
मुंबई उपनगरीय उपभोक्ता अदालत ने हाल ही में एक मामले का फैसला करते हुए टिप्पणी की कि यदि मांसाहारी भोजन से उसकी भावनाएं आहत होती हैं तो उसे ऐसे रेस्टोरेंट में ऑर्डर देना चाहिए था जहां केवल शाकाहारी भोजन ही मिलता हो। बात छोटी सी जरूर है लेकिन विषय गंभीर है। क्या न्यायालय को यह अधिकार भी है कि वह बताए कि कहां से भोजन का ऑर्डर देना है, कहां नहीं देना। यदि किसी रेस्टोरेंट में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन मिलते हैं और किसी व्यक्ति को मांसाहारी भोजन परोस दिया जाता है तो इसके लिए भी वह व्यक्ति ही दोषी कैसे हो सकता है।
न्यायालय द्वारा इस तरह की अनावश्यक टिप्पणी करने की जरूरत ही क्या थी? यदि शिकायत को सही नहीं पाया गया था तो दावा खारिज कर देना था, बस इतना ही काम उपभोक्ता अदालत का था, लेकिन यहां पर जो बिना बात का ज्ञान दिया गया वह तर्कसंगत तो कतई नहीं है। भारतीय न्यायपालिका में हाल के वर्षों में ऐसे अनावश्यक और उपदेशात्मक टिप्पणियों की प्रवृत्ति बढ़ी है, जो अक्सर न्यायिक निर्णय के केंद्र से भटक जाती हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय और कई उच्च न्यायालय भी समय-समय पर इस प्रवृत्ति पर चिंता जता चुके हैं।
सर्वोच्च न्यायालय स्पष्ट रूप से यह कह चुका है कि न्यायाधीशों को अनावश्यक टिप्पणियों से बचना चाहिए, क्योंकि ये टिप्पणियां अक्सर व्यक्तिगत धारणा या पूर्वाग्रह पर आधारित होती हैं। इस तरह की टिप्पणी किसी विवाद के समाधान के लिए आवश्यक नहीं होतीं। ऐसी टिप्पणियां न केवल संबंधित पक्ष की छवि और अधिकारों को प्रभावित करती हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता और गरिमा पर भी प्रश्नचिह्न लगाती हैं। न्यायिक अतिरेक और न्यायिक सक्रियता के बीच एक महीन रेखा होती है। जब न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़कर नीति-निर्धारण या कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगते हैं, तो उसे न्यायिक अतिरेक कहा जाता है। इस तरह जब न्यायालय अपने निर्णयों में अनावश्यक सामाजिक, नैतिक या व्यक्तिगत उपदेश जोड़ देता है, तो वह न्यायिक संयम की मर्यादा का उल्लंघन करना है।
न्यायालय का काम न्याय करना है, यदि अपने फैसले के संदर्भ में उसे कोई टिप्पणी करनी भी है तो वह उसके फैसले में भी आनी चाहिए। हालिया मामले में भी न्यायालय की टिप्पणी के चलते ही खबर बनी और सुर्खियों में आई। नहीं तो ऐसे सैकड़ों मामले विभिन्न उपभोक्ता अदालतों में आते हैं, रोजाना फैसले होते हैं, कोई खबर नहीं बनती, लेकिन इस मामले में उपभोक्ता अदालत ने कहा कि यदि आपकी धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं तो आपको ऐसे रेस्टोरेंट से ऑर्डर करना चाहिए जहां केवल शाकाहारी भोजन मिलता हो। आपने ऐसे रेस्टोरेंट से ऑर्डर ही क्यूं किया जहां दोनों तरह का भोजन मिलता है।
इस मामले में फैसला देते हुए न्यायाधीश ने अपनी व्यक्तिगत राय शामिल कर दी। जिसका कोई अर्थ नहीं था। न्यायाधीश न्याय करने के लिए नियुक्त होते हैं, लेकिन यदि वह स्वयं को समाज सुधारक समझ ले तो ठीक नहीं है। ऐसा होने पर भी न्यायिक अतिरेक में इस तरह की टिप्पणी सामने आती है। संविधान ने न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्रों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है। न्यायिक आदेशों की भाषा और शैली में व्यक्तिगत या भावनात्मक प्रतिक्रिया का दिखाई देना, न्यायिक मर्यादा के अनुरूप नहीं है।
मुंबई में उपभोक्ता अदालत का का आदेश इसी प्रवृत्ति का उदाहरण है, जिसमें विवाद के समाधान के बजाय उपभोक्ता की पसंद और धार्मिक भावना पर अनावश्यक उपदेशात्मक टिप्पणी कर दी गई। यह न केवल न्यायिक मर्यादा के विरुद्ध है, बल्कि उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा में भी बाधक है। न्यायालय को ऐसे किसी भी मामले में टिप्पणी करने से पहले संयम और विवेक का पालन करने की जरूरत है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि केवल उन्हीं बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए टिप्पणी की जाए तो उस विवाद के समाधान के लिए आवश्यक हो।
इस टिप्पणी से ऐसा प्रतीत होता है जैसे इस देश में रहने वाले शाकाहारियों का कोई न्यायिक अधिकार नहीं है और मांसाहारी और शाकाहारी दोनों तरह का खाना परोसने वाले रेस्टोरेंट्स की शाकाहारी ग्राहकों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं होती है। इस तरह की अनावश्यक टिप्पणियां न केवल संबंधित पक्षों की प्रतिष्ठा और अधिकारों को प्रभावित करती हैं, बल्कि न्यायिक आदेशों की वैधता और स्वीकार्यता पर भी असर डालती हैं। इसके चलते ही न्यायपालिका की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं। किसी भी प्रकार की गैर-जरूरी टिप्पणी न्यायालय की गरिमा के विपरीत है, इससे न्यायिक प्रणाली की साख को नुकसान होता है।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।