
भारत में कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ और सिर्फ मुस्लिमों के अधिकार दिखाई देते हैं। हिंदुओं में तो उन्हें सिर्फ जाति दिखाई देती है, इसलिए वह यहां पर जाति की राजनीति करते हैं। सुरक्षा के लिहाज से ईद पर सड़क पर नमाज की मनाही किए जाना उन्हें नागवार गुजरता है। वैसे वे गंगा—जमुनी तहजीब की बात करते हैं, लेकिन जब धार्मिक आस्था का मान रखने के लिए किसी की पहचान पूछे जाने का कोई निर्देश आता है तो कहा जाने लगता है कि देश में मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा है।
ऐसे राजनीतिक दलों की राजनीति केवल विरोध करने तक सीमित रह गई है। जब देश के किसी कोने में कोई हिंदू पर्व आता है, कोई यात्रा निकलती है या कोई संत समाज में सेवा करता दिखता है, तो उन्हें दर्द होने लगता है। रामनवमी जुलूस मुस्लिम इलाके से नहीं निकल सकता, इसके लिए रूट बदल दिये जाते हैं, लेकिन कांवड़ यात्रा के दौरान यदि उस रास्ते में पड़ने वाली तमाम दुकानों के मालिकों को अपने धार्मिक और मजहबी पहचान बताने के लिए सरकारी निर्देश दिए जाते हैं तो उनकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं।
उत्तर प्रदेश में आगामी कांवड़ यात्रा को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने निर्देश दिए हैं कि यात्रा मार्ग पर दुकानदारों को अपने नाम, पता और मोबाइल नंबर स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करना होगा। ये फैसला न तो नया है, न ही असामान्य। यह एक सामान्य सुरक्षा उपाय है, ताकि किसी भी स्थिति में प्रशासन सक्रिय रह सके। जाहिर है कि सरकार का निर्देश न तो किसी धर्म के विरुद्ध है, न किसी समुदाय को टारगेट करने वाला। यह केवल प्रशासनिक सजगता और धार्मिक आयोजन की मर्यादा के लिए है, लेकिन इस पर विपक्ष के नेता जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं या पूर्व में करते रहे हैं, वह उनकी मानसिकता को स्पष्ट करता है।
कांग्रेस सांसद इमरान मसूद बोले रहे हैं कि कांवड़ यात्रा के दौरान पहचान पूछना समाज को बांटने की साजिश है। दिग्विजय सिंह ने कह रहे हैं कांवड़ यात्रा का इस्तेमाल नफरत फैलाने के लिए किया जा रहा है। यह सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। किस सभ्य समाज की बात कर रहे हैं दिग्विजय सिंह जी, वही सभ्य समाज जहां सेकुलरिज्म के नाम पर हिंदुओं की आस्थाओं से खिलवाड़ किया जाता है। क्या कोई उदाहरण है कि कांवड़ यात्रा से किसी समुदाय को कोई नुकसान हुआ? लेकिन इसके बावजूद इस पर सवाल उठते हैं, सिर्फ इसलिए कि यह हिंदुओं की आस्था से जुड़ी है।
दरअसल, यही विडंबना है कि इस देश में हिंदू धर्म के साथ खड़ा होना कथित सेकुलर दलों के गले नहीं उतरता, क्योंकि उन्हें वोट बैंक की राजनीति करनी है। जब एक मुसलमान हलाल का सर्टिफाइड खाना ही मांगता है तो कोई सवाल नहीं उठाता। जब उनके विशेष मजहबी आयोजन में ट्रैफिक रोका जाता है, दुकानों को बंद किया जाता है, तब सामाजिक सौहार्द की दुहाई दी जाती है, लेकिन यदि हिंदू श्रद्धालु यात्रा मार्ग पर अपनी धार्मिक मर्यादा के अनुरूप दुकान चुनना चाहें, तो वह भेदभाव लगने लगता है क्यूं?
बात सिर्फ कांवड़ यात्रा की नहीं है। जब कोई सनातनी संत कथा करता है, तो उसे अंडर टेबल पैसा लेने वाला कह दिया जाता है। ऐसा बयान सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने दिया। क्या कभी किसी मौलाना के बारे में वह ऐसा कह सकते हैं, तो जवाब है नहीं, क्योंकि उन्हें मुस्लिमों के वोट बटोरने हैं। क्या वह किसी दरगाह पर आ रहे चढ़ावे को लेकर सवाल उठाए हैं? तो जवाब है नहीं, क्योंकि वहां वोट बैंक की राजनीति खतरे में पड़ जाती है।
पिछले साल भी सपा नेता रामगोपाल यादव ने कहा था कि यूपी सरकार ने कांवड़ यात्रा के रूट पर मुसलमानों को अपनी दुकानों पर नाम और पता लिखने को कहा था। उनका कहना था कि यह सीधे—सीधे मुसलमानों को टारगेट करना है। जहां से यात्रा गुजरती है वहां बड़ी आबादी मुसलमानों की है। आखिर नाम और पहचान बताने में हर्ज किया है। सबकी अपनी आस्थाएं हैं, यदि मुस्लिम अपनी मजहबी पहचान के साथ रहते हैं, उसके अनुसार खाते हैं तो हिंदुओं को अपने धर्मानुसार शुचिता और साफ—सफाई रखने और आचरण करने का अधिकार है।
यह मानसिकता बेहद खतरनाक है। यह वही मानसिकता है जिसके चलते बरसों तक अयोध्या में रामलला टेंट में रखे और बाबरी के पक्ष में वकालत की गई। यही वह सोच है हिंदुओं को शाकाहारी और मांसाहारी का फर्क मत समझो कहती है, लेकिन हलाल पर एक शब्द नहीं कहती। हिंदू समाज अब समझ चुका है कि विपक्ष की यह राजनीति केवल सत्ता की भूख है, सिद्धांतों का इससे कोई लेना-देना नहीं। और इसीलिए अब वह चुप नहीं रहेगा। हिंदू अब सिर्फ सहन नहीं करेगा, उत्तर भी देगा वैचारिक रूप से, लोकतांत्रिक रूप से और चुनावी रूप से। इस देश में विपक्ष हमेशा विपक्ष ही रहेगा यदि उसने हिंदुओं की आस्था के साथ खिलवाड़ करना जारी रखा।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।