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भाग्य बड़ा या कर्म: भगवान राम और गांधीजी के उदाहरण से समझें कर्म और भाग्य का सिद्धांत

भाग्य बड़ा या कर्म- इस बहस में किसी एक को बड़ा कहना अर्धसत्य होगा। भगवान से लेकर महापुरुषों और राजनीतिक हस्तियों के उदाहरणों से समझिये कि आखिर ज्योतिष का सच क्या है

भगवान श्रीराम जैसा अवतार हो या महात्मा गांधी जैसा महापुरुष भाग्य हर किसी के साथ चलता है। दोनों ने ही समाज और सत्ता के शीर्ष पर होने के बावजूद राजसत्ता के वैभव से दूर रहने के साथ एक योगी जैसा जीवन बिताया। हम भगवान राम की बात करेंगे। प्रख्यात ज्योतिष विद्वान श्री के.एन. राव ने अपनी पुस्तक योगीज, डेस्टिनी एंड द व्हील ऑफ टाइम में वाल्मीकि रामायण के एक उदाहरण से इसे समझाने का प्रयास किया है। भगवान श्रीराम राज्याभिषेक के स्थान पर 14 वर्षों के वनवास की बात पर लक्ष्मण से कहते हैं कि यह प्रारब्ध की देन है जिसे बुद्धिमान व्यक्ति को स्वीकार करना चाहिए। भाग्य अथवा प्रारब्ध (Destiny) क्या है? और यह कैसे काम करता है। इसकी व्याख्या इन शब्दों में की गई है।

कश्चिद्दैवेन सौमित्रे योद्धुमुत्सहते पुमान्। यस्य न ग्रहणं किञ्चित्कर्मणोऽन्यत्र दृश्यते॥ (वाल्मीकिरामायणम्) अर्थात् जब हमें सुख या दुख के रूप में अपने कर्मों का फल मिलता है, तब हमें प्रारब्ध का ज्ञान होता है। प्रारब्ध से कोई लड़ नहीं सकता है।

श्रीमद्भावद्गीता में श्रीकृष्ण ने कर्म की सुव्यवस्थित व्याख्या की है। गीता के तृतीय अध्याय के पांचवें श्लोक न हि कश्वित्क्षणमपि…में श्रीकृष्ण कहते हैं कि‘निसंदेह मनुष्य किसी भी काल में बिना कर्म किए क्षणभर भी नहीं रहता, क्योंकि मनुष्य प्रकृतिजन्य गुणों के कारण कर्म के लिए बाध्य है।’ सरल शब्दों में कर्म करना और कर्म करते रहना मनुष्य का प्राकृतिक गुण हैं। आधुनिक काल के प्रख्यात मनोवैज्ञानिक थार्नडाइक और पावलाव भी इस तथ्य की पुष्टि करते है। उनका कहना है कि काम करना मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है, वह निष्क्रिय नहीं रह सकता।

दरअसल, कर्म और भाग्य मनुष्य के जीवन के दो प्रमुख घटक न होकर एक अनसुलझी पहेली है। प्रारब्ध अर्थात् भाग्य और कर्म यानी पुरुषार्थ की बहस सदियों से चली आ रही है। इसे लेकर दुनिया भर में दो मत हैं। पहला, भाग्य सर्वोपरि है।सबकुछ पहले ही नियत है और हम अपने प्रारब्ध के हाथों की कठपुतली मात्र है। कर्म और कर्मफल से हमारा कोई संबंध नहीं है। दूसरा, भाग्य या प्रारब्ध सिर्फ आलसी लोगों का बहाना है। दृढ़ इच्छशक्ति, संकल्प और मेहनत से कुछ भी संभव है। ज्यादातर लोग सुविधानुसार पाला बदलते रहते हैं। असफलता के लिए भाग्य को दोष देना और सफलता के लिए अपने पुरुषार्थ पर गर्व करना सामान्यतः हम सभी के स्वभाव का हिस्सा बना गया है। एक साधारण मनुष्य इस दुविधा का शिकार हो जाता है।

