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Chhath Puja 2022: क्या है छठ पूजा की पौराणिक कथा?, जानिए इसका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक महत्व

Chhath Puja 2022: लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है।

राजधानी दिल्ली समेत देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को पूरे भक्तिमय वातावरण में सूर्य की उपासना का पर्व छठ मनाया जाता है। वैसे तो लोग उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं लेकिन यह ऐसा अनोखा पर्व है जिसकी शुरुआज डूबते हुए सूर्य की अराधाना से होती है। इस पर्व के उद्भव के सम्बन्ध में कई उल्लेख (पारम्परिक और ऐतिहासिक) मिलते हैं। छठ पर्व के प्रारंभ का उल्लेख द्वापर काल में मिलता है। कहा जाता है कि सूर्य पुत्र अंगराज कर्ण सूर्य के बड़े उपासक थे और वह नदी के जल में खड़े होकर भगवान सूर्य की पूजा करते थे। पूजा के पश्चात कर्ण किसी याचक को कभी खाली हाथ नहीं लौटाते थे। पुनः कहा जाता है कि महाभारत काल में कुंती ने पुत्र प्राप्ति हेतु सूर्य की पूजा की थी, तत्पश्चात उन्हें संतान सुख की प्राप्ति हुई थी। छठ पर्व की शुरुआत कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को नहाय खाय से शुरू हो जाती है, जब छठव्रती स्नान एवं पूजा पाठ के बाद शुद्ध अरवा चावल, चने की दाल और कद्दू की सब्जी ग्रहण करते हैं। छठ पूजा की एक अन्य कथा के अनुसार, जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएं में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है। उस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में है। छठ पर्व के पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैंगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है।

ऐतिहासिक प्रमाण-

छठ पूजा 150 वर्ष पूर्व तक केवल मगध यानी पटना, गया तथा मुंगेर के कुछ क्षेत्रों तक और सकलद्वीपीय ब्राह्मणों तक ही सीमित था। ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार, पश्चिमी एशिया मूल के शाक्यद्विपिया ब्राहमण (जिन्हें भोजक और मोगा ब्राह्मिन के नाम से भी जाना जाता है) ने इस पर्व की शुरुआत की थी। शास्त्र के अनुसार, सकलद्वीपीय ब्राह्मण आयुर्वेद के चिकित्सक थे, जिन्हें मूलस्थान (जिसे आज मुल्तान के नाम से जानते हैं) के शासकों ने अपने कुष्ट रोग के निवारण हेतु अपने राज्य में आमंत्रित किया था। इसलिए इस रोग के निवारणार्थ सकलद्वीपीय चिकित्सकों ने कार्तिक पूर्णिमा की षष्टी के दिन सूर्य की उपासना करने को कहा। (कहते हैं कि यही षष्टी कालान्तर में छठी के रूप में कही जाने लगी।) कुष्ट रोग को ठीक करने के बाद इन ब्राह्मण चिकित्सकों ने पंजाब को अपना निवास स्थान बना लिया और यहीं से वो पूर्व की ओर फैल गए। सकलद्वीपीय ब्राम्हण आयुर्वेद के साथ-साथ वैदिक ज्योतिष विज्ञान के भी विद्वान थे। पाटलिपुत्र स्थित ज्योतिष एवं खगोल विज्ञान के विद्वान् श्री वराहमिहिर सकलद्वीपीय कुल के थे। गुप्त साम्राज्य के शासकों ने इन्हें पाटलिपुत्र में संरक्षण दिया था।वराहमिहिर की कृति “वृहत्त संहिता” आज भी खगोलशास्त्र और वैदिक ज्योतिष का मूल ग्रन्थ है। बिहार के औरंगाबाद जिले के पौराणिक देवस्थल में लोकपर्व कार्तिक छठ पर्व पर चार दिवसीय छठ मेले की भी शुरुआत हो गई। यहां त्रेतायुग में स्थापित प्राचीन सूर्य मंदिर में बृहद सूर्य मेले का आयोजन किया जाता है।

सनातन संस्कृति में सूर्योपासना का महत्त्व केवल धार्मिक ही नहीं अपितु वैज्ञानिक और आध्यात्मिक भी है।

हिंदू परम्परा की मानें तो छठ व्रत का उद्भव त्रेता युग से ही है। मान्यता है कि प्राचीन विदेह के राजा जनक क्षत्रिय होने के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी भी थे। इसलिए कश्मीर के विद्वान शारस्वत पंडितों ने एक क्षत्रिय के राजा होने के साथ ब्रह्मज्ञानि होने पर प्रश्न उठाया, कहते हैं कि उन्होंने राज जनक को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और इस हेतु तत्कालीन मिथिला के लिये यात्रा पर निकल गये। वर्तमान पीर पांचाल पर्वत पार करने के कारण युगों से चली आ रही प्रथा के अनुसार, परिजनों ने इनका श्राद्ध कर्म कर दिया। लम्बी यात्रा के उपरान्त विदेह पहुंचने के एक सप्ताह बाद राजा जनक से मिलने का समय मिला। कहते हैं कि ये सभी ज्ञानी पंडित प्रतीक्षा करने के क्रम में समाधि में चले गए और समाधि से लौटने के बाद ये सभी प्रश्न गायब थे। इन लोगों ने इस विशिष्ट अनुभव के बाद राजा जनक को गुरु मान लिया और यहीं बस गये। इन्हें ही आज हम मैथिल ब्राह्मण के रूप में जानते हैं। कहते हैं कि ये कश्मीरी पंडित सूर्योपासक थे और सूर्योपासना का पवित्र व्रत इन लोगों ने आरम्भ किया। उल्लेखनीय है कि त्रेता युग से बिहारवासियों द्वारा छठ व्रत करना यहां के धार्मिक और आध्यात्मिक बोध के साथ-साथ गौरवमयी प्राचीन सभ्यता को दर्शाता है। पुनः वैदिक ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में सदानीरा नदी अर्थात् वर्तमान गंडक नदी के स्त्री-पुरुष द्वारा सूर्योपासना की आराधना से छठ पूजा का प्रमाण मिलता है। कहना न होगा कि भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देव है। इनकी उपासना का लाभ भी प्रत्यक्ष है। सूर्य ऐश्वर्य तथा समृद्धि के देवता है। सूर्योदय व सूर्यास्त के समय अर्घ्य देने से तथा उपासना करने से शरीर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। सूर्य स्नान से चर्म रोग, नेत्र रोग, उदर रोग दूर होते हैं। ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार, कवि मयूरभट्ट ने सूर्य स्तुति तथा सूर्योपासना करके अपने शरीर को कुष्ठ रोग मुक्त बनाया था। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में आठ सूक्त सूर्य की प्रार्थना और स्तुति में है।

सूर्योपासना से अपने अंदर देवी गुण को समाविष्ट कर उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है और अभीष्ट वरदान पाया जा सकता है। सूर्य की पूजा से मनोकामनाएं पूर्ण होती है तथा कठिनाइयां और विपत्तियां दूर होती हैं। ये भी मान्यता है कि दुष्ट आत्मायें, भूत-प्रेत और राक्षस आदि का प्रभाव सूर्य की अनुपस्थिति में ही होता है, इसलिए सूर्योपासना से इससे मुक्ति भी मिलती है। बताते चलें कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुर्गा पूजा को इस वर्ष विश्व धरोहर घोषित किया है। बिहार वासियों के साथ समर्थ बिहार भी प्रयास करेगा कि सभ्यता के आरंभ के साथ हम सभी के सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व छठ व्रत को भी यूनेस्को विश्व धरोहर घोषित करे।