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राहुल गांधी जो खुद बिना किसी मेरिट के कांग्रेस के सर्वेसर्वा बने हैं, ऐसे में उन्हे मेरिट से चिढ़ होना तो स्वाभाविक है !

राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस 2011 से अभी तक 90 चुनाव हार चुकी है। इसमें तीनों लोकसभा और राज्यों के विधानसभा व अन्य चुनाव शामिल हैं। फिर भी बिना किसी मेरिट के राहुल गांधी कांग्रेस के सर्वमान्य नेता बने हुए हैं।

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव थोराट के साथ चर्चा के दौरान कहा कि योग्यता या मेरिट की अवधारणा पूरी तरह से दोषपूर्ण अवधारणा है। जाहिर है यह राहुल गांधी का राजनीतिक कथन है। जोरों—शोरों से वह जातिगत जनगणना किए जाने, जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की ढिंढोरा पीट रहे हैं। विरासत टैक्स लगाए जाने की वकालत कर चुके हैं। बहरहाल इन तमाम मुद्दों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, यहां सवाल राहुल गांधी के उस कथन का है जिसमें वह योग्यता यानी मेरिट की अवधारणा को पूरी तरह नकार रहे हैं। आखिर क्यों?

भले ही यह कथन राजनीति के चलते दिया गया हो, लेकिन इसके बड़े गहरे निहितार्थ हैं, राहुल गांधी योग्यता को इसलिए नकार रहे हैं क्योंकि वह खुद बिना किसी योग्यता के कांग्रेस के सर्वमान्य नेता बने हुए हैं। राहुल गांधी का व्यक्तिगत और राजनीतिक सफर जो भी है क्या उसके पीछे उनकी योग्यता है? तो इसका जवाब है नहीं। 2004 में वह राजनीति में आए और अमेठी से लोकसभा चुनाव जीता। तब से वह लगातार संसद सदस्य रहे हैं, चाहे वह अमेठी से हों या वायनाड से। लेकिन उनकी सफलता क्या उनकी व्यक्तिगत योग्यता का परिणाम है?

उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि देखें, उनके नाना जवाहरलाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी—तीनों प्रधानमंत्री रहे। राहुल गांधी आज जहां भी हैं वह सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार की विरासत और कांग्रेस की उस परंपरा का परिणाम है, जहां परिवारवाद को प्राथमिकता दी जाती है। यदि वह इस परिवार से न होते, तो क्या वे कांग्रेस के सर्वमान्य नेता बन पाते? क्या 2011 से अब तक 90 चुनाव हारने के बाद भी पार्टी उन्हें स्वीकार करती? इसका जवाब साफ है—नहीं। दुनिया के किसी भी देश में ऐसा नहीं होता।

एक तरफ जहां पूरी दुनिया योग्यता को प्राथमिकता देती है, दूसरी तरफ राहुल गांधी योग्यता पर ही सवाल उठा रहे हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में हैं। राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका में सिर्फ योग्यता ही आधार होगा, बाकी कुछ नहीं है। ट्रंप के सत्ता में आने से पहले भी अमेरिका में ऐसा ही था, वहां योग्यता का आधार स्पष्ट दिखता है—चाहे वह राजनीति हो, बिजनेस हो या नौकरी। उदाहरण के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा को देखें। मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले ओबामा ने हार्वर्ड लॉ स्कूल में अपनी पढ़ाई पूरी की, पार्टी में कार्यकर्ता के रूप में काम किया। एक—एक कदम बढ़ते हुए सीनेटर से राष्ट्रपति तक का सफर तय किया। वह पैराशूट से वहां नहीं पहुंचे थे, न ही कोई पारिवारिक विरासत के चलते अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे। इसी तरह, जो बाइडन ने भी दशकों तक सीनेटर के रूप में काम किया, उपराष्ट्रपति बने, और फिर 2020 में अपनी योग्यता के बल पर राष्ट्रपति चुने गए।

