नई दिल्ली। हर साल ज्येष्ठ माह की अमावस्या तिथि को वट सावित्री का व्रत और पूजन किया जाता है। इस व्रत को सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती हैं। इस व्रत में बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है। सनातन धर्म में प्रकृति पूजन का बहुत महत्व होता है। विभिन्न पर्वों में अलग-अलग तरीकों से प्राकृतिक वस्तुओं पेड़-पौधों की पूजा की जाती है। वट सावित्री का व्रत उसी प्रकार के त्योहारों में से एक है। लेकिन इन सभी व्रतों और पर्वों के पीछे कोई न कोई पौराणिक कथा या वैज्ञानिक महत्व होता है, तो वट सावित्री के पीछे कौन सी पौराणिक कथा है आइये जानते हैं…
कहा जाता है कि सावित्री के पुण्य कर्मों और पतिव्रता धर्म से प्रभावित होकर यमराज ने उसे उसके पति सत्यवान का जीवन वापस लौटा दिया था। जब तक सत्यवान को उनके प्राण वापस नहीं मिले, तब तक उनका शव वटवृक्ष के नीचे ही पड़ा रहा था। यही वजह है कि आज भी हिंदू-धर्म में शादीशुदा महिलाएं सावित्री पूजा के दिन व्रत रखकर बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं। ये पर्व मुख्य रूप से बिहार और उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पूजा में मौसम की फसलें अर्पित की जाती हैं। जैसे आम, लीची, चना, अनाज आदि से बने पकवानों का भोग वट सावित्री की पूजा में लगाया जाता है। इसके अलावा, कहा जाता है कि बरगद के पेड़ में त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश निवास करते हैं, इसलिए इसे प्रकृति के सृजन का प्रतीक भी माना जाता है। वट वृक्ष के नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
बरगद के पेड़ के वैज्ञानिक महत्व की बात करें तो ये वृक्ष बाकी पेड़-पौधों की तुलना में चार-पांच गुना अधिक ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है। ऐसा माना जाता है कि जहां बरगद का पेड़ होता है, वहां की हवा अत्यंत शुद्ध होती है और उस क्षेत्र के वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा भरपूर होती है। बरगद के आसपास रहने वाले लोगों का शरीर तो निरोगी रहता ही है। उसके आसपास के 200 मीटर का क्षेत्र भी शीतल रहता है। ऐसे में वट वृक्ष के महत्व को देखते हुए लोग इसका वृक्षारोपण करने के लिए प्रेरित होते हैं, जिससे ग्लोबल वार्मिंग से भी बचाव होता है।
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