ज्योतिष शास्त्र इस दुविधा से निकलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कर्म और भाग्य के परस्पर संबंधों का अध्यययन ज्योतिष शास्त्र की विषयवस्तु है। ज्योतिष शास्त्र का आधारभूत सिद्धांत है कि मनुष्य कर्म करने के लिए पैदा हुआ है। अपने कर्म के अनुरूप वह जन्म-जन्मांतर तक फल भोगता है। ज्योतिष में तीन प्रकारके कर्म फल के बताए गए हैं, जो भाग्य को प्रभावित करते हैं। दृढ़, अदृढ़ और दृढ़ादृढ़। दृढ़ फल पूरी तरफ प्रारब्ध अथवा भाग्य के अधीन अर्थात् निश्चितऔर स्थायी होते हैं, जबकि अदृढ़ फल अस्थायी, कमजोर और बदल सकते हैं। दृढ़ादृढ़ फल दोनों के बीच का मिश्रण होता है। दृढ़ फल विंशोतरी दशाओं से देखे जाते हैं, जबकि अदृढ़ फल अष्टकवर्ण और गोचर द्वारा,दृढ़ादृढ़ फल नाभस आदि योगोंसे देखे जाते हैं।

कर्म और भाग्य की गुत्थी सुलझाने के लिए इन्हें अलग-अलग जानने और समझने की आवश्यकता है। पहले कर्म, यह एक संस्कृत शब्द है। सामान्य तौर पर इसका अर्थ ‘कार्रवाई’ या ‘कार्य’ है, जो विभिन्न घटनाओं के कारण और प्रभाव के आध्यात्मिक सिद्धांत को दर्शाता है। सरल शब्दों में कर्म संगत (अच्छे या उचित कर्म) परिणाम उत्पन्न करने वाले होते हैं। उदाहरण के तौर पर सकारात्मक कर्म अकसर अनुकूल और नकारात्मक कर्म प्रतिकूल परिणाम देने वाले होते हैं। इसी तरह भाग्य का अर्थ घटनाओं के पूर्वनिर्धारित क्रम से संबंधित है। दूसरे शब्दों में, हम रंगमंच के खिलाड़ी हैं, जिन्हें नाटक की कहानी को जाने बिना अपनी भूमिका निभानी होती है।

वेदों में भी कर्म की विस्तार से व्याख्या की गई है। कर्तव्य कर्मों की शिक्षा को कर्मकांड का नाम दिया गया। इसके दो प्रकार हैं, इष्ट और मूर्त। इष्ट कर्म यज्ञ आदि और मूर्त सामाजिक कार्य आदि से संबंधित है। इन्हें तीन-तीन भागों में विभाजित किया गया है। नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्म। नित्य कर्म रोजाना प्रतिदिन के कामों-शरीर को साफ-सुथरा रखने से संबंधित है। नैमित्तिक कर्म किसी विशेष कारण के लिए किए जाने वाला कार्य षोडश संस्कार आदि। काम्य कर्म लौकिक और परालौकिक कामना से किए जाने वाले कार्यों को कहा गया। जैसे नौकरी और स्वास्थ्य लाभ की कामना से किए गए रुद्राभिषेक आदि। गहराई से विमर्श करने पर इसके दो अन्य भेद स्पष्ट होते हैं। निषिद्ध कर्म और प्रायश्चित कर्म। निषिद्ध कर्म, धर्म में निषेध यानी मना किए कर्म जैसे गोहत्या, सगोत्रीय विवाह आदि है। इसी तरह प्रायश्चित कर्म में किसी पाप कर्म के पछतावे स्वरूप किए गए कर्म शामिल हैं।