यूरोप में भी यही पैमाना लागू होता है। जर्मनी की पूर्व चांसलर एंजेला मर्केल एक वैज्ञानिक थीं। उनकी कोई पारिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, उन्होंने 16 साल तक जर्मनी का नेतृत्व किया। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री रहीं मार्गरेट थैचर, साधारण परिवार से थीं। उन्होंने अपनी काबिलियत के बल पर कंजर्वेटिव पार्टी का नेतृत्व संभाला और वहां की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। बिजनेस की दुनिया में भी यही सिद्धांत लागू होता है। उदाहरण के तौर पर बिल गेट्स, मार्क जुकरबर्ग, एलन मस्क, भारत में धीरुभाई अंबानी, अडानी, टाटा—अनेक ऐसे उद्योगपति हैं जो काबिलियत के बल पर इतनी ऊंचाई पर पहुंचे हैं।

इसके उलट, राहुल गांधी को सब कुछ थाली में परोस कर मिला। कांग्रेस में उनकी स्थिति उनकी योग्यता से नहीं, बल्कि परिवार के नाम से तय हुई। 90 चुनाव हारने के बाद भी उनकी कुर्सी अडिग है, क्योंकि कांग्रेस में लोकतंत्र की जगह परिवारवाद हावी है। राहुल गांधी का योग्यता को नकारना और बार—बार जातिगत जनगणना, जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी दावेदारी का ढिंढोरा पीटना सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक चाल है। वे योग्यता की बात इसलिए नहीं करते, क्योंकि उनके पास दिखाने को कुछ नहीं है। अमेरिका और यूरोप में जहां योग्यता से ही सब कुछ तय होता है, वहीं राहुल गांधी भारत को उल्टे रास्ते पर ले जाना चाहते हैं—जहां व्यक्तिगत काबिलियत की जगह जन्म और जाति को तरजीह दी जाए। राहुल गांधी को यह पता होना चाहिए कि योग्यता कोई साजिश नहीं, बल्कि वह मापदंड है जो समाज को आगे ले जाता है। लेकिन जब खुद की योग्यता शून्य हो, तो उसकी अवधारणा को ही खारिज करना बड़ा आसान रास्ता लगता है।

यहां एक बात पर विचार किए जाना बेहद जरूरी है। राहुल गांधी दलितों—पिछड़ों और आदिवासियों के हक और उनके अधिकारों की बात कर रहे हैं, तो उसके पीछे उनका एजेंडा है, सत्ता पाना। दूसरा वह जिस मानसिकता से ग्रस्त हैं, वह वामपंथी मानसिकता है। जातिगत वैमनस्य फैलाकर समाज में द्वेष फैलाकर किसी भी तरह से सत्ता की चाबी मिल जाए, यही उनका एकमात्र उद्देश्य है। जातिगत जनगणना कराने की बात करना, जिसकी जितनी हिस्सेदारी उतनी उसकी साझेदारी और विरासत टैक्स जैसी बातें उठाना वामपंथी मानसिकता का उदाहरण है।

राहुल गांधी का योग्यता (मेरिट) की अवधारणा को नकारने वाला बयान यह दर्शाता है कि वे एक ऐसी विचारधारा को बढ़ावा देना चाहते हैं जो तथ्यों और वैश्विक मानकों के विपरीत है। उनका यह कथन कि योग्यता को मापने का पैमाना ठीक नहीं है और इसे सामाजिक स्थिति से जोड़कर भ्रमित किया जाता है, न सिर्फ अतार्किक है, बल्कि यह उनके खुद के नेतृत्व की कमजोरियों को छिपाने का प्रयास है। चूंकि उनमें खुद योग्यता का अभाव है, योग्य व्यक्ति यदि आगे आएंगे तो उनको ही खतरा होगा, इसलिए अपनी खामियों को छिपाने के लिए योग्यता को दोषपूर्ण बताकर वह केवल और केवल वह अपनी कमियों पर पर्दा डाल रहे हैं। सामाजिक मुद्दों को वह हथियार इसलिए बना रहे हैं ताकि इस बहाने अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकें।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।