
कांग्रेस के चुनाव दर चुनाव हार के बाद राहुल गांधी के आरोपों की स्क्रिप्ट लगभग एक जैसी ही होती है, या तो ईवीएम को दोष दो, या चुनाव आयोग को पक्षपाती ठहराओ, या फिर पूरी चुनावी प्रक्रिया को ही कठघरे में खड़ा कर दो। वहीं जब किसी चुनाव में कांग्रेस को जीत मिल जाती है, तब उसे ‘लोकतंत्र की जीत’ बताया जाने लगता है। तब ईवीएम एकदम ठीक चलने लगती हैं, चुनाव आयोग की भूमिका पर भी कोई सवाल नहीं उठाए जाते।
हालिया उदाहरण महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का है। कांग्रेस यहां हार गई तो राहुल गांधी ने इस चुनाव को ही ‘फिक्स’ करार दे दिया। चुनाव परिणामों के बाद कितने ही मौकों पर उन्होंने बार—बार दावा किया कि महाराष्ट्र चुनावों में मतदान प्रतिशत अचानक बढ़ गया और मतदान खत्म होने के बाद लाखों वोट डाले गए। वह लगातार यह बोलकर झूठा विमर्श खड़ा करने करने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी बयानबाजी में कितनी सच्चाई है यह तब स्पष्ट हुआ जब इसी तरह के आरोपों को लेकर सामने आई याचिका को बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। हाइकोर्ट ने वंचित बहुजन आघाड़ी (वीबीए) की याचिका को खारिज कर दिया। इसमें चुनाव में धांधली के आरोप लगाए गए थे।
याचिका में दावा किया गया था कि मतदान समाप्ति के समय यानी शाम 6 बजे के बाद 76 लाख वोट डाले। लगभग 95 निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसा हुआ। जो वोट डाले गए और जो गिने गए उनकी संख्या मेल नहीं खाती। याचिकाकर्ता चेतन अहिरे ने पूरे विधानसभा चुनाव को ही अवैध घोषित करने की मांग करी थी। हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति जीएस कुलकर्णी एवं आरिफ डॉक्टर की पीठ ने इस याचिका को तथ्यों से रहित, समय बर्बाद करने वाला और आधारहीन बताकर खारिज कर दिया। अदालत ने साफ कहा कि उनकी याचिका में कोई ठोस तथ्य नहीं हैं।
यहां सवाल उठता है कि जब अदालत और निर्वाचन आयोग दोनों ने चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता पर मुहर लगा दी है, तब राहुल गांधी क्यों बार—बार महाराष्ट्र चुनावों पर सवाल उठा रहे हैं, तो इसका जवाब है, अपनी असफलता से ध्यान भटकाना और संभावित चुनावी हार का बहाना पहले से तैयार रखना। पिछले दिनों राहुल गांधी ने एक अंग्रेजी अखबार में लिखे अपने लेख में कहा कि शाम पांच बजे तक महाराष्ट्र में मतदान 58.22 प्रतिशत था और अंतिम आंकड़ा 66.05 प्रतिशत कैसे हो गया। यह बढ़त संदेहास्पद है।
बिहार चुनावों को लेकर भी राहुल गांधी यही पैंतरा अपना चुके हैं। उन्हें पहले से ही हार की आशंका है, इसलिए अभी से परोक्ष रूप से यह माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि यदि कांग्रेस हार गई तो यह चुनाव निष्पक्ष नहीं थे। यह कोई नई बात नहीं है। राहुल गांधी का यह राजनीतिक व्यवहार किसी भी परिपक्व लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं हो सकता। लोकतंत्र में असहमति और आलोचना के अधिकार हैं, लेकिन हर हार को साजिश बताना न तो उचित है, न ही वह लोकतांत्रिक है। भारत में चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं दशकों से निष्पक्ष रूप से काम कर रही हैं। उन्हें केवल इसलिए दोषी ठहराना कि आप चुनाव हार गए, तो यह गैर-जिम्मेदाराना और खतरनाक है।
असल में यह दोहरी मानसिकता राहुल गांधी की राजनीति का स्थायी भाव बन चुकी है। यदि वे चुनाव जीतते हैं तो सब ठीक, और यदि हारते हैं तो चुनाव प्रक्रिया ही दोषपूर्ण हो जाती है। यह प्रवृत्ति केवल बचकानी ही नहीं, लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास फैलाने वाली भी है। राहुल गांधी इससे बाज आएंगे ऐसा नहीं लगता। वह आगे भी इसे जारी रखेंगे। राहुल गांधी को यह समझना चाहिए कि झूठा विमर्श खड़ा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता। अफवाहों, आरोपों और भ्रम फैलाने की राजनीति से सुर्खियां तो बटोरी जा सकती हैं, लेकिन चुनाव नहीं जीता जा सकता। कभी ईवीएम तो कभी चुनाव आयोग पर सवाल उठाना उनके ही नेतृत्व पर सवाल खड़े करता है।
राहुल गांधी को चाहिए कि वे आत्मचिंतन करें। उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि जनता अब भावनाओं में बहकर मतदान नहीं करती, वह विकास और नेतृत्व की स्थिरता को प्राथमिकता देती है। गांधी परिवार के नाम पर वोट लेने का दौर अब समाप्त हो चुका है। आज का मतदाता सजग है, विवेकशील है और किसी भी राजनीतिक दल की विफलताओं को माफ करने को तैयार नहीं है। मतदाता अब केवल वंश परंपरा नहीं, योग्यता और परिणाम चाहता है। राहुल गांधी को यह समझना होगा कि बार-बार संस्थाओं पर दोषारोपण से न तो उनकी नेतृत्व क्षमता सिद्ध होती है और न ही कांग्रेस की जमीन दोबारा तैयार होगी।
डिस्कलेमर: उपरोक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं ।