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लोकसभा स्पीकर के चुनाव में कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व का अहंकार चारों खाने चित्त हुआ

ओम बिरला फिर से लोकसभा स्पीकर बन गए हैं। किसी ने भी सदन में वोटिंग कराने की मांग नहीं की। स्पष्ट है राहुल गांधी के सुरेश को सिर्फ एक मोहरे की तरह इस्तेमाल करना चाहते थे।

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लोकसभा स्पीकर के चुनाव कराने को लेकर और उसमें मिली हार से स्पष्ट है कि राहुल गांधी अपने पहले ही टेस्ट में फेल हो गए हैं। यह कांग्रेस का सिर्फ अहंकार ही था कि उसने इस तरह की मांग की थी। सदन में अभी परंपरा यही रही है की जिसकी सरकार होती है लोकसभा स्पीकर भी उसी का होता है, लेकिन कांग्रेस उसके साथी दलों के दम पर फिर भी लोकसभा स्पीकर का चुनाव कराने की खोखली भभकी दी थी, हालांकि सदन में केवल ‘वॉयस वोटिंग’ हुई और कांग्रेस को अपनी स्थिति पता चल गई।

कांग्रेस लोकसभा स्पीकर के लिए चुनाव कराने का दावा कर रही थी। कांग्रेस को लग रहा था कि वह आसानी से 272 का आंकड़ा सदन में छू लेगी, जो पार्टी खुद चुनाव में अपने बूते दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई उसका यह दंभ ही हैं कि वह ऐसा सोच रही थी। लोकसभा स्पीकर के लिए केवल ‘ वॉयस वोटिंग’ हुई, यदि लोकसभा स्पीकर के लिए वास्तव में वोटिंग होती तो कांग्रेस को 200 से भी नीचे वोट मिलते।

कांग्रेस ने लोकसभा स्पीकर के चुनाव के लिए केरल के सांसद कोडिकुन्नील सुरेश का नाम आगे किया था। दलित होने के नाम पर के. सुरेश की वकालत कांग्रेस कर रही थी, लेकिन यदि कांग्रेस दलितों की इतनी ही हितैषी तो उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के लिए के. सुरेश या अन्य किसी दलित नेता का नाम क्यों नहीं आगे किया? क्यों राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष बना दिया गया? क्या उनसे वरिष्ठ कोई नेता वहां नहीं था? ऐसा इसलिए क्योंकि नेता प्रतिपक्ष कैबिनेट रैंक का होता है। सरकार के मंत्री को मिलने वाली सारी सुविधाएं भी उसको मिलती हैं। कई महत्वपूर्ण समितियों में नेता प्रतिपक्ष शामिल होता है। इसलिए राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है। जब मलाई खाने की और सत्ता की बात होती है तो कांग्रेस सबसे आगे होती है, लेकिन जब सहानुभूति बटोरनी हो तब वह जाति का, दलित होने का कार्ड खेलती है।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं। यदि कांग्रेस एससी और एसटी समुदाय की इतनी ही हितैषी होती तो उनके सामने अपना कैंडिडेट नहीं खड़ा करती, लेकिन कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव में ऐसा किया, अपना प्रत्याशी उतारा और वह भी सवर्ण प्रत्याशी। यहां भी कांग्रेस का अहंकार टूटा और एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनीं। दरअसल कांग्रेस की मंशा सिर्फ हंगामा खड़ा करने की ही रहती है, क्योंकि वह हर सूरत में सत्ता पाना चाहती है फिर चाहे उसके पास बहुमत हो या फिर न हो।

कांग्रेस कितनी दलित हितैषी है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए दलित समुदाय से आने वाले सीताराम केसरी को जबरन कांग्रेस कार्यालय से बाहर निकाल दिया गया था। उनके साथ कितना दुर्व्यवहार किया गया था यह सब जानते हैं। दलित और आदिवासी का हितैषी होने का दावा करना और उनके हित में काम करना दोनों बिल्कुल अलग—अलग हैं। तुष्टीकरण की राजनीति से कुछ सीटें तो जीतीं जा सकती हैं लेकिन बहुमत नहीं मिलता, यह कांग्रेस और उनके नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को मालूम होना चाहिए।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।

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