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Political Nepotism: भारत में राजनीतिक पार्टियां परिवारों की Private Limited कम्पनी कबतक ?
Political Nepotism: आपको बताते हैं कांग्रेस पार्टी से, राजनीति में वंशवाद के बीजारोपण का श्रेय कांग्रेस पार्टी को ही जाता है, जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के बाद, उनकी बेटी इंदिरा गांधी राजनीति में आईं, तब कांग्रेस में गांधी परिवार का कभी ना खत्म होने वाला युग शुरु हो गया।

एक तरफ देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, वहीं दूसरी तरफ जनता के मन में ये सवाल भी है कि आखिर राजनीतिक पार्टियां को परिवारवाद की गुलामी से आज़ादी कब मिलेगी ? क्या एक पार्टी पर, पीढ़ी दर पीढ़ी…सिर्फ, एक ही परिवार का ‘कंट्रोल’ लोकतांत्रिक है ? कम से कम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तो इस सवाल पर बहस बनती है। कहीं राजनीतिक पार्टियों पर ‘पारिवारिक कब्जा’ इस महान लोकतंत्र के लिए ग्रहण तो नहीं ? कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक और महाराष्ट्र से लेकर मेघालय तक, देश का शायद ही ऐसा कोई राज्य हो, जहां के पॉलिटिकल पार्टी पर ‘परिवार विशेष’ का कब्ज़ा न हो।सियासत में भाई-भतीजावाद, इस कदर हावी हो चुका है कि देश में करीब 30 से भी ज्यादा खानदान ऐसे हैं, जिनका अलग-अलग राजनीतिक दलों पर कब्जा है। यूपी की समाजवादी पार्टी, बिहार की राष्ट्रीय जनता दल, महाराष्ट्र की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और तमिलनाडु की डीएमके, ये सभी ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां हैं, जिन पर कांग्रेस की तरह ही सिर्फ, एक परिवार का कंट्रोल नज़र आता है।
Came across this interesting map and guess what only two missing ones in this map are – @BJP4India and @cpimspeak
Often in a democracy, people tend to use different terms interchangeably- for ex dynasty & personality cult -latter is an integral part of democracy, former is not! pic.twitter.com/bCBeMyGzJb
— Alok Bhatt (@alok_bhatt) December 1, 2021
क्या लोकतंत्र के नाम पर, जनता से वोट मांगने वाली ये पार्टियां, एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन चुकी हैं ? ये सवाल इसलिए अहम है क्योंकि इन दलों में राजनीतिक उत्तराधिकारी, लोकतांत्रिक तरीके से नहीं, बल्कि खानदान से तय किए जाते हैं। कभी-कभी तो ये सवाल भी उठता है कि ये लोकतांत्रिक पार्टियां हैं या फिर किसी परिवार विशेष की कॉपीराइट संपत्ति? तो आपको बताते हैं कांग्रेस पार्टी से, राजनीति में वंशवाद के बीजारोपण का श्रेय कांग्रेस पार्टी को ही जाता है, जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के बाद, उनकी बेटी इंदिरा गांधी राजनीति में आईं, तब कांग्रेस में गांधी परिवार का कभी ना खत्म होने वाला युग शुरु हो गया। परिवारवाद के दलदल में कांग्रेस ऐसी फंसी कि आजतक गांधी परिवार से बाहर ही नहीं निकल पाई। आज़ादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी, आज़ादी के बाद कहीं ‘गांधी परिवार’ का गुलाम तो नहीं बन गई है?
