
तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत तीन-भाषा फार्मूले के माध्यम से केंद्र द्वारा हिंदी थोपे जाने का आरोप लगा रही है। स्टालिन एक बार फिर हिंदी विरोध का मुद्दा खड़ा कर ओछी राजनीति करने पर उतारू हैं। जबकि एनईपी में ऐसा कुछ नहीं है। इसमें सिर्फ इतना भर है कि आप एक विदेशी भाषा और दो भारतीय भाषा पढ़ाएंगे। विदेशी भाषा कोई भी हो सकती है। जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, रशियन, स्पेनिश आदि। इसी तरह भारतीय भाषा कोई भी हो सकती है। एनईपी में यह कहीं नहीं कहा गया है कि आपको हिंदी ही पढ़ानी है या पढ़नी है। आप अपनी मातृभाषा को पढ़ाएं। अन्य कोई भारतीय भाषा जैसे बंगाली, तमिल, मलयालम, तेलगु आदि भी आप पढ़ा सकते हैं।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने भाषा को लेकर जो विवाद शुरू किया है वह नया नहीं है। हिंदी, हिन्दुओं और हिंदुस्तान की संस्कृति को भला-बुरा कहना, नीचा दिखाना, उनके विरुद्ध शाब्दिक हिंसा करना सदैव से डीएमके की राजनीति का हिस्सा रहा है, जिसको आधार बनाकर वह लोगों से वोट लेती आई है। इस बार भी स्टालिन वही करने का प्रयास कर रहे हैं। वर्तमान में डीएमके वहां सत्ता में है। एक दशक तक वह तमिलनाडु की सत्ता से बाहर रही थी। 2021 में उसको सत्ता मिली और एमके स्टालिन मुख्यमंत्री बनें। 2026 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा का ग्राफ भी वहां पर बढ़ रहा है। इसलिए वह हिंदी विरोध को हवा दे रहे हैं। उत्तर भारतीयों के कब्जे का हौवा खड़ा करके वह तमिलनाडु में फिर से सत्ता में आना चाह रहे हैं।
2023 में एमके स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन ने सनातन का विरोध किया था। उन्होंने कहा था, ”जिस तरह डेंगू, मच्छर, मलेरिया या कोरोना वायरस को खत्म करने की जरूरत है, उसी तरह हमें सनातन को भी खत्म करना होगा।” डीएमके के नेता हमेशा से यह तर्क देते आए हैं कि हिंदी के माध्यम से उत्तर भारत द्वारा दक्षिण भारत पर राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि कतई ऐसा नहीं है। देश की तीन चौथाई जनता हिन्दी बोलती और समझती है। हिन्दी हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की प्रतीक है।
1947 में जब देश आजाद हुआ तब भी हिन्दी देश के अधिसंख्य नागरिकों की भाषा और समस्त देश की सर्वमान्य सम्पर्क सूत्र थी। इसके अलावा लंबे कालखण्ड तक चले स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र की भावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम थी। हालांकि देश की आजादी से पहले ही हिंदी का विरोध तमिलनाडु में शुरू कर दिया गया था। 1940 और 1960 के दशकों में हिंदी थोपने के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलनों की शुरुआत की गई। जिसका नेतृत्व पहले द्रविड़ कड़गम और उसके बाद डीएमके ने किया।
हिंदी विरोध की शुरुआत पेरियार ई.वी. रामासामी ने की थी। 1937 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाली मद्रास प्रेसीडेंसी सरकार ने हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य विषय बनाने की घोषणा की। इस निर्णय पर पेरियार ने विरोध जताया। पेरियार ने इस फैसले को तमिल भाषा और संस्कृति के खिलाफ एक साजिश करार दिया। पेरियार के नेतृत्व में इस आंदोलन ने जल्द ही राजनीतिक गति पकड़ी और पूरे मद्रास प्रेसीडेंसी (जिसमें वर्तमान तमिलनाडु शामिल है) में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। पेरियार ने यह तर्क दिया कि हिंदी थोपने का उद्देश्य उत्तर भारत के सांस्कृतिक और भाषाई प्रभुत्व को स्थापित करना है। पेरियार ने हिंदुओं का विरोध किया, हिंदी का विरोध किया, तमिल ब्राह्मणों का विरोध किया।
1949 में, पेरियार के अनुयायियों में से एक, सी.एन. अन्नादुरई द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ( डीएमके) का गठन किया। गठन के साथ ही पार्टी ने हिंदी विरोध को राजनीतिक रणनीति के रूप में अपनाया। लोगों को बरगलाया गया। उन्हें कहा गया कि तमिल भाषा को हिंदी के प्रभुत्व से खतरा है। हिंदी विरोधी आंदोलन डीएमके की राजनीति का मुख्य हिस्सा बन गया। इसी से उसे लोकप्रियता मिली और डीएमके सत्ता पाने में कामयाब रही। आज भी डीएमके यही कर रही है। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ता कैसे हासिल हो इसके लिए फिर से इस मुद्दे को तूल देकर राजनीति करने का प्रयास हो रहा है। डीएमके का मकसद सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करना है।
2021 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनावों के पहले एमके स्टालिन की बहन कनिमोझी ने भी हिंदी विरोध फॉर्मूला अपनाया था। उन्होंने केंदीय आयुष मंत्रालय के वैद्य राजीव कोटेचा पर आरोप लगाया था कि उन्होंने एक वेबीनार में ह़िंदी नहीं जानने वाले प्रतिभागियों को सत्र छोड़कर जाने को कहा था। कनिमोझी ने तत्कालीन आयुष मंत्री श्रीपद नाइक को चिट्ठी लिखकर कोटेचा का इस्तीफा मांगा था। जबकि यह कतई झूठा आरोप था। सिर्फ और सिर्फ राजनीति के लिए ऐसा किया गया था।
स्टालिन हिंदी का विरोध ही नहीं कर रहे बल्कि संस्कृत का भी विरोध कर रहे हैं। वह संघ परिवार पर भी अनर्गल आरोप लगा रहे हैं। आसन्न चुनावों में हार का उन्हें डर लग रहा है। इसलिए वह भाषाई आधार पर लोगों की भावनाएं भड़काकर उनके पक्ष में वोटों का धुव्रीकरण करना चाह रहे हैं।
स्टालिन तमिल फिल्मों के सुपर स्टार विजय द्वारा राजनीतिक पार्टी बनाए जाने और चुनाव मैदान में उतरने के फैसले से भी डरे हुए हैं। बता दें कि पिछले साल विजय ने ‘तमिलगा वेत्री कझगम’ नाम से अपनी पार्टी बनाई थी। हाल ही में विजय ने पार्टी की पहली वर्षगांठ पर पूरी तरह से राजनीति में उतरने की घोषणा की है। विजय की तमिलनाडु में बहुत ज्यादा प्रसिद्धि है। उनके करोड़ों प्रशंसक हैं। जाहिर है उनकी पार्टी इस बार खुलकर चुनाव लड़ेगी। यदि ऐसा हुआ तो उसका नुकसान भी डीएमके को ही होगा। वहीं भाजपा का मत प्रतिशत भी तमिलनाडु में बढ़ रहा है। के. अन्नामलाई के नेतृत्व में भाजपा आक्रामक तरीके से तमिलनाडु में प्रचार कर रही है। देखना यह है कि स्टालिन अपने हिंदी विरोध से वोटों का ध्रुवीकरण करने की पुरजोर कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन राज्य के तमाम समीकरणों को देखते हुए यही लगता है कि इस बार स्टालिन की सत्ता में वापसी नहीं होने जा रही है।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।