श्रीमद्भावद्गीता के चौथे अध्याय के 16, 17 और 18वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने कर्म के 3 स्वरूपों के बारे में बताया है। कर्म, अकर्म और निकर्म। अनाशक्त भाव (बिना किसी कामना) से किए गए कार्य को अकर्म की संज्ञा दी गई। पाप और अमानवीय कर्मों को निकर्म कर्म बताया है। कर्म को पुरुषार्थ से जोड़ते हुए इसके चार भेदों की चर्चा की गई है। संचित, प्रारब्ध, क्रियामाण और आगामी कर्म। संचित – पिछले जन्मों के संचित (जोड़े गए कर्म), या संग्रहित कर्म, प्रारब्ध- संचित कर्मों का वह भाग जो इस जन्म के लिए नियत है। क्रियामाण- वह कर्म जो वर्तमान जीवन में करते हैं और आगामी-भावी जीवन के कर्म (यदि आगामी जीवन अंतिम जीवन न हो)। इसके साथ ही श्रीकृष्ण ने कर्म की तीन प्रवृत्तियां या गुण क्रमशः सात्विक, राजसिक और तामसिक के बारे में बताया है। मन, शरीर, चेतना और भावना आदि के स्तर पर इनका अनुभव किया जा सकता है।

ज्योतिष में कर्म स्थान और भाग्य स्थान

ज्योतिष के अनुसार, जन्मकुंडली का दशम भाव कर्म और नवम भाव भाग्य स्थान कहा गया है। दशम भाव और उसका स्वामी (दशमेश), जन्म कुंडली, नवांश कुंडलीऔर दशमांश कुंडली देखकर जातक के कर्म की प्रवृत्ति का अध्ययन किया जा सकता है। नित्य, लौकिक और नैमित्तिक कर्म के प्रति जातक के रुझान की जानकारी दशम भाव के साथ ही नवम भाव से भी मिलती है। इससे जातक के शरीर, मानसिक स्थिति और स्वभाव का भी पता चलता है।

ज्योतिष विद्वान श्री के.एन. राव जी ने अपनी एक अन्य पुस्तक हिंदू ज्योतिष में कर्म और पुनर्जन्म में तीन जन्मपत्रिकाओं के उदाहरण से कर्म और भाग्य की गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की है। राव के अनुसार, बिना किसी पूर्व जान-पहचान के जातकों के बारे में ज्यादातर ज्योतिषीय कथन सत्य निकला। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य अपना प्रारब्ध नहीं बनाता है बल्कि वह पूर्वनिर्धारित है। वे कहते हैं कि जीवन पूर्व निर्धारित रास्ते पर चलता है और ज्योतिष इसे समझने में सहायता देता है।

अब सवाल उठता है कि संचित कर्म और प्रारब्ध के भोग का सिद्धांत पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन, सनातन के अलावा कई धर्म पुनर्जन्म के सिद्धांत को खारिज करते हैं। राव ने अपनी पुस्तक में आचार्य विनोबा भावे के एक किस्से का उल्लेख किया है। आचार्य ने एक ईसाई मिशनरी से पूछा कि जो बच्चा जन्म लेने के 4 सेकेंड बाद मर जाता है उसके लिए प्रलय के दिन (ईश्वर के दरबार में जीवन में किए गए सद्कर्मों-दुष्कर्मों के सुनने का दिन) का अर्थ क्या है? ऐसे शिशु के अच्छे-बुरे कर्मों का दंड ईश्वर क्या दे सकता है? कोई उत्तर नहीं मिला।

क्या पुनर्जन्म का कोई प्रमाण है? पुनर्जन्म विषय पर भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की कई पुस्तकें हैं, जो इसकी सत्यता को प्रमाणित करती हैं। फिर भी कुछ धर्म पुनर्जन्म के सिद्धांत का विरोध करते हैं और हमेशा करते रहेंगे। डॉ. इयान-स्टीवेंशन की पुनर्जन्म पर लिखी पुस्तक सीरीज के बावजूद दूसरे धर्म के वैज्ञानिक तकइस सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते। सन 1975 में यूएसए के कुछ वैज्ञानिकों ने वैज्ञानिक खोजों के बजाय अपने धार्मिक विश्वासों के कारण ज्योतिष का विरोध किया। अनेक प्रमाणों के आधार पर यह विश्वास से कहा जा सकता है कि ज्योतिष और कर्म, ज्योतिष और पुनर्जन्म उतना ही प्रत्यक्ष है, जितना कि विश्व में कहीं भी आप हरे-भरे पेड़ों को देख सकते हैं।

