
लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर एसएन सुब्रह्ममण्यम ने कहा है कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से मिल रही सुविधाओं के चलते मजदूर काम नहीं करना चाहते हैं। निर्माण उद्योग को मजदूर मिलने में कठिनाई हो रही है, क्योंकि लोग काम के लिए घर छोड़ने के इच्छुक नहीं हैं। मनरेगा, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर और जन धन खातों जैसी सरकारी योजनाएं इसकी वजह हैं। सुब्रह्ममण्यम ने जो कहा कहीं हद तक वह ठीक भी है। कल्याणकारी योजनाएं लोगों के लिए जरूरी हैं लेकिन मुफ्तखोरी उन्हें नाकारा बना रही है। इसका सबसे बड़ा कारण सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में दिए जाने वाले प्रलोभन हैं। ऐसी लोकलुभावन घोषणाओं को पूरा करने की कीमत राज्य के विकास को और बाकी नागरिकों को चुकानी पड़ती है। सरकार विकास के लिए धन का प्रबंध करे भी तो कैसे? उसके राजस्व का एक बड़ा हिस्सा तो लोकलुभावन वादों को पूरा करने में खर्च हो जाता है।
मुफ्तखोरी पर सुप्रीम कोर्ट ने भी सख्त टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि मुफ्त योजनाओं और मुफ्त उपहारों के कारण ही लोग काम करने के इच्छुक नहीं हैं। क्योंकि उन्हें बिना काम किए मुफ्त राशन और धनराशि मिल रही है। सरकार को लोगों को मुफ्तखोरी में शामिल न करके उन्हें राष्ट्र के विकास में योगदान के लिए प्रेरित करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार ऐसा कहा हो। वर्ष 2013 में एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर कहा था,कि ”किसी भी प्रकार की मुफ्तखोरी बड़े स्तर पर लोगों को प्रभावित करती है। इसके चलते स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की बुनियाद कमजोर होती है।” चुनाव आयोग भी सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने हलफनामे में यह कहा चुका है कि मतदाताओं को रिझाने के लिए रेवड़ी संस्कृति और मुफ्तखोरी राजकोषीय आपदा बन सकती है। यह देश के विकास की राह में रोड़ा है।
बावजूद इसके ऐसी ही लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा कर राजनीतिक दल विभिन्न राज्यों में सरकारें बना रहे हैं।
उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश की ‘लाड़ली बहना योजना’ को ही लें। पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों से पहले इस योजना की घोषणा की गई थी। इस योजना के तहत 23 से 60 वर्ष तक की हर महिला को हर महीने 1250 रुपए दिए जाते हैं। ऐसी ही कर्नाटक में कांग्रेस सरकार की ‘गृह लक्ष्मी योजना’ चल रही है। इस योजना के तहत राज्य सरकार द्वारा एक करोड़ से अधिक महिलाओं के खाते में हर माह 2000 रुपए सरकार द्वारा डाले जाते हैं। झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इसी तरह की मुख्यमंत्री ‘मंईयां सम्मान योजना’ शुरू की है। जिसके तहत हर साल महिलाओं को सालाना 12 हजार रुपए दिए जा रहे हैं। महिलाओं को हर महीने 1000 रुपए देने का वादा करके पंजाब में आम आदमी पार्टी भी सत्ता में आई थी ये बात दीगर है कि योजना वहां पर शुरू नहीं हुई।
दिल्ली में भी 27 साल बाद भाजपा सत्ता में आई है। चुनावों से पहले उसने भी हर माह महिलाओं को 2500 रुपए देने और पहले से मिल रही सारी मुफ्त सुविधाओं को जारी रखने की घोषणा की थी। नतीजतन वह सत्ता पाने में कामयाब रही। जाहिर है हजारों करोड़ रुपए इन योजनाओं में जाएंगे वह आएंगे कहां से? कहीं न कहीं तो कटौती सरकार को करनी ही होगी। इसका खामियाजा वहां के लोगों को भुगतना पड़ेगा। इस राशि से जो विकास कार्य हो सकते थे वह नहीं होंगे। पिछले दस—पंद्रह सालों से ऐसे वादों की बाढ़ आ गई है।राजनीतिक दल मतदाता को प्रलोभन देते हैं और मतदाता उसका शिकार हो जाता है।
मतदाताओं को राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था, नागरिक सुविधाएं, बिजली-पानी आदि के ठोस वादों को देखना चाहिए, लेकिन वह यह देखता है कि किस दल ने उन्हें क्या-क्या मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने के वादे किए हैं। जब मुफ्त में ही घर बैठे बिठाएं आपको पैसे मिल जाएंगे। राशन फ्री मिल जाएगा। बिजली के बिल माफ हो जाएंगे। ऐसे में काम करना कौन चाहेगा? सरकार ने गांवों में कच्चे मकानों की जगह पक्के मकान बनाकर दे दिए। बच्चों को मुफ्त में शिक्षा मिल रही है। विभिन्न योजनाओं का लाभ मिल रहा है ऐसे में कोई काम करने अपने घर से बाहर क्यों निकलना चाहेगा?
मुफ्त भोजन और मुफ्त उपहार का मॉडल अतीत में कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को बर्बाद कर चुका है। लैटिन अमेरिकी देशों—ब्राजील और वेनेजुएला इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। जहां सब्सिडी और ऐसी ही सुविधाओं के चलते अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई। मुफ्त बिजली, पानी, चिकित्सा सेवाएं और अन्य सुविधाएं वोट हासिल करने के लिए रिश्वत की तरह काम करती हैं। आर्थिक गतिविधियों को गति प्रदान करने के लिए होने वाले बड़े विकास कार्य धन की कमी के कारण पिछड़ जाते हैं।
जो मुफ्त सुविधाएं दी जाती हैं उसकी लागत का भार पूरे समाज पर पड़ता है। यह आर्थिक विकास को तो बाधित करता ही है लोगों को आलसी और अपव्ययी भी बना देता है। लोगों में काम करने और खुद को आगे बढ़ाने की इच्छा ही नहीं रहती। देश संविधान के अनुसार चलता है। लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। एक सशक्त व्यवस्था होनी चाहिए जो उनके अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। सभी के लिए निष्पक्षता, न्याय और कल्याण सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना उनके अधिकारों की रक्षा करना और कल्याण करना नहीं बल्कि उन्हें पंगु बनाना है। यह एक पूरी नस्ल को बर्बाद करने जैसा है।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।