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Fact: न्यूयॉर्क टाइम्स ने जिसे बताया था विश्वस्तरीय, केजरीवाल के उसी शिक्षा मॉडल की RTI ने खोली पोल

दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने दावा किया था कि जिसे शिक्षा व्यवस्था देखनी और समझनी हो, वो दिल्ली आकर खुद देख सकता है। केजरीवाल ने तो ये दावा भी कर दिया था कि मनीष सिसोदिया दुनिया के सबसे बेहतर शिक्षा मंत्री हैं, लेकिन एक आरटीआई ने केजरीवाल और सिसोदिया के इन दावों की पोल खोलकर रख दी है।

kejriwal with nyt report

नई दिल्ली। पिछले दिनों अमेरिकी अखबार द न्यूयॉर्क टाइम्स ने दिल्ली के शिक्षा मॉडल को विश्वस्तरीय बताते हुए लेख छापा था। खलीज टाइम्स ने भी इस रिपोर्ट को साभार छापा था। इस लेख को लेकर विवाद भी हुआ था। बीजेपी ने लेख में दिए तथ्यों को पूरी तरह गलत बताया था। वहीं, दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने दावा किया था कि जिसे शिक्षा व्यवस्था देखनी और समझनी हो, वो दिल्ली आकर खुद देख सकता है। केजरीवाल ने तो ये दावा भी कर दिया था कि मनीष सिसोदिया दुनिया के सबसे बेहतर शिक्षा मंत्री हैं, लेकिन न्यूज चैनल ‘टाइम्स नाउ नवभारत’ के मुताबिक एक आरटीआई ने केजरीवाल और सिसोदिया के इन दावों की पोल खोलकर रख दी है।

इस आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक दिल्ली के सरकारी सीनियर सेकेंड्री यानी 11वीं और 12वीं क्लास वाले स्कूलों में से दो-तिहाई में साइंस पढ़ाई ही नहीं जाती। इस आरटीआई में दो सवाल पूछे गए थे। पहला कि दिल्ली के कितने सीनियर सेकेंड्री स्कूलों में साइंस पढ़ाई जाती है? दूसरा सवाल ये पूछा गया था कि दिल्ली में फरवरी 2015 यानी केजरीवाल सरकार के सत्ता में आने से लेकर मई 2022 तक कितने नए स्कूल खोले गए। इस आरटीआई का जो जवाब शिक्षा विभाग ने दिया है, उसमें केजरीवाल सरकार के शिक्षा मॉडल के दावों की कलई उतर गई है।

शिक्षा विभाग से आरटीआई के जवाब में बताया गया है कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों की संख्या 1047 है। इनमें से सीनियर सेकेंड्री यानी 11वीं और 12वीं की पढ़ाई 838 स्कूलों में होती है। इन 838 सीनियर सेकेंड्री स्कूलों में से भी महज 279 में ही साइंस विषय को पढ़ाया जाता है। जबकि, कॉमर्स की पढ़ाई दिल्ली सरकार के 674 सीनियर सेकेंड्री स्कूल में होती है। यानी अगर छात्र साइंस विषय के साथ 12वीं की परीक्षा देना चाहे, तो उसे महज 279 स्कूलों में से ही खुद के लिए स्कूल चुनना होगा। साफ है कि ऐसे छात्रों के पास विकल्प बहुत कम हैं।

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