कर्म और भाग्य की चर्चा अष्टांग योग के बिना अधूरी

कर्म और भाग्य के परस्पर संबंधों की चर्चा अष्टांग योग के बिना अधूरी है। ज्योतिष शास्त्र में जगत के विविध तापों से छुटकारा दिलाने वाले अष्टांग योग की बृहत् चर्चा है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के क्रमवार अभ्यास से कर्मबंधन से मुक्ति की चर्चा की गई है। कुंडली का पहला भाव (यम), दूसरा भाव (नियम), तीसरा भाव (आसान) चतुर्थ भाव (प्राणायाम), पंचम भाव (प्रत्याहार), छठा भाव (धारणा), सप्तम भाव (ध्यान) और अष्ठम भाव समाधि को इंगित करता है। इसके बाद नवम भाव (गुरु) के आशीर्वाद से किए गए कर्मों (दशम भाव) द्वारा और सूर्य (आत्मा) चंद्र (मन), बुद्धि (बुध) के बीच सम्यक योगों के योगदान सेजीवन मूल्यों को समझने में आसानी होती है। इससे मनुष्य सिर्फ रोग मुक्त ही नहीं क्लेशमुक्त भी हो सकता है। योग के प्रत्येक आठ चरण यम से लेकर समाधि तक कुंडली के लग्न से लेकर अष्टम भाव की यात्रा में नवम भाव सहायक होता है। जैसा कि हमें पता है कि नवम भाव गुरु और भाग्य भाव होता है। इसके बाद दशम भाव (कर्म भाव) के रास्ते एकादश भाव (लाभ या आय भाव) की यात्रा के साथ द्वादश भाव (व्यय या मोक्ष) की गति प्राप्त होती है। श्रीमद्भगवद्गीतामें श्रीकृष्ण ने अष्टांग योग पद्धति को मन तथा इंद्रियों को वश में करने का साधन बताया है।

कर्म और भाग्य एक-दूसरे के पूरक

इससे प्रतीत होता है कि कर्म और भाग्य अलग-अलग ना होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। हमारा भाग्य हमारे कर्मों की संचित निधि है, जिसे प्रारब्ध के रूप में भोगते हुए हम हर दिन नए भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। कई बार जीवन में सकारात्मकता के बदले नकारात्मक बदलाव हावी हो जाती है। यहीं कर्म और भाग्य अलग-अलग प्रतीत होते हैं। लेकिन, इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि इसे सुधारा नहीं जा सकता है। अपने प्रयासों और इच्छाशक्ति के साथ जीवन में बहुत कुछ बदला जा सकता है। यही कर्म और भाग्य के सिद्धांत का सार्थक पहलू है। महात्मा गांधी अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बने रहे, सकारात्मक बदलाव के संकल्प ने उन्हें ऐशो-आराम के उन तमाम साधनों से दूरकर दिया,जिनकी एक साधारण मानव कल्पना करता है और उनका जीवन एक योगी की तरह बीता। ये कर्म के साथ भाग्य के प्रभाव का एक बड़ा उदाहरण है। हमारे दौर में अनेक ऐसे नेता हैं जो सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं लेकिन भाग्य उन्हें इंतजार करा रहा है। भाग्य जब साथ देता है तो अपने दौर के अनेक दिग्गज नेताओं को पीछे छोड़कर पी.वी. नरसिम्हाराव और एच.डी. देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के उदाहरण हमारे सामने हैं। बेशक, इन दोनों की उपलब्धि में इनके संचित कर्म यानी राजनीति में लगातार सक्रिय रहने का भी बड़ा योगदान है। यानी भाग्य के साथ कर्म जरूरी है।