Coronavirus: कोरोना की दूसरी लहर पर सरकार से अब तक पूछे गए जो भी सवाल, यहां हैं उन सभी के जवाब
Coronavirus: आखिर महामारी के दौर में चुनाव क्यों कराए गए। इससे पीछे की संवैधानिक मजबूरी समझनी भी बेहद जरूरी है। चुनाव समय से कराना एक संवैधानिक जरूरत है क्योंकि छह महीने में एक बार विधानसभाओं की बैठक एक संवैधानिक बाध्यता है। इसे रोकने का मतलब तबाही को न्योता देना है। ये पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी है।
कोरोना की दूसरी लहर को लेकर भारत सरकार से कई तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं। बड़ा सवाल यही है कि क्या सरकार नाकाम हुई है या फिर इसने अपने पास मौजूद सभी संसाधनों का समुचित और सही दिशा में इस्तेमाल सुनिश्चित किया है? इन सवालों के सही जवाब बेहद जरूरी हैं क्योंकि इससे देश में कोरोना की असली तस्वीर साफ हो सकेगी। सबसे पहला सवाल इस बात का कि क्या भारत कोरोना की दूसरी लहर का अनुमान लगा सकने में नाकाम साबित हुआ। इस सवाल को तथ्यों की रोशनी में देखते हैं। भारत में एक जनवरी से दस मार्च 2021 के बीच कोरोना के नए मामले 20 हजार प्रतिदिन से भी कम आ रहे थे। एक समय ये घटकर 10 हजार तक पहुंच गए। बीबीसी ने 15 फरवरी 2021 में एक लेख छापा जिसका शीर्षक कहता था कि क्या भारत में महामारी अब समाप्ति की ओर बढ़ रही है। न्यूयार्क टाइम्स, वाल स्ट्रीट जर्नल और कई दूसरे अंतराष्ट्रीय पब्लिकेशन भी इसी दिशा में लिख रहे थे। मगर मोदी सरकार इससे बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थी। सरकार की ओर से जनवरी और फरवरी में जब कोरोना से आंकड़े बेहद कम थे, राज्य सरकारों को एडवाजयरी भेजी गई कि वे किसी भी सूरत में कोताही न बरतें। कोरोना को लेकर अलर्ट रहें। 17 मार्च को जब कोरोना के मामले 20 हजार से भी कम थे, खुद पीएम मोदी ने सभी चीफ मिनिस्टर्स के साथ मीटिंग की और उन्हें जरूरी ऐहतियात बरतने की हिदायत दी। दरअसल कई राज्य सरकारों से चूक हुई। खासकर महाराष्ट्र, केरल, दिल्ली, छत्तीसगढ़, पंजाब और कर्नाटक में जहां से कोरोना की दूसरी लहर के पैदा होने की जानकारी सामने आई। जब तक राज्य जागे, कोरोना की दूसरी लहर पूरी तीव्रता से आगे बढ़ चुकी थी।
अगला सवाल चुनाव को लेकर है कि आखिर महामारी के दौर में चुनाव क्यों कराए गए। इससे पीछे की संवैधानिक मजबूरी समझनी भी बेहद जरूरी है। चुनाव समय से कराना एक संवैधानिक जरूरत है क्योंकि छह महीने में एक बार विधानसभाओं की बैठक एक संवैधानिक बाध्यता है। इसे रोकने का मतलब तबाही को न्योता देना है। ये पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी है। भारत में बिहार में भी इन्हीं हालातोँ में पिछले साल नवंबर में चुनाव कराए गए। जहां तक चुनावी रैलियों का सवाल है तो बीजेपी ने ही पिछले साल बिहार चुनावों से पहले चुनाव आयोग को ये सलाह दी थी कि फिजिकल रैलियों की जगह वर्चुअल रैलियां की जाएं मगर उस वक्त सभी राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क था कि बीजेपी अधिक संगठित पार्टी है, इसलिए उसे वर्चुअल दुनिया में अधिक फायदा होगा। सो हर राजनीतिक दल ने जमकर रैलियां कीं। राहुल गांधी ने केरल में बड़े-बड़े रोड शो किए। ममता बनर्जी ने भी बड़ी रैलियां कीं। अब यहां भी आंकड़े एक अलग ही तस्वीर बयां करते हैं। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, दिल्ली या फिर पंजाब में कोई चुनाव नहीं थे, इसके बावजूद मार्च के आखिर तक इन राज्यों में तेजी से कोरोना पीड़ितों की संख्या बढ़ने लगी। सो कोरोना के बढ़ते मामलों का चुनावों से कोई सरोकार नहीं पाया गया।
एक सवाल कुंभ को लेकर भी है कि आखिर हरिद्वार में कुंभ का आयोजन क्यों किया गया। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि कुंभ के समय और स्थान का आयोजन संत करते हैं, न कि सरकार। चूंकि जनवरी और फरवरी में कोरोना के मामले कम हो रहे थे, इसलिए इसके आयोजन को हरी झंडी दी गई। बावजूद इसके कुंभ में प्रवेश, टेस्टिंग और क्वारंटीन के लिए कड़े प्रोटोकॉल का पालन किया गया। एक अप्रैल को जब कुंभ शुरू हुआ, उस वक्त तक भारत में 72 हजार मामले थे। इनमें से छह राज्यों (महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़, केरल, कर्नाटक, दिल्ली और पंजाब) का हिस्सा 76 फीसदी था। इनका कुंभ से कोई लेना देना नहीं था। जबकि उत्तराखंड में एक अप्रैल को सिर्फ 293 मामले थे। 8 अप्रैल को ये मामले 1100 हुए। फिर भी जैसे ही महामारी ने पांव पसारने शुरू किए, पीएम मोदी ने खुद हस्तक्षेप किया और तय समय से पहले ही कुंभ को समाप्त करने के लिए संतों से प्रार्थना की। वही हुआ भी।
सवाल भारत की टीकाकरण रणनीति को लेकर भी उठाए गए हैं। इससे जुड़े तथ्य भी दूसरी ही तस्वीर पेश करते हैं। देश में अब तक 17.3 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगवाई जा चुकी है जो पूरी दुनिया में सबसे तेज है। अब भारत से बाहर भेजी गई वैक्सीनों का भी सच जान लीजिए। भारत ने सिर्फ 66.3698 मिलियन वैक्सीन बाहर भेजी हैं जबकि इसकी तीन गुना वैक्सीन देश में लगाई जा चुकी हैं। बाहर भेजी गई वैक्सीनों में भी अनुबंध के तहत बाहर भेजी गई वैक्सीनें शामिल थीं क्योंकि जिन देशों से कच्चा माल लिया गया, उन्हें वैक्सीन भेजना अनुबंध की शर्तों के मुताबिक था। देश में मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी की बाबत भी जो जरूरी तथ्य हैं, वे इस दिशा में की गई कोशिशों की एकदम नई तस्वीर पेश करते हैं। देश में 25 मार्च 2020 तक केवल 10180 आइसोलेशन के बेड्स मौजूद थे। आज इनकी संख्या 1.6 मिलियन से भी अधिक है। इसी बीच में आईसीयू बेड्स की संख्या भी 2168 से बढ़कर 92000 हो चुकी है। पीएम केयर फंड के तहत देश में तेजी से ऑक्सीजन प्लांट स्थापित किए जा रहे हैं। डीआरडीओ भी तेजी से ऑक्सीजन कंट्रोल सिस्टम डेवलप करने में जुटा हुआ है। भारत इस लड़ाई को पूरी ताकत से लड़ रहा है और इसमें हमारी जीत तय है।