
भारत के मनोनीत मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीआर गवई का मानना है कि सोशल मीडिया पर न्यायालय को बदनाम करने वाले और न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत हमले करने वाले ट्रोल्स से सख्ती से निपटा जाना चाहिए। बिल्कुल ऐसा किया जाना चाहिए, लेकिन ट्रोलर्स पर ध्यान दिए जाने से बेहतर है कि न्यायिक व्यवस्था में सुधार पर ध्यान दिया जाए। कॉलेजियम व्यवस्था पर अक्सर सवाल उठते हैं, उस पर ध्यान दिया जाए। न्यायपालिका की पारदर्शिता पर ध्यान दिया जाए।
ट्रोलर्स तो कुछ भी बोलते हैं, उनके बोलने पर यदि न्यायालय ध्यान देंगे तो न्याय कैसे कर पाएंगे। जब कोई न्यायमूर्ति सरकार पर या अन्य किसी ऐसे विषय पर जिससे जनमानस आहत होते हैं, उन पर टिप्पणी करते हैं तो भावावेश में आकर लोग सोशल मीडिया पर कुछ लिख देते हैं। ऐसे में न्यायमूर्तियों को यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि वह ऐसी टिप्पणियों से बचें। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों एक याचिका की सुनवाई करते हुए माननीय न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि रोहिंग्याओं के बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य का अधिकार दिया जाना चाहिए। केवल इसलिए कि उन्हें पास वैध कागज नहीं हैं, इससे वंचित नहीं कर सकते।
वे भारत के नागरिक नहीं हैं, वे शरणार्थी भी नहीं हैं, वे घुसपैठिए हैं जो देश में घुस आए हैं। बावजूद इसके यह आदेश देते हुए न्यायालय ने याचिका का निपटारा कर दिया। इस पर लोगों को भी आपत्ति हुई कि आखिर क्यों देश के संसाधनों का प्रयोग घुसपैठियों को करने दिया जाए। अब यदि कोई इस विषय पर सवाल उठाते हुए सोशल मीडिया पर कुछ लिख तो इसे न्यायालय को बदनाम करने वाली बात कैसे माना जा सकता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी न्याय व्यवस्था, हमारे न्यायालयों की बहुत बड़ी गरिमा है, उनकी गरिमा का ध्यान रखना हर देशवासी का कर्तव्य है, लेकिन कई बार न्यायमूर्तियों द्वारा की गई टिप्पणियां भी सुर्खियां बटोरती हैं, जबकि वह उनके फैसलों में नहीं आती। यानी वह सिर्फ मौखिक टिप्पणियां होती हैं। कई लोगों को वह पसंद नहीं आती। ऐसे में किसी के कुछ लिख भर देने से न्यायालय की अवमानना कैसे हो सकती है।
सोशल मीडिया पर लिखने वाला जरूरी तो नहीं कि कानून का जानकार हो, हो सकता है वह भावावेश में आकर कुछ लिख गया हो। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि बोलने की स्वतंत्रता मतलब स्वछंदता नहीं है, लेकिन इतने बड़े देश में जहां न्यायालयों में वैसे भी न्यायाधीशों की कमी है। लाखों केस सालों—साल पेंडिंग पड़े रहते हैं, ऐसे में यदि न्यायालय इन सब चीजों पर ध्यान देंगे तो फिर समय पर न्याय कैसे दे पाएंगे। भारतीय लोकतंत्र, भारत के न्यायालयों की एक गरिमा है, प्रतिष्ठा है, उस प्रतिष्ठा को किसी के बोलने भर से ठेस कैसे पहुंच सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता आशीष राय कहते हैं, ”जस्टिस वर्मा के मामले में सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा गया। उनके घर से बड़ी मात्रा में जले हुए नोट मिले। माननीय न्यायालय द्वारा बनाई गई जांच समिति की रिपोर्ट में भी उन पर लगे आरोपों को सही पाया गया। उन्हें इस्तीफा देने को कहा गया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। यदि उनकी जगह कोई आम नागरिक या नौकरशाह होता तो क्या वह ऐसा कर सकता था, तो जवाब है नहीं, यह अधिकार किसी को प्राप्त नहीं है। अब जब ऐसा होगा तो लोग कुछ न कुछ तो लिखेंगे। अब यदि माननीय न्यायालय उस लिखे हुए को आधार पर बनाकर हर सोशल मीडिया पर वाले लिखने वाले व्यक्ति पर कार्रवाई करे तो ऐसा तो ठीक नहीं है।”
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।