर कुरु तक गए थे।”

पुस्तक का छठा अध्याय चीन की तारिम घाटी में मिली रहस्मयी ममियों और उनके भारतीय मूल के होने के आधार के बारे में हैं। यह अध्याय बहुत ही रोचक है। सातवें अध्याय में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को रूस और अमेरिका दोनों ने क्यों बढ़ाया? इस प्रश्न का उत्तर मिलेगा। साथ ही जब जापान ने चीन पर हमला किया था तब जापान के विरोध में इंग्लैंड-अमेरिका ने चीन को क्यों मदद की थी; यह चौंकाने वाली ऐतिहासिक जानकारी भी मिलेगी। पुस्तक का आठवां अध्याय चीन-अमेरिकी-यूरोपीय संबंधों की जटिलता पर प्रकाश डालता है। आधुनिक चीन के विषय में प्रचारित बातों की सच्चाई जानने के लिए चीन-अमेरिकी-यूरोपीय संबंधों को जानना आवश्यक है, क्योंकि 16वीं शताब्दी से पहले कभी भी यूरोप के लोगों ने झुआंगहुआ को चीन नहीं कहा। एक प्रोपगैंडा बहुत चलता है कि चीन बहुत विशाल और महान देश है। इसी दुष्प्रचार को ध्वस्त करता है पुस्तक का नौवां अध्याय ‘चीन की महानता का राग कब और क्यों शुरू हुआ?’इसी अध्याय में पाठक को ‘ड्रैगन’ के बारे में एक बहुत ही अधिक चौंकाने वाली जानकारी मिलेगी। इस अध्याय में पाठक जानेगा कि चीन का प्रतीक ‘ड्रैगन’ वास्तव में भारत का मंगल चिन्ह अथवा शुभंकर चिन्ह ‘कीर्तिमुख’ है।

आए दिन चीन के विस्तारवाद की बहुत चर्चा होती रहती है। दसवें अध्याय में चीन के विस्तारवाद की हवा निकाली गयी हैं और प्रश्न पूछा गया है कि ‘विस्तारवाद चीन का या कम्युनिस्ट पार्टी का?’इसी अध्याय में इस प्रश्न का विस्तृत उत्तर भी दिया गया है। इस अध्याय में चीन के विस्तारवाद की सारी पोल खोल दी गयी है।
ग्यारहवें अध्याय में बताया गया है कि चीन ईसाईयत के कब्जे में कैसे आया और वहाँ ईसाइयत के विस्तार के बाद ही कम्युनिस्टों को सफलता मिली। अगले तीन अध्याय अर्थात अध्याय 12.13 और 14 एक तीन भागों की श्रृंखला है जिसका शीर्षक है ‘किसने बनाया चीन को भारत का पड़ोसी’। यह श्रृंखला इस पुस्तक की आत्मा है। ऐसा लिखने में कोई समस्या नहीं है। इस श्रृंखला को पाठक जब स्वयं पड़ेगा तो मेरे शब्दों का महत्व स्वयं समझ पायेगा। नेहरू जैसे कम्युनिस्टों की साजिशों और भयंकर भूलों को पाठक इस श्रृंखला से समझ पाएंगे। पुस्तक का पन्द्रहवां अध्याय वैश्विक परिदृश्य और भारतीय सीमा पर चीन के कूटनीतिक कुचक्र की पोल खोलता है। साथ ही यह संकेत भी किया गया है कि चीन की सच्चाई जानने पर ही कूटनीतिक विजय प्राप्त की जा सकती है। यह अध्याय भारत को चीन संबंधी अपनी कूटनीति संबंधी योजनाएं बनाने के लिए ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध कराता है।

चीन संबंधी वैचारिक युद्ध में यह पुस्तक सबसे बड़ा चौकाने वाला खुलासा करती है या यूँ कहें तो भारत के हाथ में एक बहुत ही शक्तिशाली आयुध सौंपती है। वह आयुध है ‘हमारी लड़ाई चीन से नहीं बल्कि कम्युनिस्ट साम्राज्य से है’। जब मैंने ये अध्याय पढ़ा तो चीन और कम्युनिस्ट चीन का अंतर स्पष्ट हो गया। पुस्तक के अगले अध्यायों में बहुत ही महत्वपूर्ण, तथ्यपरक और ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ बहुत सी जानकारियां प्रस्तुत की गयीं है जैसे कम्युनिस्टों को चीन से कोई प्रेम नहीं है, चीन को भारत का पड़ोसी राज्य बनाने में नेहरू की भूमिका, भारतीय देवी-देवताओं की पूजा का क्षेत्र रहा है चीन, भारत के वणिक-पथ को सिल्क रोड बताने के पीछे की साजिश, कभी भी हमारा पड़ोसी नहीं रहा है चीन, चीनी समाज हमारा मित्र है, माओ द्वारा सैकड़ों फूलों को साथ-साथ खिलने दो की घोषणा शातिराना थी; जिसके तहत सैंकड़ों फूल एक साथ इसलिए खिलने दिए गए ताकि उन्हें एक साथ बिना जा सके और मसला जा सके। वहीं चीन की कथित सांस्कृतिक क्रांति वास्तव में चीनी संस्कृति का संपूर्ण विनाश करने का कुत्सित खेल था।

वर्तमान कम्युनिस्ट चीन के नेताओं से छिप-छिपकर मिलने वाले कांग्रेस के अराजक नेता राहुल गांधी आये दिन यह बकवास करते रहते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं है बल्कि यह एक यूनियन ऑफ़ स्टेट है। अपने नाना नेहरू की तरह कम्युनिस्ट चीन के समर्थक राहुल गांधी और उनके अनुचरों के लिए इस पुस्तक में एक उपशीर्षक है ‘छह नेशन स्टेट्स का साझा रूप है वर्तमान चीन’ जो साधारण पाठकों की आंखे खोलने और राहुल जैसों के झूठ का पर्दाफाश करने के लिए एक महत्वपूर्ण अस्त्र है। यह पुस्तक पाठक को यह भी बताएगी कि कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद से तिब्बतियों, मंगोलों, मांचुओं, तुर्कों और हानों की मुक्ति क्यों आवश्यक है और कम्युनिस्ट उपनिवेशवाद से चीन की मुक्ति में भारत की क्या भूमिका हैं। और इस भूमिका में भारतीय नागरिकों के लिए करने योग्य काम का एक संकेत भी करती है। “भारत के नागरिक अपनी राष्ट्रभक्त सरकार को सहयोग देते हुए इन चीनी सामानों का बहिष्कार करें और कम्युनिस्ट चीन के विस्तारवाद की कांग्रेस के द्वारा की गई सहायता की निशानियों को मिटा दें, जिससे कि कम्युनिस्ट विस्तारवाद को आर्थिक बल नहीं प्राप्त हो। शेष काम तो सेना और शासन करेगा ही।”

पुस्तक की समीक्षा पाठकों के समक्ष पुस्तक का महत्व प्रस्तुत करने का गिलहरी प्रयास है। यह पुस्तक प्राचीन चीन और वर्तमान कम्युनिस्ट चीन के अंतर को बहुत स्पष्ट और तथ्यों तथा प्रमाणों सहित प्रस्तुत करती है। कम्युनिष्ट चीन को लेकर प्रचलित दुष्प्रचारों की हवा भी निकालती है। यह पुस्तक चीन को लेकर होने वाले शोधों को एक नई दिशा और संदर्भ देने का सामर्थ्य रखती है। यह पुस्तक वर्तमान चीन को लेकर भारत के विचार प्रवाह को सकारात्मक ढंग से प्रभावित करेगी। वर्तमान भारत सरकार को इस पुस्तक को संज्ञान में लेकर वर्तमान चीन को लेकर नीति निर्माण करने वाले विद्वानों को देना चाहिए और चीन संबंधी नीति निर्माताओं और निर्धारकों को इस पुस्तक के अनुसार विचार करके नीति निर्धारण करने के बारे में विचार करना चाहिए। यह पुस्तक सभी देश भक्तों को पढ़ना चाहिए। यह पुस्तक सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में पहुंचे ऐसी आशा। इसके लिए प्रचार की महती भूमिका होने वाली है। इसलिए हर देशभक्त भारतीय जो यह समीक्षा पढ़कर पुस्तक पढ़ेगा उनसे आग्रह कि अपने अपने स्तर पर इस महान पुस्तक का प्रचार और आबंटन करे।
अंत में पुस्तक के बारे में पुस्तक के पृष्ठभाग में जो लिखा गया है वह प्रस्तुत करते हुए यह समीक्षा पूर्ण करता हूं,”आज के विशाल चीन का निर्माण तत्कालीन सोवियत संघ, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका आदि के अनुग्रह, हस्तक्षेप और प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग से ही संभव हुआ है। अन्यथा पुराने चीन को कभी भी बाहरी शक्तियों से ऐसी व्यापक एवं प्रभावकारी सहायता नहीं मिलती। इसलिए यह चीन न होकर, विस्तारवादी और उपनिवेशवादी कम्युनिस्ट चीन है और इस प्रकार यह नैसर्गिक राष्ट्र न होकर कृत्रिम देश है। कम्युनिस्ट चीन के आततायी और दमनकारी साम्राज्यवाद से तिब्बतियों, मंगोलों, मांचुओं, तुर्कों और हानों की मुक्ति आवश्यक है और इसमें भारत की महती भूमिका हो सकती है। यह वैसे भी भारत का कर्तव्य है कि सदा से हमारे अभिन्न तथा आत्मीय रहे तिब्बत पर चीन का बलात् कब्जा कराने में मुख्य भूमिका भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री की ही रही। उन्होंने ही इतिहास में पहली बार चीन को भारत का पड़ोसी बनाया। अत: इस भयंकर भूल को सुधारना भारत का नैतिक दायित्व है। इन सभी दृष्टियों से यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण पथ-प्रदर्शक तथा अवश्य पठनीय है।”

Exit mobile version