ये सवाल इसलिए क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी, आज भी गांधी परिवार से इतर, कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए योग्य उम्मीदवार तलाश नहीं कर पाई है।जवाहर लाल नेहरु की बेटी इंदिरा गांधी के राजनीति में आने के बाद से ही गांधी परिवार पर परिवारवाद का आरोप लगा लेकिन तब से लेकर आजतक कांग्रेस कभी भी गांधी परिवार के दायरे से बाहर ही नहीं निकल पाई। इंदिरा गांधी के बाद उनके बेटे संजय गांधी, राजीव गांधी फिर सोनिया गांधी और अब गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी और प्रियंका गांधी राजनीति में अपनी किस्मत आज़मा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आज देश में कांग्रेस ‘फैमिली कंट्रोल’ पार्टी का सबसे बड़ा उदाहरण बन चुकी है।
पार्टियों पर ‘पारिवारिक कंट्रोल’ का कल्चर, कांग्रेस ने शुरु किया और फिर अलग-अलग राज्यों में कई परिवारों ने इसे आगे बढ़ाया। क्षेत्रीय दलों में भी ‘फैमिली कंट्रोल’ का कल्चर तेजी से बढ़ा है। इन पार्टियों में परिवारवाद, जिस कदर हावी रहा है, उससे ये दल सिर्फ ‘वंशवादी पार्टी’ बनते जा रहे हैं।
अब बात करते हैं समाजवादी पार्टी की, सियासत में समाजवाद का सूत्रपात करने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया ने वंशवाद की राजनीति का पुरजोर विरोध किया था। डॉ लोहिया ने सपने में भी ये नहीं सोचा होगा कि उनकी विरासत पर राजनीति करने वाले, समाजवाद की धज्जियां उड़ाकर रख देंगे लेकिन बात-बात पर लोहिया की कसम खाने वाले मुलायम सिंह यादव ने कुछ ऐसा ही किया। लोहिया को गुरु मानने वाले मुलायम सिंह यादव राजनीति में परिवारवाद की सारी सीमाएं लांघ गए, यही वजह है कि आज समाजवादी पार्टी यूपी के साथ साथ देश की सियासत में भी वंशवाद का एक बड़ा उदाहरण है। समाजवादी पार्टी की स्थापना मुलायम सिंह यादव ने 1992 में की थी। आज इस पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव हैं और पार्टी के ज्यादातर प्रमुख पदों पर मुलायम सिंह यादव परिवार के लोग ही हैं।
साल 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की जीत के बाद मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। बाद में अखिलेश यादव सासंद और फिर पार्टी के अध्यक्ष भी बने। अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव भी कन्नौज से समाजवादी पार्टी की सांसद हैं। आज मुलायम सिंह यादव के परिवार के पांच सदस्य सांसद या विधायक हैं। मुलायम सिंह अपने आधे से ज्यादा रिश्तेदारों को राजनीति में ला चुके हैं, जो केन्द्र या उत्तर प्रदेश में अलग-अलग पदों पर कार्यरत हैं।
अब बात करते हैं बिहार की आरजेडी की, खुद को डॉ राम मनोहर लोहिया का शिष्य बताने वाले, लालू यादव ने भी राजनीति में परिवार का परचम बुलंद किया। लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल पर भी एक परिवार विशेष का कंट्रोल है। लालू यादव इस पार्टी में अपनी पत्नी, साले, बेटा और बेटी सभी को शामिल कर चुके हैं। 1997 में लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से अलग होकर, राष्ट्रीय जनता दल की स्थापना की थी। उसके बाद लालू यादव कई सालों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। जब लालू यादव को चारा घोटाला में आरोपी बनाया गया तो उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा देकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया।
इसी दौरान लालू यादव ने अपने दोनों साले साधु यादव और सुभाष यादव की भी राजनीति में एंट्री करा दी। हालांकि पारिवारिक विवाद के बाद ये दोनों लालू यादव से अलग हो गए। वैसे तो लालू यादव आरजेडी के अध्यक्ष हैं लेकिन उनके जेल जाने के बाद से इस पार्टी की कमान उनके बेटे तेजस्वी यादव के हाथों में है। लालू यादव के उत्तराधिकारी को लेकर उनके दो बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी में लंबे वक्त तक विवाद भी रहा। लालू यादव की बेटी मीसा भारती 2016 में राज्यसभा की सदस्य बनी थीं।
अब आपको बताते हैं महाराष्ट्र की एनसीपी में शरद पवार एंड फैमिली के दबदबे की कहानी, शरद पवार को भारतीय राजनीति में भाई-भतीजावाद के लिए याद रखा जाएगा। असल में आज एनसीपी भी पवार की पारिवारिक पार्टी बन कर रह गई है। पवार अपनी तीसरी पीढ़ी को भी अपनी पार्टी के जरिए राजनीति के मैदान में उतार चुके हैं। सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर, कांग्रेस से अलग होकर, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यीमंत्री शरद पवार ने 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई थी लेकिन अब इस पार्टी पर सिर्फ और सिर्फ ‘पवार परिवार’ के हाथों में ही सारी पावर है। शरद पवार ने अपने परिवार के भतीजे, बेटी और अब पोते सभी की एंट्री राजनीति में कराई। शरद पवार के भतीजे अजित पवार फिलहाल महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री हैं, जबकि उनकी बेटी सुप्रिया सुले सांसद हैं। यही नहीं शरद पवार अपने पोते पार्थ पवार को भी अपनी सीट से चुनाव लड़वा चुके हैं।
