
नई दिल्ली। पित्रपक्ष (Paternal side) में लोग पितरों के लिए श्राद्ध (Shraddh), तर्पण और पिंडदान जैसे शुभ कार्य करते हैं। ऐसे में पितरों की पूजा (Ancestral Worship) के लिए लोग कुशा घास (Kusha Grass) का इस्तेमाल करते हैं। आज हम आपको बताएंगे कि पितरों की पूजा में इस्तेमाल क्यों होती है कुशा।
मान्यता
कुशा के इस्तेमाल की मान्यता है कि जो लोग अपने पितरों के लिए पुण्य कर्म करते हैं उनके घर में हमेशा शांति और सुख-समृद्धि का वास होता है। भारतीय धर्मशास्त्र और कर्मकांड के अनुसार पितर देव स्वरूप होते हैं। वेदों और पुराणों में कुशा घास को पवित्र माना गया है। इसे कुश, दर्भ या डाभ भी कहा जाता है। इसमें पितरों के निमित्त दान, तर्पण, श्राद्ध के रूप में श्रद्धापूर्वक जरूर करना चाहिए। मत्स्य पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के वराह अवतार के शरीर से कुशा बनी है।
मान्यता है कि पूजा-पाठ में कुशा का इस्तेमाल किया जाता है। पितृपक्ष में श्राद्ध के दौरान कुशा का उपयोग जरूरी है। इसके बिना तर्पण अधूरा माना जाता है। कुशा की अंगूठी बनाकर तीसरी उंगली में पहनी जाती है जिसे पवित्री कहा जाता है। ग्रंथों में बताया गया है इसके उपयोग से मानसिक और शारीरिक पवित्रता हो जाती है। पूजा-पाठ के लिए जगह पवित्र करने के लिए कुशा से जल छिड़का जाता है। कुशा का उपयोग ग्रहण के समय भी किया जाता है। ग्रहण से पहले खाने-पीने की चीजों में कुशा डाली जाती है। ग्रहण काल के दौरान खाना खराब न हो और पवित्र बना रहे, इसलिए ऐसा किया जाता है। इसके अलावा कुशा घास एक नैचुरल प्रिजर्वेटिव के रूप में काम करती है। इसका इस्तेमाल दवाइयों में भी किया जाता है।
अथर्ववेद में कुशा घास
कुशा में प्यूरिफिकेशन एजेंट भी मौजूद होता है। अथर्ववेद में कुशा घास के लिए कहा गया है कि इसके इस्तेमाल से गुस्से पर कंट्रोल रहता है। इसे अशुभ निवारक औषधि भी कहा जाता है।चाणक्य के ग्रंथों से पता चलता है कि कुशा का तेल निकाला जाता था और उसका उपयोग दवाई के तौर पर किया जाता था।