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स्टालिन को आने वाले चुनावों में दिख रही हार, झूठा हिंदी विरोध सिर्फ सत्ता बचाने की कवायद !

जनता को जो वादे किए थे वो तो पूरे नहीं किए। अब जनता से वोट भी मांगे भी तो किस आधार पर। हिंदी भाषा को थोपे जाने का निरर्थक आरोप लगाकर राजनीति करना शर्मनाक और ओछापन

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने सिर्फ और सिर्फ चुनावों के लिए हिंदी थोपे जाने की बात कहकर भाषाई विवाद खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। असल में तमिलनाडु में 2026 में होने वाले विधानसभा चुनावों में स्पष्ट तौर पर उन्हें अपनी हार नजर आ रही है। उन्होंने पिछली बार सत्ता पाने के लिए चुनावों के दौरान तमिलनाडु की जनता से जो वादे किए थे, उन्हें वह पूरा नहीं कर सके। अब, जनता को बताने के लिए उनके पास कुछ भी ऐसा नहीं है जिसके आधार पर वह लोगों से वोट मांग सके। इसलिए वह दशकों पुराने इस विवाद को फिर से हवा दे रहे हैं। उनकी मंशा केवल दक्षिण में लोगों की भावनाएं भड़काने की है, ताकि यह विवाद फिर से खड़ा हो और इसका चुनावी फायदा उनकी पार्टी ‘द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ यानी द्रमुक को मिल सके।

यह विवाद आज का नहीं है बल्कि आजादी मिलने से पहले ही खड़ा किया गया था। एमके स्टालिन लगातार दस सालों तक तमिलनाडु की सत्ता से बाहर थे। 2021 में उन्हें सरकार बनाने का मौका मिला। स्टालिन ने 2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में कई बड़े वादे किए थे, जो वह पूरे नहीं कर पाए। उदाहरण के तौर पर, युवाओं के लिए 10 लाख से ज्यादा नौकरियां सृजित करने का वादा, महिलाओं को हर माह 1000 रुपए महीने देने का वादा, स्टार्टअप और छोटे व्यवसायों को सरकारी सहायता देने का वादा, घरेलू सिलेंडर की कीमतों में कमी किए जाने जैसे कई महत्वपूर्ण वादे ऐसे थे जो स्टालिन सरकार को पूरा करने थे, लेकिन नहीं किए गए।

अब 2026 में तमिलनाडु में चुनाव होने हैं। ऐसे में स्टालिन सरकार के पास जनता के बीच में जाकर वोट मांगने के लिए कोई बहाना नहीं है। जाहिर जनता के बीच में जाकर वोट मांगने के लिए कोई तो आधार होना चाहिए। ऐसे में स्टालिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत तीन-भाषा फार्मूले के माध्यम से हिंदी थोपे जाने का झूठा विमर्श खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि बरसों पुराने विवाद को फिर से हवा दी जा सके। हालांकि एनईपी में स्पष्ट है कि आपको दो भारतीय भाषाएं और एक विदेशी भाषा स्कूलों में पढ़ानी है। इसमें हिंदी की बाध्यता कहीं नहीं हैं। बावजूद इसके इस मुद्दे को हवा दी जा रही है ताकि तमिल अस्मिता के नाम पर तमिलनाडु के लोगों को उत्तर भारतीयों और हिंदी के खिलाफ भड़काकर वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सके।

कई हिंदी फिल्मों में नजर आ चुके वामपंथी विचारों वाले फिल्म अभिनेता प्रकाश राज ने भी हिंदी थोपे जाने की बात कही है। हालांकि इस मामले में राजनीति कर रही द्रमुक को जवाब भी दक्षिण से ही मिलने शुरू हो गए हैं। फिल्म अभिनेता से करियर शुरू कर राजनेता बने आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने कहा है, ”राजनीति के लिए हिंदी विवाद खड़ा किया जा रहा है। जबकि तमिल फिल्मों को हिंदी में डब करके पैसा भी कमाया जा रहा है।” पिछले दिनों तमिलनाडु के ही रहने वाले ‘जोहो ‘ जैसी बड़ी आईटी कंपनी के संस्थापक श्रीधर वेंबू ने तमिलनाडु के युवाओं से हिंदी सीखने की अपील की थी। साथ ही उन्होंने इस विषय पर हो रही राजनीति से भी दूर रहने को कहा था। उन्होंने कहा था, ” हिंदी न जानने के कारण तमिलनाडु के कर्मचारी उत्तर भारत में कार्य करने में असमर्थ होते हैं। हिंदी न जानने के कारण उन्हें खुद भी कठिनाई होती है। वे पिछले पांच सालों से हिंदी सीख रहे हैं और अब हिंदी की बातचीत को थोड़ा समझ लेते हैं।”

एक तरफ तो एमके स्टालिन हिंदी विरोध का झंडा बुलंद किए हैं। वहीं उनके विरोध की पोल खुद तमिलनाडु के स्कूलों में हिंदी पढ़ रहे छात्रों की संख्या खोल रही है। तमिलनाडु के पब्लिक स्कूलों में बड़ी संख्या में छात्र हिंदी पढ़ रहे हैं।
तमिलनाडु के रहने वाले नामी अर्थशास्त्री एस गुरुमूर्ति के अनुसार, ”तमिलनाडु में सीबीएसई स्कूलों में 60 लाख बच्चे हिंदी पढ़ रहे हैं। इस तरह दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की परीक्षा में पांच लाख छात्रों ने भाग लिया है। सिर्फ सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़ने वाले 83 लाख छात्रों को हिंदी नहीं पढ़ाई जा रही है। तमिलनाडु के 43 प्रतिशत छात्र हिंदी पढ़ सकते हैं।”

जब तमिलनाडु में 43 प्रतिशत छात्र हिंदी पढ़ने में सक्षम हैं तो फिर हिंदी विरोध जैसी कोई बात तो यहां पर रह ही नहीं जाती है, बावजूद इसके एमके स्टालिन तमिलों पर हिंदी थोपे जाने के विवाद को लगातार मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वह तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज हैं। यदि उनके पास सत्ता नहीं होती तो वह सरकार की किसी कमी को मुद्दा बनाकर वोट मांगते। अब खुद सत्ता में हैं तो ऐसा तो कर नहीं सकते। उन्हें तो पांच सालों में उनकी पार्टी द्वारा जनहित में किए गए कामों के आधार पर ही जनता से वोट मिलेगी। उनके पास ऐसे कोई काम गिनाने के लिए है नहीं, जिसके आधार पर वह लोगों के बीच जाकर वोट मांग सकें। इसलिए वह हिंदी भाषा विरोध को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश में हैं। स्टालिन को यह समझना चाहिए कि वह समय अलग था जब हिंदी विरोध को मुद्दा बनाकर जनभावनाओं को भड़काकर वोट मिल जाते थे, अब इंटरनेट का युग है। लोग पढ़े—लिखे हैं। ऐसे में वह ‘हिंदी थोपे जाने’ के मुद्दे को हवा देकर तमिलनाडु की जनता से वोट नहीं ले पाएंगे। उनका यह दांव इस बार नहीं चलने वाला।

डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।