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सावरकर: गलतफहमियों का शिकार समाज सुधारक

धनंजय कीर नाम से विख्यात पद्मभूषण अनंत विठ्ठल ने डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, राज ऋषि साहू जी महाराज और वीर सावरकर जैसे कई नेताओं की जीवनी लिखी है। कीर ने एक समाज सुधारक और सामाजिक क्रांतिकारी के बीच अंतर को रेखांकित किया है। अंबेडकर के बारे में लिखते हुए कीर कहते हैं कि समाज सुधारक वही पुनर्जीवित करता है जो पहले से मौजूद हो जबकि एक क्रांतिकारी पुराने को ध्वस्त कर नवनिर्माण करता है।

डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर की ही तरह सावरकर न केवल एक समाज सुधारक थे, बल्कि वे एक सक्रिय सामाजिक क्रांतिकारी थे। कई दशकों से चल रहे दुष्प्रचारों और उनके व्यक्तित्व के आसपास फैली गलतफहमियों की वजह से वे लोगों के बीच आम तौर पर अज्ञात हैं, लेकिन समाज सुधारक और सामाजिक क्रांतिकारी को परिभाषित करता उद्धरण उन पर पूरी तरह से ठीक उतरता है। वर्ष 1900 में भारत की पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता का लक्ष्य निर्धारित करने वाले वह पहले राजनीतिज्ञ थे। इसी लक्ष्य को कांग्रेस ने 1929 में लाहौर अधिवेशन में स्वीकार किया था। सन् 1905 में अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाने की शुरुआत करने वाले वे पहले नेता थे और यही बात महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए भारत छोड़ो आंदोलन का आधार बनी।

राजीव तुली

उन्होंने उन बातों के ध्वंस के लिए अथक प्रयत्न किए जिन्हें वे “सप्त-बेड्या” (सात हथकड़ियां) या सात प्रतिबंधों के रूप में परिभाषित करते थे। ये वे सात बातें थीं जो तत्कालीन समाज को जाति के आधार पर विभाजित करती थीं। जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता को समाप्त करने के बारे में मार्गदर्शन करते हुए सावरकर कहते हैं, “सामाजिक क्रांति का लक्ष्य हासिल करने के लिए हमें सबसे पहले जन्म आधारित जाति व्यवस्था पर प्रहार करना होगा और विभिन्न जातियों के बीच के अंतरों को पाटना होगा (समग्र सावरकर वाङ्गमय – भाग 3 – पृष्ठ 641)। कार्य योजना के रूप में उन्होंने सुझाया कि ब्राह्मण परिवार में पैदा होने वाला व्यक्ति यदि मूर्ख हो तो उसे मूर्ख और शूद्र परिवार में पैदा होने वाले व्यक्ति यदि बुद्धिमान हो तो उसे बुद्धिमान कहा जाना चाहिए, चाहे उनके पिता या पूर्वज बुद्धिमान रहे हों या मूर्ख। बाद में यही बात समाज से अस्पृश्यता दूर करने का आधार बनी।

सन् 1929 में उन्होंने मलवां में “पूर्वास्पर्श्य परिषद” का गठन किया और अछूतों के लिए यज्ञोपवीत समारोह, वेद पाठ, सामुदायिक भोजन और मंदिर प्रवेश का आयोजन किया। वर्ष 1907 में भीकाजी कामा ने स्टुटगार्ट (जर्मनी) में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में सावरकर का डिजाइन किया हुआ तिरंगा फहराया था। उस ध्वज में हरे, पीले और लाल रंग इस्लाम, हिंदू और बौद्ध धर्मों का प्रतिनिधित्व करते थे। सावरकर के नाम से प्रचारित द्विराष्ट्र सिद्धांत वास्तव में सर सैयद अहमद खान के दिमाग की उपज थी जिसे उन्होंने जनवरी 1883 में पटना में पेश किया था।

वर्ष 1937 में एक पत्रकार ने सावरकर से पूछा कि वह और जिन्ना देश को बांटना क्यों चाहते हैं? उनका जवाब था “मैं और जिन्ना एक ही डाल के पंछी नहीं हैं। मैं सभी के लिए समान अधिकार माँग रहा हूँ, जबकि वह अधिक से अधिक अधिकार अपने लिए चाहते हैं।” वह महान कवि भी थे जिन्होंने लेखन सामग्री के अभाव में जो कुछ भी मिला उसी से जेल की दीवारों पर कविताओं की 10,000 पंक्तियां लिख डाली थीं और उन्हें अपने साथी कैदियों को याद करा दिया था ताकि उन्हें बाद में प्रकाशित कराया जा सके। टेलीविजन के लिए दूरदर्शन, रेडियो के लिए आकाशवाणी, मेयर के लिए महापौर, नगरपालिका कार्पोरेटर के लिए पार्षद जैसे अधिकांश शब्द भी सावरकर द्वारा गढ़े गए थे। वैज्ञानिक स्वभाव के बारे में सावरकर के विचारों को देश के संविधान में भी स्वीकार किया गया है।

अपने निबंध ‘पुरातन कि अद्यतन’ (मोटे तौर पर पारंपरिक या आधुनिक) में उन्होंने वैज्ञानिक स्वभाव का विश्लेषण किया है। वैज्ञानिक स्वभाव आधुनिक और व्यावहारिक विचार प्रक्रिया है। हमारे आज को बीते हुए कल के धार्मिक आख्यानों से निर्धारित नहीं होना चाहिए और हमारे आने वाले कल को तो निश्चित रूप से अतीत के आख्यानों से निर्देशित नहीं होना चाहिए। इसे ही हम आधुनिकता कहते हैं। वैज्ञानिक आविष्कार, औद्योगिकीकरण आदि वैज्ञानिक स्वभाव नहीं है – बल्कि किसी व्यक्ति द्वारा अपने विश्लेषण के सहारे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रक्रिया वैज्ञानिक स्वभाव है। जिज्ञासु मन और सूक्ष्म विवरणों के प्रति सजग दृष्टि के साथ हासिल की गई अपनी समझ के आधार पर किसी बात का विश्लेषण करना और फिर खुले दिमाग के साथ उस निष्कर्ष को स्वीकार करना ही वैज्ञानिक स्वभाव है। सावरकर की मान्यता थी कि राष्ट्रीय दर्शन की नींव ‘वैज्ञानिक स्वभाव’ पर आधारित होनी चाहिए, तभी भारत एक मजबूत, आधुनिक और विकसित राष्ट्र के रूप में उभरेगा। उनका यह भी दृढ़ विश्वास था कि वैज्ञानिक स्वभाव न केवल राष्ट्र-निर्माण के लिए बल्कि मानव कल्याण के लिए भी आवश्यक है और इसीलिए सामाजिक परिवर्तन के उनके निर्देशक सिद्धांत ‘मानवतावाद’ और ‘वैज्ञानिक स्वभाव’ पर आधारित थे।

अनुच्छेद 51 ए के माध्यम से भारतीय संविधान ने वैज्ञानिक स्वभाव’, ‘मानवतावाद’, ‘जांच-परख की प्रवृत्ति’ और ‘सुधार’ को अपने नागरिकों पर बाध्यकारी मौलिक कर्तव्यों के रूप में रेखांकित किया है। सावरकर के विचार गहरे चिंतन का परिणाम थे और इसी कारण उनकी राय थी कि कि राष्ट्र का निर्माण एक वैज्ञानिक आधार पर किया जाना चाहिए न कि किसी धार्मिक ग्रंथ के आधार पर।

(यह लेख राजीव तुली द्वारा लिखा गया है और ये उनके निजी विचार हैं।)

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