
हाल ही गुजरात में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस ने कई प्रस्ताव पारित किए। इनमें से एक था अमेरिका द्वारा भारत पर लगाए गए 26 प्रतिशत टैरिफ का मामला। इस मुद्दे को लेकर अपने अधिवेशन में भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कांग्रेस ने खूब निशाना साधा। अगले ही दिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन को छोड़कर बाकी सब देशों पर घोषित ‘छूट वाले’ टैरिफ पर 90 दिनों तक के लिए रोक लगा दी। जैसे ही अमेरिका ने यह कदम उठाया कांग्रेस द्वारा इस मुद्दे पर भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ झूठा विमर्श गढ़ने का प्रयास एकदम से धराशाई हो गया।
जब भी देशहित से जुड़े किसी गंभीर विषय पर एकजुटता की आवश्यकता होती है, तब-तब कांग्रेस अपने तुच्छ स्वार्थों को साधने के लिए भ्रामक नैरेटिव खड़ा करने में जुट जाती है। कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस ने जो आरोप लगाए और जो सलाह दी वह न सिर्फ बचकानी थी बल्कि भारत और अमेरिका के संबंधों को खराब करने वाली भी थी। क्या कांग्रेस यही चाहती है की भारत चीन की तरह अमेरिका जैसी महाशक्ति से उलझ जाए। चीन ने अमेरिका को आंखें दिखाई तो उसके उत्पादों पर अमेरिका ने 125 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया। शुरुआत में लगाए गए टैरिफ के अतिरिक्त 20 प्रतिशत नया शुल्क भी लगाया। इस प्रकार चीनी उत्पादों पर टैरिफ की दर बढ़कर 145 प्रतिशत हो गई है।
कांग्रेस शायद भूल गई है की विदेश नीति जैसे गहन और संवेदनशील विषय पर बोलने की उसकी क्षमता नहीं है। कांग्रेस की विदेश नीति का ही परिणाम है जो चीन हमारी इतनी भूमि कब्जाए बैठा है। इतिहास में जाकर देखें तो पता चलता है कि कांग्रेस के कार्यकाल में अमेरिका से भारत के रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे। उदाहरण के तौर पर 1949 में जब भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन से मिले थे तब अमेरिका चाहता था कि भारत उसके खेमे में आ जाए। नेहरू नहीं माने और गुटनिरपेक्षता के नाम पर एक तीसरी ताकत खड़ी करने की कोशिश की। नतीजतन अमेरिका और भारत के रिश्ते बिगड़ गए।
प्रतिक्रिया में अमेरिका ने पाकिस्तान को एक हथियारबंद भौगोलिक क्षेत्र में तब्दील कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान आतंकवादियों का देश बन गया। इसके नतीजे हमें 26/11 के हमलों समेत अनगिनत आतंकवादी घटनाओं के रूप में देखने को मिले। नेहरू के बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी के दौर में भी अमेरिका से संबंध तनावपूर्ण बने रहे। इंदिरा गांधी मार्च 1966, नवंबर 1971 और जुलाई 1982 में अमेरिका के तीन दौरे किए। इस दौरान भी दोनों देशों के रिश्ते खराब बने रहे। इंदिरा गांधी के बेटे, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तीन बार जून 1985, अक्टूबर 1985 और अक्टूबर 1987 में अमेरिका का दौरा किया। इन दौरों से रिश्ते जीवित तो रहे लेकिन प्रगाढ़ नहीं हो पाए। रिश्तों में ठहराव ही बना रहा। कूटनीतिक तौर पर भारत, अमेरिका की विदेश नीति के हाशिए पर ही रहा।