अब चलते हैं पंजाब और आपको बताते हैं अकाली दल के प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी बनने की कहानी, शिरोमणि अकाली दल की बात करें तो, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने भी, अपने ही परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाने का काम किया है। फिलहाल उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल अकाली दल के अध्यक्ष हैं। वो पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। सुखबीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरत कौर बादल भी सांसद हैं। बादल परिवार के करीब दर्जन भर सदस्य पार्टी के अलग-अलग पदों पर बैठे हुए हैं।
अब बात करते हैं तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके की, दक्षिण भारत का सबसे मजबूत माने जाने वाला करुणानिधि परिवार, पार्टी पर फैमिली कंट्रोल का एक और उदाहरण है। तमिलनाडु की द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम यानी DMK पर ‘करुणानिधि परिवार’ का वर्चस्व है। अपने निधन से पहले करुणानिधि करीब 50 साल तक DMK के अध्यक्ष बने रहे। आज DMK में करुणानिधि के बेटे एम के स्टालिन और उनकी बेटी कनिमोझी का बोलबाला है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के हाथ में डीएमके की कमान है, करुणानिधि के एक और बेटे एम के अलागिरी DMK छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना चुके हैं। करुणानिधि परिवार अक्सर आपसी कलह और भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से सुर्खियों में रहता है। इनमें एम के स्टालिन और कनिमोझी पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लग चुके हैं।
नेशनल कॉन्फ्रेंस पर अब्दुल्ला का कब्जा
अब चलते हैं जम्मू-कश्मीर की तरफ जहां के दो मुख्य सियासी दलों पर अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार की मोनोपॉली है, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस की स्थापना शेख अब्दुल्ला ने चौधरी गुलाम अब्बास के साथ मिलकर 1932 में की थी। पहले इस पार्टी की कमान शेख अब्दुल्ला के हाथों में रही, वो जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रहे। 1982 में शेख की मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला राज्य के मुख्यमंत्री बने और पार्टी के प्रमुख भी। 1996 के चुनाव में अब्दुल्ला ने 87 में से 57 विधानसभा सीटें जीतीं। साल 2000 में फारूक ने कुर्सी छोड़ दी और उनकी जगह उनके बेटे उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बन गए। फिलहाल उमर अब्दुल्ला ही नेशनल कांफ्रेंस के सर्वेसर्वा हैं। अब्दुल्ला परिवार पर हमेशा से ये आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने अपने परिवार के अलावा किसी और को पार्टी में आगे बढ़ने ही नहीं दिया।
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी में ‘मुफ्ती फैमिली’ का कंट्रोल
अब्दुल्ला परिवार की तरह ही जम्मू-कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी परिवारवाद के जंजाल में फंसी हुई है। पीडीपी की स्थापना मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 1999 में की थी। मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री भी बने। 2016 में उनकी मौत के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती इस पार्टी की मुखिया और जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री बन गईं। इसी तरह से महाराष्ट्र में ठाकरे और झारखंड में सोरेन परिवार भी राजनीति में परिवारवाद की मिसाल पेश कर रहे हैं।
उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक राजनीतिक दल तो बदल जाते हैं लेकिन कुछ नहीं बदलता तो वो है इन दलों का परिवारवाद। ऐसे में आपके लिए ये जानना भी दिलचस्प है कि क्या मौजूदा वक्त में अपने परिवार को राजनीति में आगे बढ़ाने के ट्रेंड में कोई बदलाव आया है? फिलहाल तो ऐसा नहीं दिखता। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एकमात्र ऐसी मिसाल हैं, जिन्होंने ना सिर्फ अपने परिवार को राजनीति से दूर रखा बल्कि वे खुद को भी परिवार से दूर रखते हैं। भारत में अब तक जितने भी प्रधानमंत्री हुए हैं, वे सब अपने परिवार के साथ ही प्रधानमंत्री आवास में रहे लेकिन प्रधानमंत्री मोदी leader with a difference हैं और यही वजह है कि वो प्रधानमंत्रियों की उस फेहरिस्त में एक अपवाद की तरह हैं। देशसेवा के लिए परिवार से दूरी का आदर्श पेश करने के बाद भी मोदी राजनीति में परिवार के सदस्यों के आने की आलोचना नहीं करते।