नई दिल्ली। झारखंड में इन दिनों सरहुल पर्व (Sarhul Tribal Festival) मनाया जा रहा है। जो आदिवासियों का प्रमुख त्योहार है। पतझड़ के बाद, जब पेड़-पौधे हरे-भरे होने लगते हैं तब सरहुल त्योहार शुरू होता है। जो पूरे महीने भर चलता है। हर साल चैत्र महीने के कृष्ण पक्ष की तृतीया को चांद दिखाई पड़ने के साथ ही सरहुल का आगाज हो जाता है। वहीं, पूर्णिमा के दिन ये पर्व संपन्न होता है।
आपको बता दें कि सरहुल त्योहार धरती माता को समर्पित होता है। इस दौरान प्रकृति की पूजा की जाती है। आदिवासियों का मानना है कि इस त्योहार को मनाए जाने के बाद ही नई फसल का उपयोग शुरू किया जाता है। ये पर्व रबी (Rabi) की फसल कटने के साथ ही शुरू हो जाता है, इसलिए इसे नए वर्ष के आगमन के रूप में भी मनाया जाता है।
सरहुल दो शब्दों से बना हुआ है ‘सर’ और ‘हुल’। सर का मतलब सरई या सखुआ फूल होता है। वहीं, हुल का मतलब क्रांति होता है। इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया है। सरहुल में साल और सखुआ वृक्ष की विशेष तौर पर पूजा की जाती है।
इस पर्व को झारखंड (Jharkhand) की विभिन्न जनजातियां अलग-अलग नाम से मनाती हैं। राज्य में ये त्योहार काफी ही उरांव जनजाति इसे ‘खुदी पर्व’, संथाल लोग ‘बाहा पर्व’, मुंडा समुदाय के लोग ‘बा पर्व’ और खड़िया जनजाति ‘जंकौर पर्व’ के नाम से इसे मनाती है।
सरहुल पूजा शुरू होने से पहले पाहन या पुजारी को उपवास करना होता है। वो सुबह की पूजा करते हैं। इसके बाद पाहन घर-घर जाकर जल और फूल वितरित करते हैं। घरों में फूल देकर पाहन ये संदेश देते हैं कि फूल खिल गए हैं, इसलिए फल की प्राप्ति निश्चित है। खुशी और उल्लास के इस त्योहार में गांव के सभी आदिवासी इकट्ठा होकर मांदर की थाप पर जमकर नृत्य करते हैं।