नई दिल्ली। आजकल भारत समेत पूरी दुनिया में वृंदावन के एक संत की चर्चा है। उनके विचार, उनके आदर्श लोगों को, खासकर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वो वृंदावन के रहने वाले शुरू से नही थे, उनका जन्म कहीं और हुआ और फिर शिव भक्ति से वो राधा कृष्ण भक्ति में लीन हो गए। आइए जानते हैं कौन हैं प्रेमानंद महाराज और वो आज क्यों इतने लोकप्रिय हो रहे हैं।
प्रेमानंद महाराज जिनका मूल नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे था, का जन्म एक अत्यंत सात्विक और धार्मिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के अखरी गाँव में हुआ, जहाँ का वातावरण पूर्णत: भक्तिमय और शांत था। उनके परिवार में संन्यास और भक्ति का गहरा प्रभाव था, जिसके कारण उनके भीतर भी छोटी उम्र से ही अध्यात्म के बीज अंकुरित होने लगे। उनके दादा संन्यासी थे और माता-पिता नियमित रूप से संत सेवा और धार्मिक कार्यों में लगे रहते थे। यह भक्तिपूर्ण माहौल उनके जीवन को प्रारंभ से ही आध्यात्मिक दिशा में मोड़ने के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
महाराज ने बचपन से ही धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना शुरू कर दिया था। पाँचवीं कक्षा में उन्होंने गीता प्रेस के श्री सुखसागर का पाठ किया, और छोटी सी उम्र में ही वे जीवन के उद्देश्य पर गंभीर रूप से विचार करने लगे। वे इस संसार की क्षणिक सुखों और रिश्तों के बारे में सोचकर गहरे चिंतन में डूब जाते थे। नौवीं कक्षा तक आते-आते, उन्होंने आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय कर लिया और मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने घर को त्याग कर सत्य की खोज में निकल पड़े।
संन्यास और ब्रह्मचर्य का जीवन
प्रेमानंद महाराज को नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिली और उनका नाम आनंद स्वरूप ब्रह्मचारी रखा गया। बाद में उन्हें संन्यास की दीक्षा दी गई और उनका नाम स्वामी आनंदाश्रम रखा गया। उन्होंने कठोर तपस्या और त्याग का जीवन व्यतीत किया। उनका अधिकांश जीवन गंगा नदी के तट पर बीता, जहाँ वे कठिन तपस्याएँ करते हुए भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त करने में सफल हुए। महाराज ने कठोर सर्दियों में भी गंगा में तीन बार स्नान करने की अपनी दैनिक दिनचर्या को कभी नहीं छोड़ा। वे कई दिनों तक बिना भोजन के रहते, और उनका पूरा ध्यान केवल परमात्मा में लीन रहता था। संन्यास के कुछ वर्षों के भीतर, उन्होंने भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त किया और उनके जीवन में आध्यात्मिक जागृति की एक नई दिशा मिली।
वृंदावन आगमन और रासलीला का अनुभव
वृंदावन का आकर्षण उनके जीवन में तब आया जब बनारस में ध्यान करते हुए वे श्री श्यामाश्याम की कृपा से वृंदावन की महिमा की ओर आकर्षित हुए। वे एक महीने तक वृंदावन में श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं और श्री श्यामाश्याम की रास लीलाओं में पूरी तरह लीन रहे। यह अनुभव उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुआ और उन्होंने वृंदावन को ही अपना स्थायी निवास बना लिया।
राधावल्लभी संप्रदाय में प्रवेश
वृंदावन में एक दिन उन्होंने राधावल्लभ के मंदिर में भगवान के दर्शन किए और उनका मन वहां पूरी तरह से रम गया। गोस्वामी की कृपा से उन्हें राधावल्लभ संप्रदाय में दीक्षा मिली और वे इस संप्रदाय के प्रमुख संतों में से एक बन गए। पूज्य श्री हित गौरांगी शरण महाराज से सहचरी भाव और नित्यविहार रस की दीक्षा प्राप्त करने के बाद, महाराज ने अपने जीवन को पूरी तरह से श्री राधा के चरणों में समर्पित कर दिया।
सद्गुरु की सेवा और मधुकरी का जीवन
प्रेमानंद महाराज ने अपने सद्गुरु की सेवा में दस वर्षों तक समय बिताया। वे वृंदावन में मधुकरी के माध्यम से अपना जीवन यापन करते और ब्रजवासियों का अत्यंत सम्मान करते थे। उनका मानना था कि ब्रजवासियों का अन्न ग्रहण किए बिना “दिव्य प्रेम” का अनुभव नहीं किया जा सकता। प्रेमानंद महाराज का जीवन एक सच्चे संत का उदाहरण है, जिन्होंने अपने जीवन को पूर्णत: भगवान और भक्ति के लिए समर्पित कर दिया। उनका प्रत्येक कार्य, प्रत्येक सोच, और प्रत्येक क्षण भगवान श्री राधा और वृंदावन धाम की कृपा का साक्षी है।