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कानूनी दाव—पेंच का इस्तेमाल कर आखिर कब तक आस्था को आहत किया जाता रहेगा !

हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं तलाशा जाना चाहिए लेकिन जहां शिवलिंग और हिंदू धार्मिक चिन्ह निकल रहे हैं वहां आंख भी तो बंद नहीं कर सकते। सम्भल के अलावा मुजफ्फरनगर, अलीगढ़ और कानपुर में मुस्लिम बहुल इलाकों में निकल रहे मंदिर इसका प्रमाण हैं कि हिंदुओं के धर्मस्थलों पर कब्जे किए गए हैं।

देश संविधान के हिसाब से चलता है। हमारे देश का भी एक संविधान है उसके अनुसार की देश को चलाया जाता है, लेकिन भारत शायद दुनिया का एक इकलौता ऐसा देश है जहां बहुसंख्यक होने के बाद भी हिंदू अपने मंदिरों के लिए अपने पूजा स्थलों के लिए न्यायालय में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। इस पर भी कथित सेकुलर हिंदुओं को हिंसक बताते हैं जबकि वह कानून के माध्यम से अपना अधिकार मांग रहे हैं न कि किसी के साथ जबरदस्ती या हिंसा करके।

पिछले दिनों सम्भल की जामा मजिस्द का सर्वेक्षण किए जाने के दौरान हिंसा हुई। हिंदू पक्ष की तरफ से वहां पर हरिहर मंदिर होने का दावा किया गया था जिसके बाद न्यायालय ने वहां सर्वेक्षण करने का आदेश दिया था। सर्वेक्षण के दौरान वहां हिंसा हुई और एक बार फिर से देश में हिंदू धर्मस्थलों पर कब्जा किए होने की बहस छिड़ गई। जिन धर्मस्थलों और मंदिरों पर हिंदू पक्ष अपना दावा करता है वहां पर मुस्लिम पक्ष अपना दावा करता है। ऐसे ढेरों मामले देश की अदालतों में लंबित हैं।

सम्भल से इतर बात करें तो मध्यप्रदेश स्थित भोजशाला को लेकर विवाद है। हिंदू समुदाय इसे देवी वाग्देवी यानी सरस्वती का मंदिर मानता है। ऐतिहासिक तथ्यों की बात करें तो इसकी स्थापना राजा भोज ने 1034 ईस्वी में की थी। बाद में बाहर से आक्रांता आए तो इन धर्मस्थलों पर भी कब्जा हो गया। मुस्लिम पक्ष इसे कमाल मौला मस्जिद कहते हैं और दावा करते हैं वे यहां पर बरसों से नमाज पढ़ रहे हैं। ऐसे ही विवाद हिंदुओं के बहुत से धर्मस्थलों पर हैं। उदाहरण के तौर पर श्री कृष्ण जन्मभूमि विवाद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मथुरा के श्री कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मस्जिद विवाद के संबंध में दोनों तरफ से 18 मुकदमे दायर हैं। यह पूरा विवाद औरंगजेब के समय की शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़ा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर स्थित मंदिर को तोड़कर बनाया गया था।

ऐसा ही विवाद है, ‘केशव देव विग्रह’ का। इस संबंध में आगरा न्यायालय में याचिका दायर है कि जामा मस्जिद की सीढ़ियों से केशवदेव के विग्रह को निकलवाया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि विवादित स्थल का जीपीएस सर्वे कराया जाए। याची का पक्ष सुनने के बाद न्यायालय ने आदेश सुरक्षित रख लिया है। इस मुकदमे में महानिदेशक आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, छोटी मस्जिद दीवान ए खास, जहांआरा बेगम मस्जिद आगरा फोर्ट और शाही जामा मस्जिद इंतजामिया कमेटी के पदाधिकारियों को पक्षकार बनाया है।

ऐसा ही विवाद बदायूं की जामा मस्जिद को लेकर भी है। इस संबंध में न्यायालय में याचिका दायर है कि यहां पर पहले नीलकंठ महादेव विवाद था जिस तोड़कर मस्जिद बनाई गई है। पुरातत्व विभाग इसे राष्ट्रीय धरोहर बता चुका है फिर भी इसको लेकर मुस्लिम पक्ष अड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश के सम्भल में अब प्रशासन द्वारा सर्वे कराए जाने के बाद वहां लगातार हिंदुओं के धर्मस्थल और मंदिर मिल रहे हैं। ऐसे ही मंदिर काशी,अलीगढ़, मुजफ्फरनगर और कानपुर में मिले हैं। खास बात यह है कि ये सारे मंदिर मुस्लिम बहुल इलाकों में मिले हैं। जहां से हिंदू दंगों के बाद या अन्य वजहों से पलायन कर चुके हैं उन इलाकों में यह मंदिर मिल रहे हैं।

हिंदुओं के धर्मस्थलों पर मंदिरों पर हिंदू दावा करते हैं तो मामले को न्यायालय में घसीट लिया जाता है। प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 का हवाला दे दिया जाता है। यह एक्ट भी 1991 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा लाया गया था, ताकि राम मंदिर के लिए चल रहे आंदोलन को कमजोर किया जा सके। 15 अगस्त 1991 को यह एक्ट लागू किया गया था। इसमें कहा गया था कि आजादी के समय यानी 15 अगस्त 1947 को जो भी पूजास्थल जिस स्थिति में थे, वो वैसे ही रहेंगे। यह हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी के स्थलों पर लागू होता है। जबरन थोपा गया यह एक्ट क्या संविधान के अनुसार मौलिक अधिकारों का उल्लघंन नहीं हैं जो सब को अपने धर्म स्थलों के संरक्षण का अधिकार देता है।

पहले मुगलों और इसके बाद अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के बाद सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लिए इस तरह का एक्ट लागू किया गया ऐसा प्रतीत होता है। संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत नागरिकों को अपना धर्म मानने और उसका पालन करने की आजादी है। ऐसे में जाहिर है कि सभी को अपने धर्मस्थलों का संरक्षण करने की भी आजादी है, लेकिन जब भी हिंदू पक्ष के द्वारा अपने पूजा स्थलों और धार्मिक स्थलों पर दावे किए जाते हैं तभी उस पर विवाद खड़ा कर दिया जाता है क्यों ?

बहरहाल प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट, 1991 पर पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब भी मांगा है। इस संबंध में अगली सुनवाई 17 फ़रवरी, 2025 को होनी है। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना,न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की तीन-न्यायाधीशों की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है। याचिकाओं में स्पष्ट कहा गया है के प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट, 1991 मनमाना और अनुचित है। यह धर्म का पालन करने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

अब सरकार इस संबंध में अपना जवाब दाखिल करेगी। हो सकता है कि सरकार इस एक्ट पर पुनर्विचार के लिए कमेटी बनाए जिसमें सभी राजनीतिक दलों और लोगों से राय मांगी जाए, जैसा कि वक्फ वोर्ड को लेकर कमेटी बनाई गई है। प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट को लेकर फैसला किया जाना बेहद जरूरी है क्योंकि इसकी आड़ में कानूनी दाव पेच से इस तरह के मामले उलझे पड़े हैं। होना तो यह चाहिए कि मुस्लिम विद्वान हिंदू पक्ष से बात करें और आपसी बातचीत से मामले को सुलझा लें ताकि आगे कोई विवाद न हो। वैसे भी संविधान के हिसाब से सबको अपने धर्म और मजहब को मानने की आजादी है इस पर किसी ने कोई रोक नहीं लगाई है। यदि ऐसा होता है तो यह देश हित में बेहतर ही होगा।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।