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मोहब्बत की दुकान के नाम पर नफरत की राजनीति करती कांग्रेस

कभी क्षेत्र के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर तो मजहब के नाम पर राजनीति करना कांग्रेस का शगल है। उसके लिए भारत ‘भारत फर्स्ट’ नहीं ‘वोट बैंक फर्स्ट’ है

भारत एक बड़ा देश है। विविधता में एकता ही उसकी पहचान है। यहां अनेकों भाषाएं बोली जाती हैं। विभिन्न राज्यों में खानपान, रहने का तरीका, रीति रिवाज अलग हैं, लेकिन भारत फिर भी एक है। हमारी विविधता हमारी ताकत है, लेकिन दुर्भाग्य से कुछ राजनीतिक दल, खासकर कांग्रेस, इसी विविधता को विघटन का औजार बनाकर भारतीय समाज में दरार पैदा करने का षड्यंत्र करती आ रही है। कभी भाषा के नाम पर तो कभी, जाति के नाम पर तो कभी मुस्लिम तुष्टीकरण कर कांग्रेस ने हमेशा वोट बैंक की राजनीति की है।

इसका सबसे ताजा उदाहरण है कर्नाटक की एक स्टेट बैंक शाखा में कार्यरत महिला अधिकारी के हिंदी में संवाद करने को खड़ा किया गया विवाद। बैंक की एक कर्मचारी ने इतना भर क्या कह दिया, यह भारत है, मैं हिंदी में बात करूंगी, इस बात को इतना तूल दे दिया गया कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इस विवाद में कूद गए।

किसी महिला अधिकारी का हिंदी में बात करने को कहना क्या अपराध हो गया? कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इस वाक्य को ‘कन्नड़ अस्मिता’ पर हमले की तरह प्रचारित किया। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया इस विवाद में कूदे। उन्होंने एक्स पर पोस्ट किया,’ मैं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और वित्तीय सेवा विभाग से आग्रह करता हूं कि वे पूरे भारत में सभी बैंक कर्मचारियों के लिए सांस्कृतिक और भाषा प्रशिक्षण अनिवार्य करें। स्थानीय भाषा का सम्मान करना लोगों का सम्मान करना है। कर्नाटक सीएम ने अपनी पोस्ट में कन्नड़ फर्स्ट हैशटैग भी जोड़ा।” इतना बड़ा मुद्दा तो नही था कि उन्हें कन्नड़ फर्स्ट हैशटैग का प्रयोग करना पड़ा। इसका तो यही अर्थ हुआ कि उनके लिए ‘भारत फर्स्ट’ नहीं बल्कि वोट बैंक फर्स्ट है।

हिंदी में बात करना क्या अपराध है? हो सकता है उस महिला कर्मचारी को कन्नड़ बोलनी नहीं आती हो। राहुल गांधी खुद को मोहब्बत की दुकान का दुकानदार बताते हैं, लेकिन यह कोरा झूठ है। असल में तो कांग्रेस हमेशा से जाति और मजहब की राजनीति करती आई है। वह सिर्फ अपना वोट बैंक देखती है और कुछ नहीं। राहुल गांधी की कथित मोहब्बत की दुकान उस समय कहां चली जाती है जब उनके नेताओं द्वारा कर्नाटक में हिंदीभाषी कर्मचारी को अपमानित किया जाता है। दबाव में उस महिला कर्मचारी को सार्वजनिक रूप से माफी मांगने को विवश किया जाता है।

कांग्रेस की राजनीति बांटने के आधार पर ही आधारित है। उदाहरण के तौर पर शाहबानो प्रकरण में न्यायपालिका के निर्णय को पलटकर कट्टरपंथियों के आगे झुक गई थी, क्योंकि उसे अपना मुस्लिम वोट बैंक नहीं खोना। कर्नाटक में भी यही हुआ। कन्नड़ हितैषी बनकर सिद्धारमैया इस विवाद में कूद गए, ताकि उनका वोट बैंक बढ़े। क्या किसी राज्य में रहने वाले अन्य नागरिकों को सिर्फ इसलिए अपमानित किए जाना चाहिए क्योंकि उन्हें वहां की स्थानीय भाषा नहीं आती है? बेंगलुरू जैसे आईटी हब में लाखों की संख्या में हिंदी भाषी लोग रह रहे हैं। उन्होंने वहां के आधार और वोटर कार्ड भी बना रखे हैं। वे वहां पर वोट भी डालते हैं, तो फिर उनके साथ भाषा के नाम पर भेदभाव क्यों होना चाहिए ?

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब ‘जिसकी जितनी साझेदारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ जैसी बात बोलते हैं तो वह सीधे तौर पर सामाजिक समरसता को खंडित करने का प्रयास कर रहे होते हैं। उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक होता है।कांग्रेस भाषा, जाति और मजहब को वोट बैंक की दृष्टि से देखती है, वह उन्हें भारतीय होने के नाम पर नहीं देखती है।

कांग्रेस की यह राजनीति भारत की एकता के लिए घातक है। राहुल गांधी यदि वास्तव में मोहब्बत की दुकान के दुकानदार होते तो सिद्धारमैया से जरूर पूछते कि इस छोटी सी बात को इतना तूल आपने क्यों दिया? क्षेत्रीयता को बढ़ावा देकर की जाने वाली राजनीति मोहब्बत की राजनीति तो नहीं है। यदि राहुल गांधी वास्तव में मोहब्बत की दुकान के दुकानदार हैं तो उन्हें ‘भारत फर्स्ट’ की नीति पर चलना चाहिए, न कि क्षेत्र भाषा और जाति को प्राथमिकता देनी चाहिए।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।