
लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत यह रही है कि सत्ता जनता के प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित होती है,विधायक, सांसद, मंत्री और पंचायत से लेकर प्रधानमंत्री तक। लेकिन भाजपा शासित राज्यों में ऐसा दिखाई नहीं देता। अक्सर आरोप लगते हैं कि अफसरशाही हावी है। अफसर किसी की नहीं सुनते। उन्हें सीधे मुख्यमंत्री कार्यालयों से निर्देश मिलते हैं। विधायक तो छोड़ो मंत्रियों की भी कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, भाजपा के नेता ऐसा स्वयं बोलते हैं।
इसका हालिया उदाहरण उत्तर प्रदेश के औद्योगिक विकास मंत्री नंद गोपाल नंदी का बयान है, उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर गंभीर आरोप लगाए हैं। नंदी ने कहा कि उनके विभाग के अधिकारी न केवल मंत्री के निर्देशों की अवहेलना कर रहे हैं, बल्कि शासनादेशों की भी अनदेखी कर रहे हैं। उनकी बात न तो सुनी जाती है और न ही विभागीय फाइलें समय पर चलती हैं। इतना ही नहीं, कुछ मामलों में तो पत्रावलियां ही गायब कर दी जाती हैं ताकि मंत्री की निगरानी और नियंत्रण को निष्क्रिय किया जा सके।
उत्तरप्रदेश में यह कोई पहला उदाहरण नहीं है, इससे पहले भी कई भाजपा विधायक ऐसा बोल चुके हैं। लोनी क्षेत्र के भाजपा विधायक नंद किशोर गुर्जर ने बाकायदा सामने आकर बयान दिया था कि अफसर उनकी नहीं सुनते हैं, सीधे लखनऊ से आदेश लेते हैं। बीते वर्ष जून में राजस्थान के ब्यावर से भाजपा विधायक शंकर सिंह रावत ने कहा था कि अधिकारी पूरी तरह हावी हैं, वे किसी की नहीं सुनते। विधायक या मंत्री का कहना कोई मायने नहीं रखता।
अन्य भी बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। दरअसल भाजपा शासित राज्यों में सत्ता का केंद्रीकरण इस कदर हो गया है कि अफसरशाही के आगे जनप्रतिनिधि तक पंगु बन चुके हैं। नीतियां जरूर ऊपर से आती हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन अफसरशाही अपने हिसाब से करती है।
दिल्ली जैसे महानगरों की बात छोड़ दें, तो ग्रामीण अंचलों में लोग अपने छोटे—छोटे कामों के लिए स्थानीय विधायक या सांसद के पास पहुंचते हैं। विधायक यदि उनके काम करवा पाता है तो ठीक नहीं, नहीं तो अगली बार विधायक बदल दिया जाता है। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में कई छोटे—छोटे काम ऐसे होते हैं, जिनके लिए जनप्रतिनिधि के दरवाजे पर लोग जाते हैं, मसलन किसी को अपने बच्चे का दाखिला करवाना है, किसी को पेंशन बनवानी है, किसी को पटवारी से संबंधित कोई काम है। ऐसे में जब विधायक या सांसदों की अधिकारी नहीं सुनते तो उसके पास जनता को देने के लिए कोई जवाब नहीं होता। ऐसे में आमजन के मन में खीज पैदा होती है। नंद गोपाल नंदी का बयान और मुख्यमंत्री को पत्र इसी स्थिति की एक बानगी है।
कांग्रेस अपने कर्मों से सत्ता से बाहर हुई, लेकिन एक बात तय है कि कांग्रेस के राज में स्थिति इसके बिल्कुल उलट होती है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि लोगों का कहना है। कांग्रेस में सत्ता का केंद्रीकरण नहीं होता, यहां पावर का विकेंद्रीकरण होता है। वहां पार्टी के कार्यकर्ताओं की सुनी जाती है, स्थानीय स्तर पर विधायकों और नेताओं की बात को तवज्जो दी जाती है। अधिकारियों पर जनता के नजदीकी प्रतिनिधियों का दबाव बना रहता है। इसी कारण, कांग्रेस सरकारों में आम लोगों को काम के लिए विधायक, पार्षद या जिला अध्यक्ष के पास जाने पर अपेक्षाकृत सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है।
लेकिन इसी कांग्रेस में जो सबसे बड़ी बाधा है वह है गांधी परिवार का अनावश्यक हस्तक्षेप। इसके चलते ही कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि कांग्रेस का शासन बहुत अच्छा होता है, लेकिन कांग्रेस के शासन में विधायकों और पार्षदों की तो छोड़िए, जिलाध्यक्षों का दबाव भी अफसरों पर रहता है। इस कारण लोगों के छोटे—मोटे काम आसानी से हो जाते हैं।
कांग्रेस में गांधी परिवार सत्ता और संगठन पर ऐसा एकाधिकार जमाए बैठा है कि उसका आंतरिक लोकतांत्रिक ढांचा दम तोड़ चुका है। जब तक कांग्रेस गांधी परिवार के अधीन रहेगी, तब तक वह मजबूत स्थिति में नहीं आएगी। गांधी परिवार के बाहर भी कांग्रेस में दर्जनों ऐसे नेता हैं, जिनमें संगठन चलाने और निर्णय लेने की क्षमता है। लेकिन यह क्षमता तब तक निष्क्रिय रहेगी जब तक परिवार का प्रभुत्व बना रहेगा।
भाजपा के शासन में अफसरशाही हावी रहती है। शायद यही कारण है कि विधायक और मंत्री अपनी ही सरकार पर सवाल उठाते हैं। जनता का या पार्टी के कार्यकर्ता का जब अपने चुने हुए जनप्रतिनिधि के पास जाकर भी काम नहीं होगा तो जाहिर है उसमें मन में खीज रहेगी ही।
वर्तमान समय में भाजपा को इस विषय पर आत्ममंथन करने की जरूरत है कि उसके जनप्रतिनिधियों की सुनी जाए, और कांग्रेस में इस विषय पर आत्ममंथन किए जाने की जरूरत है कि वह पार्टी में फैले परिवारवाद से बाहर निकले। यदि ऐसा होगा तभी कांग्रेस का कुछ भला हो पाएगा।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।