1991 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तब अमेरिका से रिश्ते थोड़े जरूर सुधरे। वह 1992 और सितंबर 1997 में दो बार अमेरिका के दौरे पर गए, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक संवाद के दरवाजे खुले। अटल बिहारी वाजपेई के समय में भी अमेरिका से रिश्ते प्रगाढ़ हुए। सितंबर 2000, नवंबर 2001, सितंबर 2002 और सितंबर 2003 में अमेरिका के चार दौरे किए. इन दौरों से आर्थिक संबंधों की रफ्तार में जो तेजी आई वो आज तक बनी हुई है। 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अमेरिका के साथ रिश्ते और प्रगाढ़ किए। दोनों देशों के बीच संवाद स्थापित किया, लेकिन झुके नहीं, अपनी शर्तों के साथ अमेरिका से रिश्ते रखे।
कांग्रेस यह भी भुला बैठी कि मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत ने कभी भी अमेरिका या किसी अन्य शक्ति के सामने घुटने नहीं टेके। चीन की आक्रामकता हो या अमेरिका का दबाव—भारत ने अपनी विदेश नीति में संतुलन, आत्मविश्वास और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा है। वह अपनी विदेश नीति किसी के दबाव में आकर तय नहीं करता। उसकी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति है। आज भारत की विदेश नीति आत्मनिर्भरता, दृढ़ता और विवेकशीलता पर आधारित है। आज भारत किसी का पिछलग्गू नहीं है। उदाहरण के तौर पर चीन की विस्तारवादी नीति के विरुद्ध भारत ने केवल सैन्य मोर्चे पर ही नहीं, आर्थिक और कूटनीतिक स्तर पर भी करारा प्रत्युत्तर दिया है।
कांग्रेस जिस अमेरिका की आंखों में आंखें डालने की दुहाई देती है, वही अमेरिका भारत के साथ रणनीतिक साझेदारी बढ़ाने को आतुर है। यह सब उसके साथ बेहतर संबंध रखने के कारण ही संभव हो पाया है। यह भी समझना आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में ‘मित्रता’ और ‘कूटनीति’ दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने अमेरिका से मित्रवत संबंध बनाए रखे हैं, लेकिन कभी भी अपने हितों से समझौता नहीं किया। फिर चाहे रूस से एस-400 मिसाइल प्रणाली की खरीद हो या ईरान से कच्चे तेल का मामला—भारत ने हर बार अपने हित को सर्वोपरि रखते हुए निर्णय लिया है।
क्या कांग्रेस यह चाहती है कि भारत की विदेश नीति भी उन्हीं के समय की तरह दिशाहीन, दब्बूपन और अनिर्णय की शिकार रहे। वह भूल गई कि 1962 में चीन से युद्ध के समय देश को किस प्रकार की कूटनीतिक और सैन्य विफलता का सामना करना पड़ा था। यह वही कांग्रेस है, जिसने अमेरिका के सामने झोली फैलाई थी और जिसने संयुक्त राष्ट्र तक में भारत के सम्मान के विरुद्ध जाकर प्रस्तावों का समर्थन किया था। आज भारत एक नया भारत है—जो न तो आंख झुकाकर बात करता है, न आंख चुराकर। यह भारत आंख में आंख डालकर, अपने हितों की रक्षा करते हुए, दुनिया के मंचों पर आत्मविश्वास से खड़ा है।
टैरिफ जैसे आर्थिक विषय पर भी जब अमेरिका को भारत की नाराजगी का अंदाजा हुआ, तो उसने अपने निर्णय पर पुनर्विचार किया। यह है एक सशक्त नेतृत्व का परिणाम—ना शोर, ना आरोप—केवल परिणाम। कांग्रेस ने अपने अधिवेशन से जो भ्रमजाल फैलाने की कोशिश की दरअसल वह उस हताशा का प्रतीक है, जो एक पराजित राजनीतिक दल को अपनी प्रासंगिकता खोने के भय से सताता है। वह नहीं जानती कि देश की जनता अब विदेश नीति के नाम पर दिखावे की नहीं, ठोस नीति और परिणामों की अपेक्षा रखती है। कम से कम कांग्रेस को तो विदेश नीति जैसे विशेष पर बोलने से पहले अपने गिरेबान में झांक लेना चाहिए।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।